प्रधानमंत्री: प्रधानमंत्री? तेरे कितने दीवाने = पद एक & दावेदार अनेक / अनामी शरण बबल
1/ प्रधानमंत्री का पद चाहे कितना भी चुनौतियों वाला हो, मगर इस पद की चाहत का सपना पालने वाले बेशुमार नेता हैं। भले ही चाहे धनबल जनबल या संसद में पर्याप्त संख्याबल भी ना हो मगर उठते-बैठते पीएम बनने का सपना देखने वाले नेताओं की संख्या कभी कम नहीं हुआ। न जाने कितने नेताओं के मन की हसरत उनके साथ ही दफन हो गई पर पीएम बनने की चाहत कभी कम नहीं हुआ। इसके आकर्षण का यह जलवा कि लोकसभा चुनाव में भले ही अभी आधा साल बाकी हो मगर भावी प्रधानमंत्रियों के रेस में ढेरों नाम प्रमुखता से प्रकट होते-होते दिखाई देने लगे हैं। – – मोटे तौर पर माना जा रहा है कि 2019 लोकसभा चुनाव में फिर से भाजपा सरकार की वापसी होगी। आमतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी की ही सेकेण्ड पारी की उम्मीद है। मगर किन्हीं कारणों से यदि ऐसा नहीं हुआ तो कमल खेमे में प्रधानमंत्री की अवांछित कतार में नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राजनाथ सिंह हैं जिनकी कोई संभावना नहीं होने के बावजूद संभावित सेकेण्ड लाईन को रखना भी जरूरी होता है। गडकरी और राजनाथ पार्टी सुप्रीमो रह चुके हैं लिहाजा पार्टी के भीतर बाहर के खेल की समझ रखते हैं। सबसे लोकप्रिय और बातूनी वाचाल और किसी भी मुद्दे पर कभी भी किसी को भी परास्त करने की क्षमता रखने वाली श्रीमती स्वराज किसी भी पद के लिए हमेशा-हमेशा योग्य दावेदार रही हैं। वहीं नाना प्रकार के आरोपों से घिरे शिवराज भी अब भोपाल की सीमा से बाहर निकलने की ताक में है। वरिष्ठता के मामले में प्रधानमंत्री के समकक्ष वरिष्ठ भी हैं। मगर शिवराज के सामने विधानसभा चुनाव में भाजपा की सता में वापसी लाकर फिर सत्तारूढ़ होना फिलहाल सबसे ज्यादा आवश्यक है। इस मैच में जीत हासिल करने के बाद ही कैप्टन या उपकप्तानी का दावा मजबूत हो सकता है। हालांकि विधानसभा चुनाव में इस बार शिवराज को बहुत-बहुत संकटों चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद शिवराज की जीत से प्रधानमंत्री मोदी के सक्षम एक कद्दावर शिवराज को उपेक्षित रख पाना मुश्किल है। जानकारों का कहना है कि कि शिवराज सिंह चौहान की चौथी पारी को केंद्र अच्छी नीयत से नहीं देख रहा है। हालांकि छतीसगढ के मुख्यमंत्री डॉक्टर रमण सिंह भी अपने शासन की चौथी पारी के लिए मैदान में हैं। पर रायपुर से बाहर निकलने के अपने सपने को अभी हावी होने का मौका नहीं दिया है। लिहाजा डॉक्टर को पीएम रेस से बाहर माना जा रहा है। अलबत्ता सता में वापसी के बाद पीएम की नयी पारी की नयी टीम में शिवराज और डॉक्टर को शामिल होने की पूरी संभावना है। ताकि इन सामंतों को एक ही इलाके में बलवान होने नहीं दिया जा सके। हालांकि भावी पीएम की रेस में गोरखधाम बाबा आदित्य नाथ योगी भी मजबूत दावेदार हो सकते हैं। इन संभावनाओं पर और टिप्पणी करने की बजाय देखना यह होगा कि प्रधानमंत्री बना रहे रस को इस बार कितने दमदार ढंग से कायम रखते हैं। – – – – – – – – विपक्षी एकता गठबंधन तालमेल और मिलजुल कर विपक्ष की सामूहिक लडाई का सपना पिछले 40 साल में कभी साकार नहीं रहा। 1975 आपातकाल के बाद 1977 आम चुनाव में मिलजुल कर इंदिरा गांधी हटाओ देश बचाओ के नाम पर विपक्ष की दमदार जीत हुई। मगर प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई की सरकार ढाई साल में ही बेदम हो गयी। मौके का फायदा उठाकर चौधरी चरण सिंह लाठी के सहारे पीएम बनकर कब लुप्त हो गये। बहुतों को इसका अहसास भी नहीं हो पाया। