‘कैद में है भगवान’

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Anshu Sarda Anvi
Anshu Sarda Anvi

अंशु सारडा’अन्वि’
यात्रा, ट्रैवल, जर्नी, सफर, प्रयाण, प्रस्थान, जात्रा, भ्रमण, सैयाही आदि सिर्फ शब्द ही नहीं होते हैं बल्कि नई संस्कृति को, नए क्षेत्र को, नई दुनिया को, नए परिवेश को जानने और समझने की ललक और प्रयास भी होते हैं। किसी भी यात्रा की सार्थकता आपके स्वयं के अंदर का यात्री कितना जागृत है, उस पर निर्भर करती है। जब दैनिक चर्या से हम ऊबकर थक जाते हैं तो जीवन और निराशा के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का एक बहुत अच्छा उपाय है यात्रा। ज्ञान पिपासा को बढ़ाने का और ज्ञान जिज्ञासा को शांत करने का इससे बेहतर माध्यम और क्या हो सकता है। हमारे देश में तो वैसे ही यात्रा और उससे जुड़े अनुभवों का अपना एक इतिहास और महत्ता रही है।

चिरकाल से ही तीर्थ यात्रा, देशाटन और व्यवसायिक यात्रा के रूप में यात्रा के उदाहरण बिखरे पड़े हैं।

‘सुभाषितमाला’ में भी कहा गया है-

‘योजनानां सहस्त्रं तुशनैर्गच्छेत पिपीलिका’
धीरे-धीरे से ही सतत चलते रहने पर चींटी जैसी छोटी जीव भी सहस्त्र योजन की यात्रा पूर्ण कर लेती है।

और यहां तो हम सब मनुष्य हैं जिनके अंदर यात्रा की ललक, कुछ नया जानने की इच्छा बचपन से ही होती है। रास्ते सब के अलग-अलग हो सकते हैं पर मंजिल सिर्फ एक होती है यात्रा से मिलने वाली संतुष्टि। जब तक खुद से दूर होकर यात्रा नहीं करते हैं तब तक कितनी भी दूर तक यात्रा कर ले वह बेकार है। यात्रा की संतुष्टि के एहसास को पाने के लिए खुद को छोड़कर यात्री की दृष्टि अपनानी पड़ती है। सिर्फ सुनना, देखना और फोटो खींचकर अपलोड कर देना यात्रा नहीं। यात्रा के लिए कोल्हू के बैल की तरह अपने विचारों को एक खूंटे से बांधकर रखना नहीं होता है।यात्री बनना ही निर्बाधतता है, निरंतरता है, नयापन है, एक उकसाहट है जिंदगी को लेकर।

किसी भी यात्रा पर निकलना एक तरह से सूर्योदय की तरह होता है। जैसे- जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं यात्रा में, चीजों को जानने -समझने की इच्छा, उत्कंठा का प्रकाश भी हमारे अंदर आ जाना चाहिए। किसी भी यात्रा की सफलता के लिए टिकट और ठहरने के व्यवस्था के साथ-साथ यात्री की विलक्षण दृष्टि भी एक बड़ा रोल निभाती है। यह भी ध्यान रखना होता है कि यात्रा में विभिन्न क्षेत्रों के आचार- व्यवहार को, लोकाचार को समझना और उसके अनुसार ही व्यवहार करना भी बहुत जरूरी होता है क्योंकि हमारे रास्ते में सब कुछ सुरक्षित, सीधा, सरल और सपाट हमें मिले यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं है। हां, परिवर्तित माहौल में सावधानी से बढ़कर और कोई सुरक्षा नहीं होती है। रास्ते में सब फुर्सतिए ही मिलते हैं पर बिना फुर्सत वाले। अपनी मंजिल तक पहुंचना है, जाना है सबको, उसके लिए इंतजार भी करना होगा पर फिर भी फुर्सत में कोई नहीं है। सब कुछ बटोर लेना चाहता है एक यात्री हर अच्छे- बुरे अनुभव, हर याद, हर जानकारी, हर विलक्षणता को, फिर वह चाहे उसे सुंदर अवस्था में मिले या भग्नावस्था में, बेचारगी में मिले या शिष्टता में मिले या अशिष्टता में, एक यात्री को वह सब कुछ ही समेट लेना होता है। यहां कल्पना तो अपना काम करती है पर उससे बढ़कर एक यात्री के लिए उस यथार्थ का अनुभव, उसकी अभिव्यक्ति का नया स्वभाविक रुप उसके अनुभव के खजाने को और भी समृद्ध करता है।

मुझे स्वयं को घूमने का बहुत शौक है, वह चाहे देश का कोई भी क्षेत्र हो, तीर्थ हो या पर्यटक स्थल। स्मारक और संग्रहालय, रास्ते की सीनरियों के साथ -साथ जो कुछ और मुझे अपनी ओर लुभाता है वह है शहर और गांव की गलियों की खाक छानना। एक आम आदमी की जिंदगी को करीब से देखना और शहर की नब्ज को पकड़ना। पर्यटक की दृष्टि सिर्फ इमारतों, दर्शनीय स्थलों, मंदिरों और मकबरों के ऊपर जाती है और उनका प्रभाव भी उस पर पड़ता है। मगर साथ-साथ यह भी सच है कि देश में टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर बनी स्थानीय दुकानों पर ठगे जाने का भी एहसास होता है। वस्तुओं के दाम के लिए ही नहीं बल्कि बेची जाने वाली चीजों की गुणवत्ता और उनके असली होने के नाम पर स्थानीय लोग बारगेनिंग या तो करते ही नहीं है या फिर दुगना- तिगुना दाम बोलकर कुछ घट-बढ़ कर देते हैं।

