जीवन जितनी सहजता से जीया जा सकता है, उतनी ही असहज मृत्यु हो सकती है। खासकर तब जब वह देहरी पर आकर खड़ी हो जाए। न भीतर आए न बाहर जाए। वह द्वार पर खड़ी है, उस भिक्षुक की तरह जो न कटोरा आगे करता है और न पैर आगे बढ़ाता है। गृह स्वामी संकोच में है कि अब इसका करें तो क्या करें। यही संकोच जैसे सारे शोक उघाड़ देता है। अब बातें करने को कुछ नहीं है। कुछ है तो बस यह कि और कितने दिन.. और कितने दिन। बस यही टेर लगती रहती है।
बस एक देह रह जाती है निस्तेज सी, बस सांस और धडक़न जिसके प्राणों की गवाही देती है। इसके अलावा कोई और चिन्ह बाकी नहीं रहता। जीवन और मृत्यु के बीच जैसे कोई देहरी हो, जिसे अजीब से ठहराव ने ग्रस लिया हो। उस वक्त कोई कुछ नहीं सोच पाता, उसका होना क्यों जरूरी है, क्या किया, क्या छूट गया। सारे हिसाब जैसे देह की खूंटी में अटकी सांसों पर टंगे रह जाते हैं। कुछ बाकी रहता है तो वही इंतजार कि कब ये गांठ खुले और पंछी आजाद हो। मृत्यु अटल है, लेकिन उसका इंतजार जब लंबा होता है तो उससे बोझिल कुछ नहीं हो सकता।
और जब मौत कई बार चकमा दे चुकी हो तो फिर बातों के सिरे बदल जाते हैं। शोक की मुद्राएं भी नए रूप धर लेती हैं। घड़ी की टिक-टिक के अर्थ बदल जाते हैं। अस्पताल या घर के बाहर-भीतर मौजूद लोगों के चेहरे के भावों का ज्वार-भाटा हर बार अपनी तीव्रता खोने लगता है। भावों की नदी वक्त के साथ किसी पोखर की तरह ठहर जाती है, मटमैली हो जाती है। उसमें पनप जाती है नई घटनाओं की जलकुंभियां, घर बना लेती है ताजा स्मृतियों की काई। मानो वह भी ठिठक कर देखना चाहती हो कि सांसों का यह स्पंदन थमे तो मैं भी आगे बढूं। पहाड़ जैसे दिन और पर्वत शृंखलाओं जैसी रातें।
क्योंकि वर्षों कोई सूचना न आए तो कोई खालीपन नहीं लगता, लेकिन जब आपको पता है कि कोई खबर डाकिये के हाथ पहुंच चुकी है, लिफाफा किसी भी दिन आपके हाथ में आने वाला है, उसके बाद खुद को समझाना मुश्किल होता है। सब्र का असली इम्तहान तब होता है, जब खबर आपको पता होती है। फिर भी लिफाफे का इंतजार करने को विवश होते हैं। लिफाफा तक खोलकर देखने की जरूरत भी नहीं है, फिर भी। उसके लिए रुकना होता है। कुछ ठहराव ऐसे होते हैं, जिन्हें गति देने के लिए सिर्फ एक इशारे की जरूरत होती है। जैसे ज्वालामुखी के मुंह पर लगा कोई ढक्कन है, जो एक हल्के से झटके के साथ पूरा दृश्य बदल देगा। जब तक वह ढक्कन लगा है, वहां नीम खामोशी होती है, जिसके हाथ-पैर किसी मूसल से बंधे होते हैं।
फिर इस दरम्यान बातों के जो पिटारे खुलते हैं, उनमें शोक और क्षोभ नहीं बल्कि हानि-लाभ के गुंताड़े होते हैं। लगता है कहीं जान अटकी है, छूटती नहीं। मोह तो रहा नहीं किसी से फिर किस पाश में बंधे हैं। ऐसा तो नहीं कि जानबूझकर घोषित नहीं किया जा रहा। जो दिन सबसे माकूल होगा, उस दिन शायद मुनादी कराई जाए। सारे गुणाभाग लगाकर देखा जाएगा। ऐसी ही लंबतड़ानियां होने लगती हैं, चलती रहती हैं। जो ऊब मिटाती नहीं और रहने देती नहीं है। सहानुभूति का अचार मुरब्बे से जियादा मीठा और छोंदे से ज्यादा चटपटा होता है।
और उस वक्त जब लिफाफा हाथ में आ जाता है। देह की धुरी घूम जाती है, प्रत्यंचा पर चढ़ा प्राणों का तीर छूट जाता है। तब एक पल को जैसे सब भूल जाते हैं, अब क्या करें, क्या कहें। क्योंकि इस बीच कितना कुछ कह चुके। संवेदनाओं की नदी से कितना तो पानी बह गया। जब खुद नहीं आते तो उन्हें बुलाने के लिए जतन करने होते हैं। प्रयासों से आए आंसुओं में नमी और खार की जगह बनावट ज्यादा होती है। इसलिए लंबे इंतजार के बाद का शोक बहुत सजावट और जमावट के साथ होता है।
(अमित मंडलोई, वरिष्ठ पत्रकार। ये लेखक के अपने विचार हैं)