शक्ति-पूजा का इतिहास, शक्ति-पूजन-पद्धतियाँ एवम् उनका लोक-प्रसार

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योगी अनुराग ।
शक्ति का सम्पूर्ण मंगलगान तो सर्वथा असम्भव है। वे देह में विराजें, तो शक्ति तथा ममता में समाहित हों तो मातृशक्ति कहलाती हैं। मानव जाति के चैतन्य को बल प्रदान करें, तो चेतना तथा उनकेके मुरझाते चेहरों पर प्रसन्नता का लावण्य बन कर खिल उठें, तो कान्ति कही जाएँगी। तमाम पदार्थों का आदि-चिह्न बनकर उभरें, तो जाति तथा उनकी रक्षा का कारण बनें तो दया! हर ओर नीरवता की भाँति व्याप्त हो जाएँ, तो शान्ति कहलाती हैं तथा तमाम नीरावताओं को भंग करने वाले भी उनका अर्चन करें, तो क्षान्ति। जो देवी मस्तिष्क में बुद्धि, आत्मा में विद्या, भावों में श्रद्धा और हृदय में भक्ति बनकर विराजती हैं, वस्तुतः वही भण्डारणों में लक्ष्मी, इच्छाओं में तृष्णा, आँतों में क्षुधा और असन्तोष में सन्तुष्टि बनकर व्याप्त होती हैं तथा इन तमाम अवयवों की श्रान्ति अवस्था में, बन्द नेत्रों में जो व्याप्त हैं, वे अनन्य देवी निद्रा हैं।

जिस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ईश्वर के तीन रूप हैं, वैसे ही सरस्वती, लक्ष्मी एवं पार्वती शक्ति के तीन स्वरूप हैं। आर्यावर्त में शक्तिपूजा की लोक-संवेदना इतनी गहरी है कि त्रिदेव के परिचय में महाब्रह्मा, महाविष्णु एवं महामहेश कहना भले एकबार को भाषाई रूप से असहज कर दे, किन्तु महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली कहने पर तो मानो, महानता स्वयं सहज रूप धर लेती हो!
शक्ति-उपासना की उत्पत्ति में एक रोचक कथा है, न केवल उपासना की, अपितु इसके प्रथम उपासक की भी। इसका प्रथम उपासक भी वही है, जो इस सृष्टि का प्रथम पुरुष है, आदि-हिरण्यगर्भ ब्रह्मा। शक्ति की आराधना इस सृष्टि का प्रथम कार्य है, किसी भी कार्य से पुरातन। हुआ कुछ यों था कि जब सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मदेव ने स्वयं को एक कमल पुष्प पर पाया, तो उन्होंने उस कमल के दण्ड से उतरना आरम्भ किया। भागवत एवं देवी-भागवत पुराणों में मिलने वाले इस प्रसंग की कथाएँ कहती हैं कि ब्रह्मदेव कमलदण्ड से उतरे अवश्य, किन्तु पुष्प के मूल को न पा सके, तो वे पुनः चढ़े, परन्तु अब कमल पुष्प भी न मिला, शेष रह गया तो केवल कमल दण्ड। सो, नितान्त श्रम के पश्चात् अब वे वहाँ आए, जहाँ श्रीहरि विष्णु विश्राम कर रहे थे।

ब्रह्मदेव श्रीहरि के निकट विराज कर, उनके जागृत होने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि तभी उन्होंने देखा, हरि के कानों से मैल निकल कर जमा हो गया है। इस दृश्य ने उनके भीतर हरि के प्रति हेयभाव उत्पन्न कर दिया और हरि की माया कुछ ऐसी हुई कि वो मैल मधु एवं कैटभ नामक दो दैत्यों में परिवर्तित हो गया और वे दोनों ब्रह्मदेव को हानि पहुँचाने की चेष्टा करने लगे। ऐसी विपत्ति जानकर ब्रह्मदेव ने हरि की स्तुति की, किन्तु श्रीहरि गहन निद्रा में थे, उन्हें न जागना था सो न जागे, तब ब्रह्मदेव ने हरि के नेत्रों में व्याप्त होकर उन्हें बन्द रखने वाली निद्रारूपेण शक्ति की स्तुति की। स्तुति से प्रसन्न हुईं निद्रादेवी ने हरि को जागृत किया और फिर मधु-कैटभ का नाश हुआ!1
शाक्त-चिन्तन