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप घोटाले में शामिल होने के आरोप को मुद्दा बनाकर कांग्रेस से निलंबित राजा मांडा यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह पीएम बने। हालांकि पीएम की रेस में अचानक हरियाणा के मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल उठकर खडे़ हो गये। एक समय तो लगा कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए पीएम बनना दूभर है। मगर जनसैलाब और वीपी के साथ खड़ी भीड़ को देखते हुए चौधरी देवीलाल ने पीएम बनने की जिद छोड़ दी। और ताऊजी बनकर अपने हाथों राजा वीपी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। हालांकि उप प्रधानमंत्री होकर या रहकर ही हरियाणा के ताऊ देवीलाल की यह भूमिका याद की जाती है। मगर, सता में सेंध मारकर बलिया नरेश चंद्रशेखर भी राजा को हटाकर चार माह के लिए कागजी पीएम बनकर इतिहास में अमर हो गये। चार माही शासन को 40 साल बनाम चार माह के नारे पर चुनाव में उतरे और बेदम होकर ढेर हो गये। – – पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद सता में कांग्रेस आई और पीवी नरसिंह राव पीएम बने। 1996 में सता में विपक्ष की वापसी हुई और तेरह दिनों की तेरहवीं के बाद भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी सरकार विदा हो गई। तब किस्मत के धनी कर्नाटक के एचडी. देवेगौड़ा पीएम बने और फिर कब कैसे किस तरह बेआबरू होकर वापस कर्नाटक लौट गये। यह सारा कांड शर्मनाक है। देवेगौड़ा के बाद फिलर पीएम के रूप में इंद्र कुमार गुजराल पीएम बनाये गये विदेशी मामलों के विशेषज्ञ होने के कारण पद की गरिमा महत्व और सम्मान को कायम रखते हुए शानदार प्रदर्शन किया। मगर समर्थन और बहुमत के अभाव में इनके कार्यो का उल्लेख संभव नहीं हो पाया। 1998 से लेकर 2004 तक सता की पारी खेलकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस से पराजित हो गयी। इसके बाद 2014 तक कांग्रेस की सरकार रही। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दो पारियों में दस साल का कार्यकाल पूरा किया। और 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए ने शानदार प्रदर्शन किया। बहुमत से पहली बार कोई गैर कांग्रेसी सरकार पहली बार सता में आई। सरकार गठन के बाद प्रधानमंत्री बने नरेंद्र दामोदर मोदी ने अपनी कार्यशैली दक्षता कुशलता ओर जुमलों की रोचकता से देश का नेतृत्व किया।
—– 2019 लोकसभा चुनाव के लिए अब आधा साल बाकी है। भाजपा खेमे में भी प्रधानमंत्री के खिलाफत करनेवालों की तादाद भी काफी लंबी है। उधर कई मुद्दों दावों वायदों पर वोटरों को सपना दिखाते दिखाते पांचवा साल आ गया फिर भी न अच्छे दिन आएं न बैंकों में एक फूटी कौड़ी ही आ सकी। भाजपा या एनडीए के खिलाफ के खिलाफ चुनाव लड़ने की बजाय पूरा विपक्ष नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपनी योजना बना रही है। मोदी लहरों को सुनामी बनने से रोकने की कवायद जारी है। विपक्षी एकता की बात तो की जा रही है मगर एक होने के बाद भी एक रहने को कोई तैयार नहीं है। नेशनल कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता शरद पवार ने भावी नेतृत्व के लिए जिसके पास सबसे ज्यादा सांसद हो उसी को मुखिया चुनने का फॉर्मूला सामने रखा। भले ही ज्यादातर दलों ने इसपर ध्यान नहीं दिया मगर सबके साथ रहने का दावा करने वाली बसपा की बहन मायावती ने अपना रास्ता अलग कर लिया। भले ही उनको विपक्षी एकता की खलनायक की तरह देखा जा रहा है मगर वे पूरे देश में दलित शक्ति के रूप में अपनी ताकत तौल और माप रही हैं कि अकेले अपने जनाधार और जातीय समीकरण को पाकर पीएम की रेस में कहां पर हैं। बसपा सुप्रीमो का यह हौसला तब और उल्लेखनीय हो जाता है जब पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा का पूरे देश में खाता भी नहीं खुला था। दलित नेता के रूप में देश की सबसे बड़ी और सबसे ताकतवर नेता इस समय केवल मायावती ही हैं जिनकी साख और धाक देश