*शकील अख्तर
राहुल गांधी का साहस वृथा है अगर वे अपने घर के विभीषणों की सफाई नहीं कर पा रहे हैं! अगर उन्हें पार्टी की कमान संभालना है तो फिर उन शल्यों को दूर करना पड़ेगा जो रात दिन उनका साहस तोड़ने और प्रधानमंत्री मोदी का शौर्यगान करने में लगे हैं। कर्ण महा पराक्रमी था मगर उसके सारथी शल्य ने हर उस मौके पर प्रतिद्वंद्वी अर्जुन की प्रशंसा के पुल बांध दिए जहां कर्ण निर्णायक प्रहार करने जा रहा था।
प्रधानमंत्री मोदी बंगाल से लेकर कश्मीर तक बहुत स्मार्टली खेल रहे हैं। कहते हैं जब समय अनुकूल होता है तो हर पांसा सही पड़ता है। बंगाल में उन्होंने आधा तृणमूल साफ कर दिया। और अब कश्मीर में वे इसे नए तरीके से कर रहे हैं। राज्यसभा में उन्होंने आंसू व्यर्थ नहीं बहाए। उसका प्रतिफल तुरंत मिला। गुलामनबी आजाद जिनकी राज्यसभा सदस्यता खत्म हुई और कांग्रेस से कोई उम्मीद नहीं दिखने के बाद प्रधानमंत्री से भी ज्यादा जोर से रोने लगे!
यह भावना के आंसू थे या राजनीतिक याचना के? इसे भाजपा के नेता, जम्मू कश्मीर के नेता, जनता सब समझ रहे हैं। लेकिन अगर कोई नहीं समझ रहा तो आंखों पर पट्टी बांधे कांग्रेसी।
गुलामनबी आजाद मीडिया में हर जगह कह रहे हैं मैं भाजपा में नहीं जा रहा। सही बात है। भाजपा में जाकर वे भाजपा की उतनी मदद नहीं कर पाएंगे, जितनी कांग्रेस में रहते हुए कर रहे हैं। मुद्दा भाजपा में जाने या न जाने का है ही नहीं, सवाल है कांग्रेस के अंदर भ्रम और असुरक्षा की स्थिति पैदा करना और कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमितशाह के स्टेंड को सही साबित करना। मोदी सरकार ने कश्मीर पर बहुत बड़ा दांव खेला है। इसकी सफलता के पैमाना है वहां होने वाले विधानसभा चुनाव। भाजपा वहां पहली बार सरकार बना सकती है। अगर कश्मीर में वोट चार पांच जगह, फारूख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, कांग्रेस, आजाद या बागी कांग्रेसियों, और भाजपा समर्थित छोटे कश्मीरी दलों में बंट जाए तो जम्मू के समर्थन से भाजपा वहां अपना पहला मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा कर सकती है। सब कुछ निर्भर इस पर होगा कि कश्मीर में कितना राजनीतिक भ्रम फैलाया जा सकता है।
यहां यह बताना जरूरी होगा कि जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का कोई अच्छा इतिहास नहीं रहा है। वहां सबसे ईमानदार चुनाव जनता पार्टी द्वारा 1977 में कराए विधानसभा चुनाव माने जाते हैं। आतंकवाद के लिए वहां 1987 के चुनावों की धांधलियों को एक बड़ा कारण माना जाता है। इसके बाद 2002 में वाजपेयी सरकार द्वारा करवाए विधानसभा चुनाव निष्पक्ष माने जाते हैं। जिनमें भाजपा का समर्थन कर रही नेशनल कांफ्रेस हारी थी। और मुफ्ती सईद मुख्यमंत्री बने थे। कश्मीर के हालात सुधारने में मुफ्ती के 2002 से 2005 तक के कार्यकाल का निर्णायक योगदान रहा है। पहले 2004 तक प्रधानमंत्री वाजपेयी और फिर कुछ समय के लिए मनमोहन सिंह का उन्हें पूरा समर्थन मिला। कांग्रेस से समझौते के तहत उन्होंने 2005 में कुर्सी छोड़ दी थी। मगर इस समय भी कांग्रेस का एक हिस्सा और कश्मीर को जानने वाले भाजपा के कुछ नेता भी व्यापक राष्ट्रीय हित में यह चाहते थे कि शांति बहाली की दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहे मुफ्ती को बना रहने दिया जाए। लेकिन मुफ्ती की बढ़ती लोकप्रियता से घबराए फारूख अब्दुल्ला ने कुछ कांग्रेसियों के साथ मिलकर मुफ्ती का कार्यकाल खत्म करवा दिया। गुलामनबी आजाद उसी के बाद मुख्यमंत्री बने। और फिर जैसा कि फारुख की नेशनल कांफ्रेस को उम्मीद थी वे 2008 के चुनाव में फिर सत्तानशीं हो गए। इस बार फारुख के बदले उमर अब्दुल्ला। लेकिन चाहे फारुख हों उमर जम्मू कश्मीर में अच्छा शासन देने के मामले में दोनों विफल। उधर राज्य की आखिरी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी बुरी तरह टूट गई है। उनका संगठन सबसे ज्यादा बिखरा हुआ है। नेताओं की गिरती हुई छवि के इस दौर में या यूं भी कह सकते हैं कश्मीर के चारों पूर्व मुख्यमंत्रियों फारुख, उमर, आजाद, महबूबा की विश्वसनीयता न होने का फायदा भाजपा उठा सकती है।
