मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम और माता सीता से जुड़े पवित्र स्थानों की वर्तमान स्थिति

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स्निग्धा श्रीवास्तव
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 12जून। हम सबने तो रामायण पढ़ा है…रामायण के बारें अपने पुर्वजों से सूना है, और टीवी धारावाहिकों के माध्यम से देखा भी है।

ज्यादात्तर लोंग रामायण के बारे में बहुत अच्छी तरह से जानते होगें। इतना ही नहीं भारत के अलावा रामायण की गाथा विदेंशों में भी खुब होती है। हो भी क्यों ना….रामायण के मुख्य पात्र श्री राम ने कर्तव्यनिष्ठा से लेकर अपने जीवन के हर एक पड़ाव में तमाम संघर्षों के बाद भी अपनी चरित्र को चरितार्थ किया इसलिए तो वे मर्यादा पुर्षोत्तम श्री राम कहे जाते है।

रामायण मात्र श्री राम के चरित्र की या मात्र उनके बलिदान की कहानी नही है…रामायण का एक-एक पात्र अपने आप महान है। हर एक के जीवन में तमाम कठिनाइयां आई, लेकिन वे कभी भी अपने कर्तव्यों के पालन से पीछे नहीं हटे।

माता कौशल्या हो या माता सीता..श्री  लक्ष्मण की अर्धांगिनी उर्मिला…रामायण में महिलाओं ने जिस तरह के प्रेम, त्याग समर्पण के साथ अपने कर्तव्यों का पालन किया, वह बहुत ही अलौकिक है।

रामायण में श्रीराम के जन्म से लेकर उनकी शिक्षा-दिक्षा, विवाह, सीताहरण से लेकर अयोध्या वापस आने तक के हर एक स्थान का विशेष महत्व है। वनवास के दौरान उनके जीवन में बहुत सी घटनाएं घटित हुई। आज हम आपको श्री राम जुड़े हर ऐसे स्थान के बारें में बताने जा रहे है जिसका इतिहास में खास महत्व है साथ ही यह स्थान देश- विदेश में भारत की ख्याति को और उज्जवल भी करते है। रामायण से संबधित सारें स्थानों पर भारी मात्रा में पर्यटक आते है और रामायण के बारें एक- एक जानकारी ध्यानपुर्वक सूनते है।

रामसेतु तमिलनाडु-

रामसेतु तमिलनाडु, वैसे तो यह सेतु भारत के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जब रावण माता सीता का हरण कर ले गया था श्रीराम ने मां सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए इस पुल का निर्माण कराया था और इसका निर्माण किया प्रभु श्रीराम की वानर सेना में  नल और नील को यह वरदान प्राप्त था कि अगर वे किसी पत्थर पर श्रीराम का नाम लिख कर समुंद्र में डालते है तो पत्थर डुबती नहीं है। इस तरह श्री राम नें वानर सेना और नल और नील की मदद से इस सेतु का निर्माण किया था। किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू मार्ग से आपस में जोड़ता था।

यह पुल 48 किलोमीटर लम्बा है, मन्नार की खाड़ी (दक्षिण पश्चिम) को पाक जलडमरूमध्य से अलग करता है। यह पुल भारत के तमिलनाडु के पंबन द्वीप को श्रीलंका के मन्नार द्वीप से जोड़ता है।  इस सेतु का उल्लेख सबसे पहले वाल्मीकि द्वारा रचित प्राचीन भारतीय संस्कृत महाकाव्य रामायण में किया गया था।

सीता मंदिर अशोक वाटिका लंका

मां सीता के हरण के बाद रावण ने उन्हें बहुत ही सुंदर अशोक वाटिका में रखा था। रावण ने यहां माता सीता को बंधक बना कर रखा था।

यह वाटिका आज भी श्रीलंका के एक पर्वत पर स्थित है। रामायण के अनुसार, वहाँ एक वट वृक्ष था जो की अब नहीं है। सीता अशोक के जिस वृक्ष के नीचे बैठती थी वो जगह सीता एल्‍या के नाम से प्रसिद्ध है।

कहा जाता है कि रावण जब मां सीता को हरण कर ले आया था तो उसने माता सीता को पटरानी बनाना चाहा था लेकिन माता सीता ने इन्कार कर दिया जिसके बाद रावण ने उन्हें अशोक वाडिका में एक गुफा के अन्दर रखा था जहां मां निवास करती थी। वह जगह एल्या के नाम से जाना जाता है।

बीते कुछ सालों में सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर पूरे क्षेत्र का आधुनिकीकरण कर दिया है। मंदिर से लेकर पूरे परिसर को संगमरमर से सुसज्जित कर दिया गया है। सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम हैं और वहां रोजाना हजारों विदेशी पर्यटक सीता माता के दर्शन करने पहुंचते हैं। वाटिका में प्रवेश निशुल्क है।  भारत सहित पूरे विश्व से पर्यटक श्रीलंका  के इस वाचिका में पंहुचते है।