ओडिशा में स्थित जगन्नाथ मंदिर की दूसरी बार यात्रा का मौका मिला। एक बार फिर दूर तक सजा हुआ बाजार, चौड़ी सड़क और पूरे रास्ते में पीतल, स्टील के बर्तन, पूजा सामान, कपड़े व जूट के बने सामान, खाने- पीने की दुकानें और ठेले, खाजा और प्रसाद के ठेले, प्लास्टिक के खिलौनों के साथ-साथ तरह-तरह के शंख, मोती और श्री विग्रह से संबंधित दुकान देखीं, जैसा कि अमूमन हर बड़े मंदिर के बाहर होती हैं। हिंदी भाषा प्रायः सब समझते भी थे और बोल भी लेते थे। सभी धार्मिक स्थलों की भांति यहां भी पंडे-पुजारियों का बोलबाला है पर अंधेर नहीं जैसा कि मथुरा-वृंदावन के मंदिरों में है। परिसर में स्थित अन्य छोटे मंदिरों के साथ-साथ मुख्य मंदिर के पुजारियों के व्यवहार में कहीं भी श्रद्धा नहीं है और उस भीड़ में भी वे अपने भक्त रूपी शिकार को बहुत ही आसानी से ढूंढ लेते हैं या यूं कहें कि ताड़कर उस पर अपना कब्जा कर लेते हैं। वे बहुत ही अच्छी तरह से जानते हैं कि भगवान के नाम पर, परिवार- बच्चों के नाम पर किस तरह से व्यक्ति की श्रद्धा -भावना के साथ खिलवाड़ करके पैसे निकलवाये जा सकते हैं। हमारी अंधभक्ति भी उस में सहायक बन जाती है। सभी बड़े मंदिरों में भक्त और भगवान के बीच सहायक बनने की जगह रुकावट बनते हैं ये पंडित -पुजारी। दर्शनार्थियों को इतनी दूर से भगवान के दर्शन करने होते हैं कि मन में श्रद्धा -भाव लिए आते तो है पर वहां पर ढोर- बकरियों की जैसे उन्हें ठूंस दिया जाता है। भीड़ की इस रेलम- पेल में उनका श्रद्धा भाव तो कहीं कोने में छोटे बच्चे की जैसे छुप जाता है। फिर भी उसे किसी तरह अपने अंदर थोड़ा बहुत जगाते हुए जब मुख्य मंदिर में भगवान के दर्शन के लिए पहुंचते हैं तो पता लगता है कि वहां भी भगवान और उनके बीच अभी भी कई फीट की दूरी के साथ-साथ पुजारियों की दीवार भी आगे खड़ी है। भगवान इतनी दूर और अंधेरा किए हुए होते हैं कि उनकी एक झलक पाना भी बड़ा ही मुश्किल और असंभव सा काम होता है और इन सबसे बढ़कर पुजारियों का व्यवहार और लालचीपन भगवान और भक्त के बीच के संवाद को फिर बाधित करता है। ऐसा लगता है कि पुजारियों का काम बदल गया है। किसी रिश्वतखोर ऑफिसर की भांति, बिना दान -दक्षिणा के भगवान के दरबार में वे भगवान के दर्शन का समय ही नहीं देते हैं। कैद में है भगवान इन पंडे- पुजारियों के। शायद उधर भगवान का भी यही हाल होगा जो सामने में उनके दर्शनों को खड़े उनके भक्तों का होता है। एक तो दूरी और ऊपर से छले जाने के एहसास के साथ- साथ इस तरह की बाधा से तीर्थों की गरिमा का हृॉस होता है। भगवान हर आगे बढ़ते समय के साथ भक्तों से दूर और अधिक दूर होते चले जाते हैं। भगवान के गुणों का अनुसरण न कर पाने की हम सब की जो मनोवृति होती है वह हमें भगवान के जागृत रूप के एक शिला होने का एहसास कराती है।

बड़े मंदिर में दर्शनों की इच्छा, उस स्थान की प्रधानता और महत्ता के कारण हमें उस तरफ खींचती है पर वहां मिलता व्यवहार हमारे अंदर एक वितृष्णा भर देता है। ढोर- बकरियों के समान भक्तों के साथ व्यवहार किए जाने के बावजूद भी भक्तों की संख्या कहीं भी कम होती दिखाई नहीं देती है। भक्तों, श्रद्धालुओं के साथ -साथ पर्यटन के लिए सुलभ आवाजाही के रास्ते भी इसका एक कारण है। वहां से चोट खाने के बाद भी हम अपने घरों के आस-पास के मंदिरों में झांकते तक नहीं है। कुछ समय की हताशा, उकताहट, झल्लाहट के बाद एक बार फिर से तैयार जाते एक और बड़े मंदिर में ठूंसे जाने के लिए……….यह भूलकर कि आखिरकार ‘क़ैद में है भगवान’

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