शिवानन्द।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जाति आधारित जनगणना का विरोधी है. इसलिए संघ के प्रभाव वाली नरेंद्र मोदी की सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने से इनकार कर दिया है. अभी-अभी प्रधानमंत्री जी ने विरोधी दलों पर तंज कसा है. उन्होंने दावा किया कि अपनी सरकार में उन्होंने पिछड़ी जाति और महिलाओं को व्यापक भागीदारी दी है. यह विरोधी दलों को पच नहीं रहा है. इसलिए उनका परिचय कराने के समय सदन में वे हल्ला मचा रहे हैं. जब जरूरत होती है तब प्रधानमंत्री जी अपने को पिछड़ी जाति का बता कर उसका राजनीतिक लाभ ले लेते हैं. लेकिन जहां पिछड़ों को उनका हक देने का सवाल उठता है वहां वे संघ के दबाव में आ जाते हैं.
जाति आधारित जनगणना देश भर के सामाजिक न्याय आंदोलन के तमाम नेताओं की मांग रही है. यह स्मरण करना जरूरी है कि पिछड़े वर्गों की सामाजिक, शैक्षणिक और सरकारी कामकाज में उनकी भागीदारी का पता लगाने के मकसद से आयोग गठन करने का प्रावधान संविधान में ही है. इसी प्रावधान के अंतर्गत 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहले आयोग का गठन हुआ था. उस आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों में एक थी, अगली जनगणना, यानी 1961 की जनगणना जाति आधारित होनी चाहिए. ताकि पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति का पता लगाया जा सके. लेकिन उस आयोग की रिपोर्ट को मंजूर नहीं किया गया.
दुर्भाग्य से आज तक जाति आधारित जनगणना नहीं हो पाई है. इसकी वजह से देश को बहुत नुकसान हो रहा है. विभिन्न सरकारों द्वारा अब तक विकास के जो कार्यक्रम चलाये गये हैं उनका क्या परिणाम निकला है इसकी सही सही जानकारी सरकार के पास नहीं है. यह ध्यान रखने की बात है कि हमारे देश में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों की विशाल आबादी है. जब तक यह विशाल तबका ऊपर नहीं उठेगा, देश के ऊपर उठने की कल्पना बेमानी है. इसके लिए पहली जरूरत जाति आधारित जनगणना है. ताकि समाज के अलग-अलग समूहों की वास्तविक स्थिति का सही-सही अंदाज मिल सके. तदनुसार विकास की व्यावहारिक योजनाएं बनाई जा सकें. यह अफसोसजनक है कि पिछड़ी बिरादरी से आने वाले प्रधानमंत्री ने भी जाति आधारित जनगणना कराने से इंकार कर दिया है.
शिवानन्द तिवारी (पूर्व सांसद व वरिष्ठ समाजवादी नेता पटना, बिहार)