भर के दलितों को लामबंद कर रहा है। और विपक्षियों को बसपा की रणनीति का पूर्वानुमान ही नहीं है। -गठबंधन और लामबंद होने के नाम पर जमीनी स्तर पर काम होने की बजाय खबरिया चैनलों पर मोदी विरोधी भाषण देते रहने का दौर चल रहा है। सनसनी फैलाते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एकाएक तेलंगाना के मुख्यमंत्री के साथ मिलकर दक्षिण भारत और दिल्ली में कांग्रेस की सोनिया गांधी से मुलाकात करके राजनीतिक तापमान को बढा जाती है। दो एक सप्ताह के बाद ऐ एकता का खुमार नीचे आकर ठहर गया। वहीं तेलुगु देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू को अपनी क्षमता कुशलता योग्यता का अहसास होता है तो दक्षिण भारत के सभी राज्यों में दौरा करके एक साझा मोर्चा की रूपरेखा पर काम करने में व्यस्त हैं। इनका मानना है कि एक संतोष जनक संख्याबल हो तो लोग हमारे पास हमारी शर्तों को मानने पर सहमत होंगे। उधर बिना दलबल के शरद यादव इस लालच में आकर जेडीयू से बाहर हो गए कि आम चुनाव के बाद विपक्ष की ओर से नेता के रूप में उनके नाम पर सहमति की संभावना है। भावी सपनों की मार से यदि शरद यादव बीमार नहीं होते तो एनडीए की मोदी सरकार में वे इस समय किसी ताकतवर मंत्रालयों की बागडोर संभाल रहे होते। – – – – – – – – – – – – – कांग्रेस सुप्रीमो राहुल गांधी ने सभी दलों के साथ मिलकर किसी भी तरह तालमेल करने के लिए हर समझौते पर राजी हैं। इस समय कांग्रेस अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। जनाधार खोने के बाद भी देशभर में कार्यकर्ताओं की टोली और लोगों के बीच एक नाता है। यही वजह है कि खत्म होने के कगार पर आकर भी कांग्रेस कभी भी रूख बदलने की ताकत रखती है। यूपी बिहार तेलंगाना आंध्रप्रदेश कर्नाटक तमिलनाडु केरल समेत पूरे देश में कांग्रेस को अपनी लुप्त जनाधार का अहसास हैं। तभी तो वह किसी भी राज्य में मुख्य भूमिका निभाने की बजाय किसी के पीछे लगकर जुड़कर बिना शर्त साथ देने के लिए भी राजी होकर गठबंधन को रखने की कोशिश करने में लगी है। खुद नेतृत्व करने की जिद को भी हटाकर एकता को मोदी के खिलाफ लहर पैदा करने में लगे हैं। कांग्रेस सुप्रीमो को नकारने वालों को यह एक बड़ी चिंता है कि राष्ट्रीय पार्टी यदि देश भर में भी इक्का दुक्का सांसदों को विजयी बना जाती है तो सब मिलाकर सबसे ज्यादा सांसद बल राहुल गांधी के दावे को ही पुख्ता करेगी। – – – – – – – – प्रधानमंत्री का सपना देखते देखते चारा खाने के आरोप में जेल में बंद राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव की पूरी जिंदगी अब जेल में ही कटेगी। जातीय राजनीति के पैरोकार लालू यदि सजातीय मुलायम सिंह यादव का समर्थन कर दिए होते तो देवेगौड़ा की जगह मुलायम का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था। उस समय के सबसे बड़े पावर सेंटर की तरह उभरे केवल लालू के खिलाफत से मुलाक़ात सिंह यादव पीएम पद से वंचित रह गए अलबत्ता अहम की इस लडाई का अंत पिछले साल रिश्ते में बदल गया। लालू की बेटी की शादी मुलायम के पोते से हुई। वहीं पीएम बनने के सपनों में दिनरात मशगूल दलित नेता रामविलास पासवान भी बिना जन थन संख्याबल और जनाधार के पीएम बनने की कोशिश पिछले तीन दशक से कर रहे हैं। और तो और कनाडा में जाकर एक सम्मेलन कराके पासवान ने ।। देश का पीएम कैसा हो / रामविला पासवान जैसा हो।। का नारा बुलंद करके विदेशों में तो वाहवाही लूटी मगर देश में शर्मनाक हालात का सामना करना पड़ा। इनकी लोकतांत्रिक जनता पार्टी लोजपा के कभी भी दस सांसद विजयी नही हुए हैं यानी जितने लोग उतने अरमान। पीएम पद तो एक ही है पर देश भर में इसके दावेदार अनेक हैं।। फिर भी प्रधानमंत्री ही इनका सपना है।।
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