अशोक वाटिका हनुमान मिलन लंका

जब श्री हनमुमान माता की सीता की खोज में निकले तो तमाम कठिनाइयों के बाद उनकी मुताकाल रावण के छोटे भाई विभीषण से हुई। विभीषण क्षी राम के भक्त थे। उनके द्वारा श्री हनुमान को पता चला की रावण ने माता सीता को हरण कर अशोक वाटिका में रखा है। फिर श्री हनुमान माता सीता के पास श्रीराम का संदेश लेकर पहुंचे जहां पहले से ही रावण माता को धमकी दे रहा था और पटरानी बनने के लिए विवश कर रहा था।

रावण के जाने के बाद  एकान्त होने पर हनुमान जी ने पहले तो श्री राम के गुणगान किए फिर सीता माता से भेंट की ..माता सीता को उन पर विश्वास न था वो उन्हें रावण का ही दूत समझ रही थी तब श्री हनुमान ने उन्हें राम की मुद्रिका दी।  जिसके बाद माता को उन पर विश्वास हो गया।

सीता वाटिका में हनुमान का पद्चिन्ह आज भी मौजूद हैं।

श्रीलंका में देश- विदेश से भारी मात्रा में श्रद्वालुओं जिज्ञासावश यहां पंहुचते है। यहां पर्यटकों के लिए खास व्यवस्थाएं भी की गई है। यहां आकर लोंग रामायण से जुड़ी हर के बात को बड़ी तल्लीनता से समझते है। बता दें कि श्रीलंका रामायण रिसर्च सेंटर ने अपने दशकों की खोज के बाद रामयुग के अनसुलझे किस्सों का पता लगाया है।

राम – रावण युद्ध स्थल लंका

ऐसी मान्यता है कि श्रीराम और रावण के युद्ध में रावण के पूरी सेना मारी गई यहां तक कि रावण के सारे पुत्र और स्वयं रावण भी राम के हाथों मारा गया और श्रीराम को विजयी हुए। श्रीलंका में श्री राम और रावण के साथ युद्ध-स्थान को युद्घगनावा नाम से जाना जाता है।

सीता जन्म स्थली जनकपुर

वाल्मिकी रामायण के अनुसार माता सीता का जन्म जनकपुर में हुआ था। जनकपुर, नेपाल के धानुषा जिले के दक्षिणी तराई शहर से लगभग 200 किमी दूर दक्षिण-पूर्व है। जनकपुर में मां सीता का भव्य मंदिर है, जो भारतीय सीमा से महज 22 किमी दूरी पर है।

जनकपुर की अपनी भाषा और लिपि के साथ प्राचीन मैथिली संस्कृति का केंद्र है। जनकपुर के निवासी सीता जी को जानकी देवी कहते हैं। जनकपुर के केंद्र उत्तर और पश्चिम में जानकी मंदिर है। यह मंदिर 1911 में बनाया गया था। जनकपुर में कई तालाब हैं जिनमें 2 सबसे महत्वपूर्ण हैं धनुष सागर और गंगा सागर।   भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देश के पर्यटक भी यहां माता सीता के मंदिर में दर्शन के लिए काफी संख्या में आते हैं।

दंडकारण्य छत्तीशगढ

छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

श्रृंगवेरपुर- प्रयागराज

एक सुंदर स्थान पर स्थित श्रृंगवेरपुर का अनोखा गांव, प्रयागराज शहर से लगभग 40 किमी दूर स्थित है। इसका उल्लेख हिंदू महाकाव्य रामायण में निषादराज के शाही राज्य की राजधानी या ‘मछुआरों के राजा’ के रूप में मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, इस गांव का नाम श्रृंगी ऋषि के नाम पर पड़ा था। कहा जाता है कि यह वही स्थान है, जहां से भगवान राम, देवी सीता और भगवान लक्ष्मण ने रात्रि विश्राम के बाद, वनवास जाने के लिए गंगा नदी को पार किया था। स्थानीय मान्यता के अनुसार नाव वालों ने भगवान राम, लक्ष्मण और सीता को नदी पार कराने से मना कर दिया था। स्थिति को हल करने के लिए निषादराज खुद मौके पर पहुंचे और नदी पार कराने की एवज में भगवान राम के सामने एक शर्त रखी। निषादराज ने कहा कि यदि वह उनसे अपने अपने पैर धुलवा लेते हैं तो वह उन्हें नदी पार करवा देगा। भगवान राम ने यह शर्त स्वीकार कर ली। निषादराज ने उनके पैर धोए और उन्हें अपनी नाव में बैठाकर नदी पार करवा दिया। जिस स्थान पर राजा ने ऐसा करने के लिए कहा था, उसका नाम रामचूरा रखा गया और वहां एक चबूतरे का निर्माण किया गया। यह एक बेहद ही शांत स्थान है। चारों ओर हरियाली और एक विशाल नदी वाला ‘श्रृंगवेरपुर’ धीरे-धीरे पर्यटकों के बीच लोकप्रिय हो रहा है।