सृष्टि में शक्ति-पूजा के इस सर्वप्रथम प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन मार्कण्डेयपुराण के देवी-महात्म्य खण्ड अर्थात् दुर्गा-सप्तशती में मिलता है। हालाँकि मार्कण्डेयपुराण की रचना से बहुत पहले, इस घटना के साथ ही शाक्त-चिन्तन का आरम्भ हो चुका था। सबसे अधिक प्राचीन प्रमाणों में ऋग्वेद का एक मन्त्र कहता है : “अहं जनाय समदं कृणोम्यहं!”2 – अर्थात् मैं लोक जनमानस की ओर से युद्धरत रहती हूँ। मैं ही हूँ, जो आकाश व पृथ्वी दोनों पर व्याप्त हूँ। यह वैदिक ऋचांश पौष की शीतलता से भरी मृतदेहों तक में चैतन्य फूँक देने वाला है। लोक के प्रति देवी की वैसी प्रतिज्ञा से आरम्भ हुए शाक्त-चिन्तन का पौराणिक प्रसार, महाभारत युद्ध के ठीक पूर्व में कृष्ण द्वारा अर्जुन को शक्ति-पूजन हेतु दिए गए परामर्श तक फैला हुआ है।3
शाक्त-चिन्तन के इस प्रसारित क्षेत्र में कई-कई ज्ञात पड़ाव हैं और कई-कई विभाजन भी। देवी की पौराणिक स्थापना देखें, तो देवी-भागवतपुराण अपने सम्पूर्ण रूप में उनका गायन कर रहा है, परन्तु यह पुराण सनातन की अष्टादश पुराणों की परिधि से इतर उपपुराणों में अभिहित है। मूल पुराणों की बात करें तो देवी-चरित्र का विशद उल्लेख मार्कण्डेयपुराण में मिलता है। दुर्गा-सप्तशती भी वहीं से संकलित है।4 इसी कारण मार्कण्डेयपुराण को शाक्त सम्प्रदाय का प्रमुख पुराण माना जाता है। कैसा रहस्यमयी प्रसंग है कि उपपुराणों में से ही एक हरिवंशपुराण के मात्र दो अध्यायों ने भी सनातन धर्म के शाक्त-सम्प्रदाय की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।5 शाक्त-चिन्तन की पौराणिकता में महाभारत को उपेक्षित करना असम्भव है। अज्ञातवास के कंक बने युधिष्ठिर ने देवी-स्तुति की है।6 ठीक इसी स्तुति का प्रतिरूप, श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्धपूर्व दिया गया शक्ति-पूजा का परामर्श है, यह परामर्श श्रीमद्भगवद्गीता में नहीं है, बल्कि उससे इतर भीष्मपर्व का ही एक प्रसंग है।7 महाभारत के उक्त दोनों उद्धरणों में देवी को कुमारी, काली, कपाली, महाकाली, चण्डी और कान्तारवासिनी कहा गया है।

मानव जाति की शक्ति-पूजा का इतिहास लगभग उतना ही पुरातन है, जितना कि मानवों का जंगलों में निवास। यों तो वैदिक स्तुतियों में रचनाकार और स्थान का उल्लेख नगण्य होता है, किन्तु फिर भी, शक्ति-पूजन-प्रसंगों में ‘विंध्य पर्वत’ का उल्लेख सर्वप्राचीन है और यह तब की बात है, जब देवी शक्ति अपने कौमार्य स्वरूप में प्रतिष्ठित थीं।

