समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 7 अगस्त। मराठी साहित्य में दलित साहित्य के योगदान का संज्ञान विश्व स्तर पर लिया गया है. दलित लेखकों के आत्मकथन की सराहना देश से ज्यादा विदेशी लेखकों ने की है, यह प्रतिपादन लेखक तथा संपादक अरुण खोरे ने किया.
‘मराठी दलित साहित्य का भारतीय साहित्य में योगदान’ इस विषय पर महाराष्ट्र सूचना केंद्र की ओर से आयोजित महाराष्ट्र हीरक महोत्सव व्याख्यान श्रृंखला के 50 में व्याख्यान में वह बोल रहे थे. उन्होंने आगे कहा कि अमेरिका के विद्वान एलेनोर जेलिएट तथा डा गेल ओमवेट ने दलित साहित्य के एक अंश का अध्ययन कर इसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया. इसके कारण दलित साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंच उपलब्ध हुआ. उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाले नांदेड के प्राध्यापक सूरज येंग्ड़े ने वहां पर दलित साहित्य के संदर्भ में काफी चर्चा की है.
श्री खोरे ने बताया कि अपने देश में असमानता की परंपरा को नियंत्रित करने के लिए 19वीं शताब्दी में महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, फातिमा बी ने जबकि 20 वी शताब्दी में नारायण मेघाजी लोखंडे, विट्ठल रामजी शिंदे, राजर्षि शाहू महाराज, डा बाबासाहेब आंबेडकर ने विषमता के जहर को नष्ट करने के लिए अपने ज्ञान और जीवन को दांव पर लगाया और यहीं से दलित साहित्य को वास्तविक तौर पर प्रेरणा मिली.
उन्होंने आगे कहा कि भारत स्वतंत्र होने के पश्चात मराठी साहित्य ने अपनी दिशा में परिवर्तन लाया और इसमें दलित साहित्य सम्मिलित किया गया. उन्होंने बताया कि 1950 से 60 के दशक में लोकशाहिर अन्नाभाऊ साठे, कथाकार एवं उपन्यासकार शंकरराव खरात, कवि तथा कथाकार बाबुराव बागुल जैसे महान लेखकों के लेखन से लोगों को जानकारी मिलती रही और लेखन समृद्ध होता गया. उन्होंने कहा कि सभी दलित साहित्य लेखकों ने डा बाबासाहेब आंबेडकर को अपना प्रेरणा स्त्रोत माना है.
श्री खोरे ने आगे बताया कि 1957 में दलित साहित्य सम्मेलन में दलित साहित्य को लेकर चर्चा हुई और इस सम्मेलन के पश्चात मराठी साहित्य में दलित साहित्य को स्थान मिला. उन्होंने कहा कि गंगाधर पान्तावाने ने उनकी पत्रिका अस्मिता दर्श के माध्यम से नए लेखकों को स्थान दिया और उनकी पत्रिका में नियमित रूप से लेखन करने वाले प्राध्यापक ई सोंकाम्बले ने आठ्वानिचे पक्षी नाम से पहली दलित आत्मकथा लिखी. इसके पश्चात कविता के माध्यम से भी कहीं संवेदनशील लेखन सामने आता रहा. इसमें प्रह्लाद चेंदवलकर, जे वि पवार, अर्जुन डांगले, नामदेव धसाल सम्मिलित थे. इन सभी के लेखन से बगावत के साहित्य का जन्म हुआ और यह बात सामने आई कि आलोचक दलित साहित्य को समीक्षा से बाहर नहीं रख सकते.
श्री खोरे ने आगे बताया कि दया पवार की आत्मकथा बलूत ने दलित साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाई. जिसके कारण दलितों की जीवन व्याप की पद्धत लोगों तक पहुंची. माधव कोंडविलकर लिखित मुकाम पोस्ट देवाचे गोठवने भी काफी चर्चित रही. इसके पश्चात लक्ष्मण माने ने उपरा जबकि लक्ष्मण गायकवाड़ ने उचल्या नाम से आत्मकथाएं लिखी जिसके कारण खानाबदोश लोगों के जीवन का प्रतिबिंब विश्व के समक्ष आया. इसी काल में उत्तम बंडू तुपे ने काटावरची पोर, रुस्तम अचलखम्ब ने गांवोंकी, जबकि महिला लेखिका शांताबाई काम्बले द्वारा लिखित माझा जीवनाची कहानी, कुमुद पावडे के अंत स्फोट भी आए. मंगला केवले द्वारा लिखित जगायचे प्रत्येक सेकंड, मल्लिका अमर शेख द्वारा लिखित मला उध्वस्त व्हायचे आहे इन महिला लेखकों ने भी दलित महिलाओं का दुख और दर्द दुनिया के सामने रखा. इन सभी लेखन के कारण दलित साहित्य पर चर्चा शुरू हुई. गांव में वास करने वाले लोगों के विषम स्थान के साथ ही गांव से बाहर रहने वाले लोगों के जीवन पर भी साहित्य निर्मित हुआ. इससे आगे जिन लोगों को इस श्रेणी में स्थान नहीं था उनके लिए श्रवण कुमार लिंबाले ने अकरमाशी नामक अपने साहित्य में उल्लेख किया. कोलाटी समाज का दुख बताने वाले किशोर शांताबाई काले ने कोल्हाट्यान्ची पोर नाम से एक अलग आत्मकथा लिखी.
