अंशु सारडा’अन्वि।
आज फिर जब अपने बालकनी गार्डन को संभाल रही थी तो सर्दियों की रानी गुलदाउदी और सर्दियों का राजा गेंदा एक के पास रखे हुए एक साथ मुस्कुरा रहे थे। वे सुंदर तो लग ही रहे थे पर एक सीख भी दे रहे थे कि एक फूल कभी भी दूसरे फूल को देखकर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं रखता है। न तो अतीत में जीता है और न ही भविष्य को सोचता है। उसे तो सिर्फ अपना खिलना है और मुस्कुराना है। पर शायद ऐसी सीख हमारे लिए काम ही नहीं करती है, हम देखते हैं, पढ़ते हैं, सुनते हैं, समझते हैं पर लागू नहीं कर पाते हैं इसके विपरीत जाकर अपनी ऊर्जा का क्षय जरूर करते हैं। क्योंकि इन सबके कारण हमारे अंदर इतनी अधिक मनोवैज्ञानिक उथल- पुथल होती है कि हम बजाय उसका सकारात्मक उपयोग करने के, उसका उत्प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल करने के उसे खुद पर हावी होने देते हैं। हम न तो दूसरे को खुद से बेहतर स्वीकार कर पाने का साहस कर पाते हैं और न ही उस डर से खुद को अलग कर पाते हैं। जब-जब कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है तब-तब यह महसूस करना चाहिए कि भविष्य में हम जो बनेंगे, वह इन्हीं कठिनाइयों से जीतकर बनेंगे और उसमें ऊर्जा क्षय करने की नहीं बल्कि ऊर्जा संरक्षण की जरूरत होती है।
दरअसल बेहतरी की इस दौड़ में हम कभी भी अपने वर्तमान को नहीं जी पाते हैं। कल जी लेंगे, आज तो मरने की भी फुर्सत नहीं है। पर न तो यह कल कभी आता है और न ही यह आज कहीं जाता है और हम हैं कि बस चिपके रहते हैं अपने इसी प्रलाप के साथ लेकिन वर्तमान जीवन को भविष्य के डर से जीते भी नहीं हैं। फिर अगला दिन शुरू हो जाता है पर कल तो तब भी नहीं आता है और इस कल के आने के इंतजार में आज का विस्तार होता चला जाता है, पहले सप्ताह में, फिर महीना और बरस बन जाता है। फैलता ही चला जाता है यह ‘आज’ सबको सुरसा के मुंह में निगले हुए और हम हैं कि किसी कल के इंतजार में आज से पीछा छुड़ा कर आगे को भागते ही जाते हैं। पल-पल अंदर में भरती बेचैनी, कभी अतीत की यादें तो कभी भविष्य की उम्मीदें, इस अंगीठी पर सिलगते कोयले की तरह हमें अंदर ही अंदर जलाती जाती हैं। लेकिन अतीत की यादों में अधिक रहना ठीक नहीं क्योंकि वे वर्तमान को खत्म कर देती हैं। कहा जाता है कि यादों को नमक की तरह ही अपनी जिंदगी में रखो वरना वे वर्तमान में जीने भी नहीं देंगी। उफ़ मैं भी तो बार-बार चली जाती हूं अतीत में, जहां खुल कर बोलना मना होता है, जहां सब कुछ स्वीकार करना होता है, जहां अपनी उम्मीदों को, अपनी पहचान को रस्सी पर सूखते कपड़ों की भांति टांग दिया जाता है, फिर से सुखाकर तह बंद करके रखने के लिए। यादें हमेशा जिंदा रहती हैं, कभी मरा तो नहीं करती हैं। बार-बार एककोशीय अमीबा की तरह खोल से चिपकी रहती हैं और हम हैं कि उसी को वापस- वापस ओढ़ भी लेते हैं। कभी-कभी उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता भी तो नजर नहीं आता है। पर मुस्कुराने का फिर एक रास्ता नजर आ जाता है, जितना रोना है रो लो, अपने सभी दर्द को, आंसुओं को बह जाने दो क्योंकि यही एकमात्र रास्ता होता है फिर से मुस्कुराने का।
मेरे एक मित्र ने एक बार मुझसे एक नंग-धड़ंग, सड़क पर अपनी ही धुन में मस्त बच्चे की फोटो शेयर करने पर नाराजगी व्यक्त की। आखिर क्यों? क्योंकि एक संवेदनशील मनुष्य का मन खुद को उससे जोड़ लेता है। उस परित्यक्त, उपेक्षित संसार को इस तरह से देखने में हमें हमारे अंदर की मानवता कचोटने लगती है। शायद आईना बनकर हमारे उसूलों को भी आईना दिखा जाती है इसलिए इस तरह के दृश्यों को हम लोग अपनी खुली आंखों से देखने का साहस नहीं कर पाते हैं। वे तस्वीरें उस कहानी को बयां कर देती है जिनका कोई अंत नहीं। अंत इसलिए नहीं क्योंकि उत्तर देने की क्षमता हम में से किसी की भी नहीं।
और अंत में….पिछला एक सप्ताह कभी खुशी कभी गम वाला रहा। जहां भारतीय साहित्य का सर्वोच्च सम्मान 56 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार सन् 2021 के असमिया भाषा के लोकप्रिय कवि नीलमणि फूकन को दिए जाने की घोषणा की गई और उसके साथ ही सन् 2022 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए कोंकण भाषा के लेखक दामोदर मौउजो का चुनाव किया गया। यह सब कुछ इतनी शांति से बिना किसी अधिक हलचल के साहित्य की दुनिया की गलियों से गुजर ही रहा था कि देश के पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत और उनकी पत्नी मधुलिका रावत समेत 13 अन्य अधिकारियों के हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु की खबर आ गई। देश के वीर सपूतों को शत-शत नमन। जहां हम न तो खुशी का इजहार कर पाए और न ही इस गम को सह पाए। शायद यही जिंदगी है, कभी खुशी कभी गम। शाम हो चली है खिड़कियां बंद करने का समय हो आया है, पर्दे गिराना है लेकिन वह देखिए आकाश में एक अकेला तारा, उम्मीद का तारा दिखाई दे रहा है, वह भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ, अपनी पूरी ऊष्मा के साथ, अपने पूरे उत्साह ,उमंग, उल्लास के साथ। यह भी तो एक जिंदगी है, कांटो से अलग कहीं सुंदर रूप में इंतजार करती…. वह आएगी, जरूर आएगी। कवि पीयूष शुक्ल की पंक्तियों के साथ आज के लेख को विराम देती हूं….
“चलो अब नींद से जागो, तुम्हें तो दूर जाना है,
ये किस्से हैं बहुत छोटे, बड़ा तेरा फ़साना है।”