मानवों की आराध्या उस कुमारी ने शनै:-शनै: संसार की समस्त संहारक शक्तियों पर अपना आधिपत्य कर लिया, एक ऐसी योद्धा बन गई थी कि जिसके योग्य केवल रुद्र ही एकमात्र वर थे। इस प्रकार संसार के दो महानतम योद्धाओं के विवाह का सूत्रपात हुआ तथा वेदों ने भी उस देवी को रुद्राणी तथा भवानी संबोधित कर यशगान किया है।
देवी उमा के शिव से विवाह की योजना तब कार्यान्वित हुई, जब देवासुर संग्राम में असुरों को पराजित करने के पश्चात् देवों का अहंकार बढ़ गया तथा इन्द्र सहित तमाम देवों को उपदेश प्रदान करने लिए देवी उमा का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रसंग का वैदिक उल्लेख केनोपनिषद् के अन्तिम खण्डों में मिलता है।8 कालान्तर में देवों को उपदेश देने वाली देवी हैमवती ‘उमा’ के सौजन्य से दो महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित हुए हैं- अव्वल तो यही कि वे ब्रह्म की मायाशक्ति नियुक्त हुईं और दूजा यह कि उनका पाणिग्रहण शिव से हुआ।

लोक में शक्ति-पूजा-प्रचलन

श्रीहरि की योगमाया देवी निद्रा के देव-कथाओं का प्रेरक आधार लेकर, माता पार्वती (उमा) लोक-कथाओं में शक्ति-स्वरूपा होकर उभरी हैं। यों उनके अनगिनत स्वरूप हैं, किन्तु मनुष्य-लोक को उनके कुल नौ स्वरूपों का ही मांगलिक-पूजन करने अवसर प्राप्त होता है, जिनमें अन्नपूर्णा, गौरी, मंगला-गौरी, स्वर्ण-गौरी, हरि-तालिका एवं ललिता (या उपांग-ललिता) जैसे सौम्य-स्वरूप शामिल हैं, तो दुर्गा, काली और चण्डी जैसे तीन रौद्र-रूप भी हैं। नवरात्र के नव-स्वरूप वस्तुतः इन्हीं के पर्यायवाची नाम हैं, हालाँकि उक्त सभी स्वरूपों की पूजा वर्ष के विविध मासों में इन्हीं नामों से भी हुआ करती है।9
महाराष्ट्र में तो मानो वसन्त पंचमी के स्थान पर शरद दशवीं ही है। वैसे देवी सरस्वती का प्राकट्य माघ में माना गया है, वही उनके उत्सव का निमित्त भी है, किन्तु आर्यावर्त में वर्षाकाल के चातुर्मास में गुरुकुलों का बन्द हो जाना तथा फिर शरद ऋतु के आरम्भ में पुनः गुरुकुल-व्यवस्था के सुचारू होने के कारण देवी सरस्वती का पूजन-अर्चन शरद ऋतु में सुनिश्चित किया गया। शारदीय नवरात्र में अष्टमी से दशहरे तक सरस्वती पूजन होता है। शरद ऋतु रंगों से हीन होकर भी समस्त रंगत का आधार होती है। इन दिनों वर्षासुलभ इन्द्रधनुष लुप्त हो जाते हैं तथा कोई रंगीन पुष्प नहीं खिलता है। शरद में श्वेत बादलों से श्वेत चन्द्र ही झाँकता है तथा श्वेतिमा लिए सप्तपर्णी, मालती एवं हरसिंगार के पुष्प पृथ्वी पर बिखरे रहते हैं। शरद ऋतु ही है, जिसके नाम पर माता सरस्वती को शारदा कहा गया है। माता के वस्त्र, उनका तेज तथा उनका वाहन, सबकुछ शरद ऋतु के प्रभाव से श्वेत ही हैं।

