अरविन्द भारद्वाज
अपने समय में जिस “सीता” का अपहरण हुआ है उसका नाम “शालीनता” है- “शालीनता” अर्थात “शराफत”, “सादगी”, “सज्जनता”, “भलमनसाहत” “नेकी” “उदारता” आदि । आज हर क्षेत्र में आडंबरों के पर्वत खड़े हैं , पर उन्हें खोजने टटोलने पर ढोल की पोल के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता । “स्वार्थांधों” और “व्यामोहग्रस्तों” की बात जाने दें तो भी जो परमार्थ का दावेदार धर्मक्षेत्र बच रहता है उसके मूर्द्धन्यों तथा क्रिया-कलापों की जाँच-पड़ताल करने पर “शालीनता” खोजने पर निराशा ही हाथ लगती है । यश और पद के भूखे लोगों से लोक-सेवा का क्षेत्र इस बुरी तरह भर गया है कि भाव संवेदना खोज निकालना असंभव जैसा लगता है । धर्माडंबरों के बहाने अपनी कीर्ति-ध्वजा फहराने वालों में जो प्रतिस्पर्धा चल रही है उससे प्रतीत होता है कि इससे पूर्व ऐसा धर्मयोग कदाचित ही कभी रहा हो । अखंड कीर्तनों और रात्रि जागरणों का कोहराम सुनकर लगता है अब क्षीरसागर में सोने वाले भगवान को इच्छा या अनिच्छा से बिस्तर समेटना ही पड़ेगा । तीर्थ यात्रा और दान – पुण्य में हर साल बढ़ोतरी ही हो रही है, इतने पर भी उस “शालीनता” का कुछ अता-पता ही नहीं चल रहा है, जिसके सहारे व्यक्ति को न्यूनतम निर्वाह अपनाने के उपरांत जो समर्थता बच रहती है उसे सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिए नियोजित किया जा सके । यदि शालीनता का अस्तित्व रहा होता तो यह क्षेत्र इतना सुनसान न रहता कि युग-सृजन के लिए जरा-जरा से श्रम, सहयोग के लिए बुरी तरह भटकना और खिन्नतापूर्वक निराश रहना पड़े ।
👉 “भारतीय संस्कृति” “देव संस्कृति” है । “देव” अर्थात “संयमी” और “सेवाभावी” । देवसत्ता का प्रत्यक्ष दर्शन उदार शालीनता की गतिविधियों में ही किया जा सकता है । इस खोज के लिए निकलने वाले अंधेरे में भटकते ही दीख पड़ते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि जागृत आत्माओं में से प्रत्येक के मन में यह दर्द उठे कि वे “शालीनता” की सीता की खोज करके ही रहेंगे । उसका अता-पता जो भी मिलेगा उसी से पूछेंगे और प्राणपण से इस निमित्त प्रयत्न रहेंगे कि “शालीनता” को असुरता के चंगुल से छुड़ाया जा सके ।
मन-जिभ्या से, भाव-स्पंदित हृदय के अंतः स्थल के ओर-छोर से, सागर- भर शुभमंगल कामनाओं सहित निवेदक अरविन्द भारद्वाज