श्री खोरे ने आगे बताया कि जब उन्होंने लक्ष्मण माने और लक्ष्मण गायकवाड का साक्षात्कार लिया तब इन दोनों को यह भी पता नहीं था कि उनका जन्म किस गांव में हुआ है. इसी तरह की स्थिति बंडू तुपे के साथ भी थी. इससे यह सिद्ध होता है कि उनकी दुख और दर्द की दास्तान जन्म से ही शुरू हुई और इसे भी आत्मकथा में मराठी भाषा में लिखा गया, जिससे मराठी साहित्य को बल मिला. दलित साहित्य के कारण मराठी साहित्य को पहचान मिलने की बात कहते हुए उन्होंने आगे बताया कि दलित लेखकों ने कम आयु में ही आत्मचरित्र लिखे हैं. पहले वरिष्ठ नागरिक ही इस तरह के लेखन किया करते थे. उन्होंने बताया कि दलित अधिकारियों ने भी अपने दुख और संवेदना आत्मकथन के माध्यम से विश्व के समक्ष रखा. रत्नाजी आगव ने माझी वाकर नाम की आत्मकथा लिखी जो बहुत प्रसिद्ध हुई. आगे चलकर दलित लेखकों ने गुजराती, हिंदी, तेलुगू, तमिल और मलयालम में भी साहित्य निर्माण किया.
उन्होंने आगे कहा कि दलित साहित्य में बड़े प्रमाण में बोली भाषा में लिखा जाता था जिसे समझने में सामान्य लोगों को कठिनाइयां आती थी. अनेक पाठकों ने इन शब्दों को परिशिष्ट में अर्थ के साथ सम्मिलित करने का सुझाव दिया. आगे चलकर भीमराव जाधव गुरुजी ने कुंपनाच्या पलीकडची कथा इस आत्मकथा में सेटलमेंट कॉलोनी में जीवन व्यापन को लेकर सीधी साधी भाषा में अपनी बात रखी.
आत्मकथा लिखने की प्रेरणा दलित लेखकों को मुख्यता बाबा साहब अंबेडकर के चरित्र से प्राप्त होने की बात श्री खोरे ने बताई. उन्होंने कहा कि बाबासाहब के बाद की पीढ़ी ने विषम परिस्थिति में भी शिक्षा ग्रहण की और अपने अनुभव लेखन के माध्यम से व्यक्त किए. उन्होंने कहा कि अनुसूचित जाति, जनजाति और विमुक्त जाति के लोगों के जीवन के बारे में समाज को पता चला. साथ ही आत्मकथा के कारण समाज में संवेदनशीलता में वृद्धि हुई और एक अच्छे मानव के रूप में जीवन व्याप्त करने की शुरुआत हुई. जिसका मराठी साहित्य पर सकारात्मक परिणाम हुआ और भारतीय साहित्य को भी ताकत मिली.
यशवंतराव चौहान दलित साहित्य के जानकार
श्री खोरे ने आगे बताया कि यशवंतराव चौहान दलित साहित्य के अच्छे जानकार थे. वह एक अच्छे आलोचक और संज्ञान पाठक थे. उन्होंने नामदेव धसाल, दया पवार, लक्ष्मण माने, ना धो महानोर के साहित्य को काफी सराहा. इन सभी लेखकों को एक साथ बुलाकर श्री चौहान उनसे बातचीत करते और उनके साहित्य को ध्यान से सुन कर सराहते थे. लक्ष्मण माने के बंद दार नामक पुस्तक के प्रकाशन पर भी यशवंतराव चौहान उपस्थित थे और उन्होंने अपने विमान यात्रा को लेकर एक किस्सा भी सुनाया था, यह बात भी अंत में श्री खोरे ने कही.