लक्ष्मी-पूजा का सुनिश्चित माह कार्तिक है, अमावस की रात में दीप-पंक्तियों वाला दीपोत्सव तथा फिर कोजागिरी पूर्णिमा भी लक्ष्मी-पूजन हेतु है, फिर भाद्रपद के गौरी उत्सव का एक उप-उत्सव महालक्ष्मी-पूजन भी है। शक्ति के अन्य पूजन दिवसों की बात करें, तो श्रावण की पिठोरी अमावस्या, माघ की शीतला षष्ठी को माता के गौण स्वरूपों अर्थात् उपदेवियों की पूजा की जाती है। जिस प्रकार प्रत्येक माह में श्रीहरि विष्णु का एकादशी-व्रत एवं गणेश का शुक्ल-चतुर्थी-पूजन हुआ करता है, ठीक वैसे ही प्रत्येक शुल्क पक्ष की अष्टमी का दिवस शक्ति-पूजन के लिए माना गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सप्ताह में शुक्रवार तथा मंगलवार भी देवी के पूजन के लिए शुभ माने जाते हैं।
शक्ति-पूजा अनन्य है, मनुष्य तो क्या, देवों के द्वारा भी साधी गई है, सो इसके आरम्भ को चिह्नित करना मुझ जैसे क्षुद्र मनुष्य के लिए अपौरुषेय ही है, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि शक्ति-पूजन की उत्तरजीविता वैदिक काल से है। ऋग्वेद के दशम मण्डल का 125वाँ सूक्त, देवी-सूक्त कहा जाता है, जहाँ आठ मन्त्रों में देवी-उपासना की गई है। इसका तात्पर्य है कि देवी की उपासना मन्त्रविधि से की जाती थी। लोक-प्रसिद्ध “या देवी सर्वभूतेषु…” सूक्ति से आरम्भ होने वाली सत्रह मन्त्रों की मन्त्रावली, वास्तव में देवी-सूक्त के आठवें मन्त्र के ही विविध सत्रह स्वरूप हैं।

शक्ति की उपासना और लोक-चेतनाओं में उनके मन्त्रों की पैठ इतनी गहरी है कि संसार की किसी के स्त्री-तत्त्व को शक्ति-स्वरूपा मानने की हिन्दू-परम्परा है : “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:…” – अर्थात् जहाँ स्त्री-तत्त्व पूजनीय है, वहाँ सहज ही देवता विराजते हैं।1
वर्तमान युग की शक्ति-पूजा-पद्धतियों का प्रसार राजपूतों द्वारा किया गया, ऐसा माना जाता है।2 कदाचित् यह भी एक कारण हो सकता है कि विजयदशमी को क्षत्रिय-उत्सव की संज्ञा मिली! उत्तर भारत के विभिन्न भागों पर अपनी सत्ता स्थापित करने वाले अधिकांश राजपूत शैव अनुयायी थे, जो कालान्तर में शिव-परिवार को भी पूजने लगे। इस दौर में, भगवान् एकलिंग की प्रतिष्ठा कुल पंच-प्रतिमाओं के साथ होने लगी थी। मध्य में विराजमान शिवलिंग के चहुँओर देवी पार्वती, कुमार कार्तिकेय, कुमार गणेश एवं नन्दी का प्रतिमा-चतुष्टय प्राचीन मन्दिरों में बहुधा देखा गया। ऐन यहीं से शक्ति-पूजा का युग-आरम्भ हुआ।

रोचक बात है कि राजपूतों ने शिव के त्रिशूल को देवी का चिह्न माना! प्रारम्भिक दौर की नवरात्रियों में, देवी-प्रतिमा का स्थान राजपूताना तोपों ने ले रखा था, जिनपर त्रिशूल चिह्न टाँके गए तथा कई-कई दीप जलाकर शक्ति का पूजन किया गया। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की लीक पर, प्रजा ने भी राजपरिवारों का अनुसरण किया, परन्तु उनके लिए तोपें कहाँ सुलभ थीं? ऐसे में, देवी दुर्गा की प्रतिमा का प्रवेश हुआ। वर्तमान समय के नवरात्र-दुर्गा-प्रतीक और उनकी विसर्जन-पद्धति यों ही एक वर्ष अथवा एक दशक में बनी कोई नियम-नियमावली नहीं है, अपितु इसकी सुस्थिरता में लोक को सदियाँ लग गई हैं।

