
गिरीश पाण्डे
मैं मोहन पैदा हुआ था, मोहन ही मरा हूँ। महात्मा तुम्हारे बापों और दादों ने जबरन बना दिया। मुझे ना महात्मा बनना था, न राष्ट्रपिता, न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री ..। हां, तुम्हारे बड़े – बूढों ने जो प्यार दिया था ,जब वो “बापू” कहते तो बड़ा भला लगता। लगता.. सब मेरे बच्चे हैं, मेरी जिम्मेदारी हैं। जब सारा देश ही बापू कहने लगा, तो किसी ने उत्साह में राष्ट्रपिता कह डाला ,अरे सुभाष ने ही तो ! मगर मैं तो मोहन था, मोहन ही रहा।
सुनो !! तुम्हारे बड़े – बूढ़े मुझे नेता कहते थे। मगर मैने कोई चुनाव नही लड़ा, चुनावी तकरीर (भाषण) नही की। कोई वादा नही किया, कोई सब्सिडी नही बांटी। मैं तो घूमता था, दोनो हाथ पसारे.. मांगता था बस प्रेम, शांति और एकता।
बहुतों ने दिया, तो कुछ ने इन बढ़े हुए हाथों को झटक भी दिया। उन्हें इस फकीर से डर लगता था। प्रेम से डर लगता था !! शांति से डर लगता था.. !!! एकता से डर लगता था !!! उन्होंने लोगो को समझाया- नफरत करो.. तुम एक नही हो, ना कभी हो सकते हो। शांति झूठी है। लड़ो, आगे बढ़ो। मार डालो। जीत जाओ।
सुनो!! वो जीत गए। मुझे मार डाला। और टुकड़े कर दिए . हिन्दुओ के, मुसलमानों के, इंसानियत के , देश के.. दिलो के। और वो जीतते गए है। साल दर साल, इंच – इंच, कतरा – कतरा.. धर्म का नाम लेकर, जाति की बात करके, गौरव का नशा पिलाकर वो तुम्हें मदहोश करते गए। वो जीत गए।
सुनो !! उन्हें केवल लगा कि वो जीत गए.. मगर मैं नही हारा। मैं ख़त्म नहीं हुआ!! मैं यहीं हूँ.. इस मिट्टी में घुला हुआ। वो रोज तुम्हे एक नया नशा देते है, और नशा फटते ही मैं याद आ जाता हूँ। मैं तुम्हारी जागती आंखों का स्वप्न भी हूँ और दुःस्वप्न भी। तुम हुंकार कर मुझे नकारते हो, उस नकार में ही स्वीकारते भी हो। और फिर मेरी समाधि पर सर झुकाए खड़े हो जाते हो।
सुनो !! कान खोलकर। न तो तुम्हारी इज्जत से महात्मा बना था, न तुम्हारी इज्जत से कोई महात्मा बन सकता है। असल तो ये है, जिसे तुम्हारी इज्जत हासिल हो, दूसरों की आँखों से देखने और दूसरों के दिमाग़ से सोचने वालों की इज्जत हासिल हो .. वो महात्मा हो ही नही सकता।
तो कान खोल कर सुन लो ! तुमको, तुम्हारे पुरखों को ,या फिर तुमको बहलाने – फुसलाने वालों को पीले चावल भेजकर राजघाट मैं नही बुलाता। श्रद्धा से भरी अंजुली न हो, तो श्रद्धांजलि लेकर आना भी मत। मोहन तुम्हारी इज्जत का मोहताज नही है !!