ये मात्र संयोग या सामान्य शिष्टाचार नहीं था कि प्रधानमंत्री मोदी के आउट आफ प्रपोशन (हिसाब से ज्यादा) जाकर आजाद की तारीफ करने के बाद मोदी सरकार में जम्मू कश्मीर के प्रतिनिधि और एक नई छवि के साथ उभर रहे मंत्री डा. जितेन्द्र सिंह ने आजाद के लिए वाज़वान (भोज) का आयोजन किया। जितेन्द्र सिंह और आजाद के बीच राजनीतिक प्रतिद्वद्विता रही है। जितेन्द्र सिंह ने 2014 के लोकसभा चुनाव में उधमपुर से आजाद को हराया था। फिर 2019 का लोकसभा चुनाव आजाद नहीं लड़े। डा. जितेन्द्र सिंह प्रधानमंत्री के विश्वसनीय लोगों में हैं। उनकी साफ छवि देखते हुए भाजपा उन्हें अपने पहले मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर सकती है।
दरअसल आतंकवाद के भीषण दौर में बहुत कम लोग कश्मीर जाने और आंतकवाद के मुकाबले का साहस दिखा पाए हैं। आतंकवाद के दौर में 1996 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ। उस समय कोई कश्मीर जाने को तैयार नहीं होता था। श्रीनगर दूरदर्शन ने चुनाव नतीजों का लाइव टेलिकास्ट और विश्लेषण करने का फैसला किया। पूरी दुनिया की निगाहें इन चुनावों पर लगी हुई थीं। पाकिस्तान लगातार प्रचार कर रहा था कि चुनाव में कश्मीरी शामिल नहीं हैं। चुनाव के साथ देश की विश्वसनीयता भी दांव पर लगी हुई थी। तब जम्मू से प्रतिष्ठित कालमिस्ट और नामी डाक्टर जितेन्द्र सिंह श्रीनगर गए। इन पंक्तियों का लेखक भी तीन दिन चलने वाले उन लाइव मतगणना और चर्चाओं में शामिल था। तो बताने का आशय यह है कि आतंकवाद के उस सबसे भीषण दौर में दूरदर्शन पर आना सबसे खतरनाक था। श्रीनगर दूरदर्शन के डायरेक्टर लसा कौल की आतंकवादी हत्या कर चुके थे। दूरदर्शन केन्द्र श्रीनगर से हटाकर जम्मू ले आया गया था। उस दौरान किसी भी रुप में सक्रियता को आतंकवादी अपने लिए चुनौति के रूप में लेते थे।
कांग्रेस की तरफ से उस समय सबसे ज्यादा काम गुलाम रसूल कार ने किया था। कोई प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष में रुप में काम करने को तैयार नहीं था। कार ने यह बीड़ा उठाया था। हालात के मद्देनदर यह सब बताना जरूरी है इसलिए बता रहे हैं कि जब कार अध्यक्ष बनकर पहली बार श्रीनगर आए तो कोई गेस्ट हाउस में उनसे मिलने जाने को तैयार नहीं था।
राजनीतिक दलों के नेताओं को वहांहिन्दुस्तान के नेता कहा जाने लगा था। मतलब आप कश्मीरी या कश्मीर के नहीं हैं। तो उस समय हमने उनसे मिलकर उनका इंटरव्यू किया। यहां यह बताना भी अप्रसांगिक नहीं होगा कि 1990 में आतंकवाद शुरू होने के बाद कश्मीर के सभी नेता वहां से पलायन कर गए थे। इसे पोलिटिकल वैक्यूम (राजनीतिक शून्य) कहा जाता था। इसका फायदा उठाकर आतंकवाद ने अपनी जड़ें जमाई थी। फारुख अब्दुल्ला 1996 के चुनावों के पहले तब आए जब उन्हें उपर से मुख्यमंत्री बनाने का पूरा भरोसा दिला दिया गया था। और बाकी नेताओं का नाम लेने से कोई फायदा नहीं जो उस दौरान कभी कश्मीर नहीं आए। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज कांग्रेस भी गुलाम रसूल कार को भूल गई। जिनका आतंकवाद से लड़ने का राजनीतिक माहौल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। खैर 370 हटाने के बाद से कश्मीर की राजनीतिक स्थितियों में बहुत बदलाव आ गया है। और मोदी सरकार के लिए अभी वहां सबसे मुश्किल काम चुनाव करवाना है। फारूख, उमर, महबूबा की क्या भूमिका रहेगी यह स्पष्ट नहीं है। ऐसे में मोदी अपने आंसूओं से वहां नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं!
- शकील अख्तर, दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार है,करीब 35 वर्षो से पत्रकारिता में सक्रिय हैं .