गत कई सौ वर्षों से आज तलक गुर्जरात्र और काठिया भूमियों (गुजरात) में प्रचलित पद्धति, राजपूताना की शक्ति-पूजा-पद्धति से सीधे-सीधे प्रेरित दिखाई देती है। एक चुनिन्दा भित्ति (दीवार) पर श्वेत रंग का लेपन कर, सिन्दूर से त्रिशूल बनाया जाता है, जो कि दुर्गा देवी का चिह्न है। वहीं भित्ति के सम्मुख मिट्टी के ढेर में धान बो कर, उस पर नारियल सहित कलश की स्थापना की जाती है। मृदापात्र में एक दीपक को उत्सव पर्यन्त प्रज्ज्वलित रखा जाता है, किसी भी स्थिति में दीपक बुझने न पाए। नवरात्रि के आठवें दिन बलि-समर्पण तथा अन्तिम दिन निकट नदी में विसर्जन किया जाता है। पूरे महोत्सव भर उपवास-प्रंसगों को साधने का कार्य स्त्रियों के कर्त्तव्य-क्षेत्र में है। यदि नौ व्रत करना न भी सम्भव हो, तो चतुर्थी एवं अष्टमी का व्रत आवश्यक माना गया है।

गाँव भर की स्त्रियाँ किसी वृक्ष तले दीपक जलाकर माता की स्तुति करते हुए नृत्य व गायन-वादन करती हैं। इस नृत्य-प्रसंग पर अतिथियों को भी आमन्त्रित करने की प्रथा है। वस्तुतः यही नृत्य-आयोजन आज ‘गरबा’ के नाम से सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोकप्रिय है, नवरात्रि महोत्सव में प्रमुख आकर्षण भी है।
पाँचवीं से बारहवीं सदी तक, दक्षिण भारत की सत्ता चालुक्य राजपूतों के हाथ में थी।3 दक्षिण में शक्ति-पूजन के आरम्भ का काल चालुक्य कालखण्ड को ही माना जाता है। प्राचीन काल में शैव-अनुयायी यादवों की विदर्भ-भूमि रहा महाराष्ट्र, मराठों की सत्ता के साथ साथ उनकी आराध्या माता तुलजा-भवानी के जयघोषों का भी साक्षी रहा है। कहना न होगा, कि भूमियों पर जैसी सत्ता हो, पूजन-उपासन और सांस्कृतिक वातावरण भी वैसे ही हो जाया करते हैं।

निकटवर्त्ती होने के कारण क्षेत्रीय प्रभाव कहा जाए, अथवा राजपूताना ऐक्य के कारण रक्त-परम्परा का प्रभाव, कि मराठा-भूमि का नवरात्र उत्सव भी कुछ-कुछ गुर्जरात्र-काठिया जैसा है। यद्यपि तनिक भेद भी हैं! यथा : श्वेतभित्ति पर सिन्दूरी त्रिशूल के स्थान पर, देवी-प्रतिमा की स्थापना की जाती है। कलश-स्थापना समान है, परन्तु कलश को धारण करने वाले मिट्टी के ढेर में बोया जाने वाला धान गुर्जरात्र-काठिया की भाँति एक ही प्रकार का न होकर कई-कई प्रकार का होता है और विसर्जन से निवृत्त होकर यही धान प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है। प्रसाद रूप में मिले धान-नवांकुरों को सौभाग्य-प्रतीक मानकर स्त्रियाँ अपने केशों में भी धारण करती हैं। एक मशाल लेकर मराठा-भूमि के सम्पूर्ण कोल्हापुर क्षेत्र में की जाने वाली सामूहिक शोभायात्रा अद्भुत् हुआ करती है।

गोरक्षपुर के परमशाक्त श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी अपने एक आलेख में लिखते हैं : “काश्यप-भूमि की केसर-क्यारियों के मेड़ों पर शैव-दर्शन उगा था, तो बंग-भूमि के कदली-वनों, नारिकेल-कुञ्जों एवं पोखर-तटों पर शाक्त-दर्शन का जन्म हुआ!”4 उनका यह कथन, प्रायः सटीक मालूम होता है, चूँकि बंग-भूमि का दुर्गा-पूजन, तो मानो बंग-जनों का राष्ट्रीय महोत्सव है। बालक, किशोर, तरुण, युवा, वृद्ध एवं स्त्रियाँ, सब के सब माँ दुर्गा की भक्ति में लीन हो जाया करते हैं। नवरात्रि का दुर्गा-पूजन वहाँ का कुलाचार (अर्थात् पारिवारिक आचरण) सरीखा बन गया है, वर्षों की अनवरत परम्परा का साक्षी भी है। घटस्थापना के पश्चात् गीत-गायन, नृत्य, अखण्ड ज्योत तथा अटूट श्रद्धा ही बंग-दुर्गा-पूजा के लाक्षणिक चिह्न हैं।