कुछ समय पहले ही अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के साथ ही अवधपुरी का विकास मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्राथमिकता पर करा रहे हैं। इसी तरह प्रयागराज स्थित श्रृंगवेरपुर को लेकर भी सरकार गंभीर है। यहां पर्यटन विभाग द्वारा लगभग पंद्रह करोड़ रुपये से निषाद राज पार्क विकसित किया जा रहा है। इसके लिए विभाग को अतिरिक्त भूमि की जरूरत थी। शुक्रवार को कैबिनेट ने 14 एकड़ सरकारी भूमि पर्यटन विभाग को निश्शुल्क हस्तांतरण का प्रस्ताव स्वीकृत कर दिया।

रामेश्वरम मंदिर तमिलनाडु


रामेश्वरम मंदिर तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह मंदिर हिंदूओं का एक पवित्र मंदिर है और इसे चार धामों में से एक माना जाता है। रामेश्वरम मंदिर को रामनाथ स्वामी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। जिस तरह से उत्तर भारत में काशी का महत्व है, ठीक उसी तरह दक्षिण भारत में रामेश्वरम का भी महत्व है। रामेश्वरम हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा है एवं शंख के आकार का द्वीप है। सदियों पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था लेकिन धीरे धीरे सागर की तेज लहरों से कटकर यह अलग हो गया, जिससे यह टापू चारों तरफ से पानी से घिर गया। बाद में एक जर्मन इंजीनियर ने रामेश्वरम को जोड़ने के लिए एक पुल का निर्माण किया था।
माना जाता है कि भगवान श्रीराम ने श्रीलंका से लौटते समय देवों के देव की इसी स्थान पर पूजा की थी। इन्हीं के नाम पर रामेश्वर मंदिर और रामेश्वर द्वीप का नाम पड़ा। ऐसी मान्यता है कि रावण का वध करने के बाद भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीता के साथ रामेश्वरम के तट पर कदम रखकर ही भारत लौटे थी। एक ब्राह्मण को मारने के दोष को खत्म करने के लिए भगवान राम शिव की पूजा करना चाहते थे। चूंकि द्वीप में कोई मंदिर नहीं था, इसलिए भगवान शिव की मूर्ति लाने के लिए श्री हनुमान को कैलाश पर्वत भेजा गया था। जब हनुमान समय पर शिवलिंग लेकर नहीं पहुंचे तब देवी सीता ने समुद्र की रेत को मुट्ठी में बांधकर शिवलिंग बनाया और भगवान राम ने उसी शिवलिंग की पूजा की। बाद में हनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी वहीं स्थापित कर दिया गया।

राम सुग्रीव मिलन कर्नाटक

भगवान राम के युग यानी त्रेतायुग में किष्किंधा दण्डक वन का एक भाग होता था, जो विंध्याचल से आरंभ होता था और दक्षिण भारत के समुद्री क्षेत्रों तक पहुंचता था। भगवान श्रीराम को जब वनवास मिला तो लक्ष्मण और सीता के साथ उन्होंने इसी दण्डक वन में प्रवेश किया। यहां से रावण ने सीता का अपहरण कर लिया था। श्रीराम सीता को खोजते हुए किष्किंधा में आए। चूंकि राम यहां कई स्थानों पर रहे, लिहाजा यहां उनके कई मंदिर और स्मृति चिन्ह हैं। लगता है कि प्राचीन समय में किष्किंधा काफी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, बाल्मीकि रामायण में इसका विस्तार से उल्लेख है। अंश इस प्रकार है- लक्ष्मण ने उस विशाल गुहा को देखा जो कि रत्नों से भरी थी और अलौकिक दीख पड़ती थी। उसके वनों में खूब फूल खिले हुए थे। ह‌र्म्य प्रासादों से सघन, विविध रत्नों से शोभित और सदाबहार वृक्षों से वह नगरी संपन्न थी। दिव्यमाला और वस्त्र धारण करने वाले सुंदर देवताओं, गंधर्व पुत्रों और इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानरों से वह नगरी बड़ी भली दीख पड़ती थी। चंदन, अगरु और कमल की गंध से वह गुहा सुवासित थी। मैरेय और मधु से वहां की चौड़ी सड़कें सुगंधित थीं। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि किष्किंधा पर्वत की एक विशाल गुहा के भीतर बसी हुई थी। इस नगरी में सुरक्षार्थ यंत्र आदि भी लगे थे।

कैसे पहुंचें

यहां पहुंचने के लिए कर्नाटक के होसपेट रेलवे स्टेशन पर उतरना होगा। जो यहां से करीब है। किष्किंधा में रुकने के लिए अच्छे होटल हैं। बेल्लारी और बेंगलुरु से यहां सड़क मार्ग के जरिए भी पहुंचा जा सकता है। किष्किंधा घूमने के लिए एक दिन पर्याप्त होता है, लेकिन यह जगह ऐसा सर्किट है, जहां आने के बाद आपको समीपवर्ती नगरों हम्पी और बदामी भी जरूर जाना चाहिए, जो हमारे गौरवशाली इतिहास की भव्य झलक देते हैं।

 

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