सर्वत्र की भाँति बंग-भूमि में भी अष्टमी के दिन को सबसे अधिक महत्ता प्राप्त है। शारदीय नवरात्र के पश्चात् की अमावस्या को काली माता का पूजन किया जाता है। माता का स्वरूप तनिक भयप्रद-सा है, जो राक्षसों के नाश कारण धारण किया गया है। वे रूधिर-प्रिया हैं, सो इस दिन देवी महाकाली को पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है। काली-पूजन के दस दिवस पश्चात् सम्पूर्ण जगत् का पालन पोषण करने वाली माँ जगद्धात्री की पूजा की जाती है। लाल वस्त्र धारण कर सिंह पर विराजमान होने वाली माँ जगद्धात्री का पूजन पुरुषार्थ की प्राप्ति करवाने वाला माना जाता है।5
बंग-भूमि में शक्ति-पूजा के इतिहास पर दृष्टि डालें, तो नौवीं सदी में जाना होगा, जब पूरे बंगाल पर पाल राजपूतों की सत्ता थी।6 पालों का साम्राज्य कन्नौज तक फैला था, तो उनके उत्तरवर्त्ती रहे सेन वंश ने बांग्ला-सत्ता के प्रभुत्व को पूर्वोत्तर तक पहुँचाया था।7 12वीं सदी का दौर आ चुका था, ठीक इसी कालखण्ड में काली-उपासना के साक्ष्य मिला करते हैं। काली-पूजा कन्नौज से लेकर सुदूर पूर्वोत्तर अहोम (असम) तक लोक में उतर आई थी, चूँकि ये पूरा भूभाग एक लम्बे समय तक बंग-पृष्ठभूमि के दो बड़े ही प्रभावशाली साम्राज्यों के अधीन रहा था। पुनश्च : भूमियों पर जैसी सत्ता हो, पूजन-उपासन तथा सांस्कृतिक वातावरण भी वैसे ही हो जाया करते हैं।

मध्यकाल में लगभग पाँच सौ वर्षीय दैदीप्यमान इतिहास को जी चुका शाक्त-सम्प्रदाय, 16वीं सदी के उत्तरार्ध में अपना प्रभुत्व खोने लगा था, चूँकि पूजा-पद्धतियों में नवीनता का अभाव हो गया था। लोक जनमानस के उत्सव का रसरंग अब विधियों में उलझ कर रह गया था!
ईश्वरीय कृपा से शाक्तों का दीपक बुझने से पूर्व ही उनका आगामी विकास-क्रम आ पहुँचा। 16-17वीं सदी के महाकवि मुकुन्दराम की चण्डीमंगल नामक श्रमसाध्य काव्य-रचना को अभूतपूर्व प्रसिद्धि मिलने लगी!8 चण्डीमंगल के अनुसार, मनुष्य की समस्त मंगलकामनाएँ शक्ति-पूजा से अपनी पूर्णता की ओर चली जाती हैं। बंगाल के वाङ्मय में मुकुन्दराम एवं चण्डीमंगल की बड़ी ही विशद प्रशस्ति है।9 कवि-कंकण की उपाधि से प्रसिद्ध मुकुन्दराम चक्रवर्ती, वस्तुतः आधुनिक मेदिनीपुर जनपद में एक अध्यापक थे।10 इस बात में कोई दोराय नहीं कि चण्डीमंगल ने पूर्वी भारत की मध्यकालीन शक्ति-पूजा-पद्धतियों का प्रवेश, आधुनिक काल में भी बखूबी सुनिश्चित कर दिया है।
✍🏻योगी अनुराग

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