यादों के झरोखे से- गाने के बहाने यादों की सरगम

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पार्थसारथि थपलियालपार्थसारथि थपलियाल

संतूर के सुर सम्राट पंडित शिव कुमार के निधन के समाचार उन सभी के लिए चुभन भरा था जिन्होंने संतूर वादन देखा या सुना होगा। बहुत कठिन साज है, जो कश्मीर की वादियों में झंकृत होकर विश्व पटल तक फैला। सहज रूप में भारत को देखें तो अद्भुत देश है। किसी मित्र नें रज़िया सुल्तान फ़िल्म का एक गाना भेजा, विवरण कुछ भी न था। मैंने सुना और फिर सुना। आंख मूंद कर सुना। रज़िया सुल्तान फ़िल्म 1983 में रिलीज़ हुई थी। मैं उन दिनों आकाशवाणी जोधपुर के ड्यूटी रूम में ड्यूटी ऑफिसर हुआ करता था।
उन दिनों आकाशवाणी जोधपुर के विविध भारती विज्ञापन प्रसारण सेवा चैनल पर शाम 7.45 से रात 8.10 बजे तक “आपकी पसंद” कार्यक्रम लोकल विंडो के रूप में प्रसारित होता था। यह कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय होता था। जोधपुर के लगभग हर घर में शाम पौने आठ बजे तो रेडियो फुल वॉल्यूम पर सुनाई देता था। किसी श्रोता का नाम छूटने या किसी का नाम अधिक बार प्रसारित होने पर रेडियो श्रोताओं की लड़ाई अक्सर आकाशवाणी तक आ जाती थी। कारण ये था कि इस कार्यक्रम में लेटेस्ट हिट गाने ब्रॉडकास्ट होते थे। श्रोता संघ भी अपने अपने नाम सुनने के शौकीन थे।
वर्ष 1984 के मार्च माह तक आकाशवाणी के प्राइमरी चैनल पर 90 प्रतिशत कार्यक्रम आकाशवाणी जयपुर से रिले होते थे। मार्च 1984 में केंद्र निदेशक काज़ी अनीस उल हक साहब के जॉइन करने के बाद 90 प्रतिशत कार्यक्रम स्थानीय प्रसारित होने लगे। एक दिन सुबह संगीत सरिता में विविध भारती चैनल पर कब्बन मिर्ज़ा का इंटरव्यू आ रहा था। ऐसी पाटीदार आवाज़ मैंने पहले नही सुनी थी। वैसे भी संगीत सरिता का फॉरमेट अलग हुए करता था। मेरे वरिष्ठ साथी मुख्य चैनल के ड्यूटी ऑफिसर प्रेम माथुर ने बताया कि ये कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ है। कब्बन मिर्ज़ा विविध भारती मुम्बई में थे, जिन्हें छाया गीत कार्यक्रम में अक्सर सुनते थे, लेकिन संगीत सरिता में बातचीत करते हुए पहली बार सुना था। आधा हिस्सा बातचीत व आधा हिस्सा गाने का था। पुराने श्रोताओं और रेडियो ब्रॉडकास्टर्स को याद होगा इस फ़िल्म में संतूर का खूब उपयोग हुआ है। चाहे वो गीत- ” ए दिल नादां ए दिल नादां”, “तेरा हिज्र मेरा नसीब है” या “आयी जंजीर की झंकार खुदा खैर करे” संतूर सभी मे है। गीत-आयी जंजीर की झंकार खुदा खैर करे… को लिखा है जां निसार अख्तर ने। इसे आवाज़ दी है-कब्बन मिर्ज़ा ने। और संगीत दिया खय्याम ने। इस गीत के संगीत की कहानी भी जोरदार है। कमाल अमरोही जिन दिनों रज़िया सुल्तान पर काम कर रहे थे, उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को इस फ़िल्म के संगीतकार के रूप में चुना था। फ़िल्म के एक गीत का संगीत कमाल साहब को अच्छा नही लगा। वे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को मिलने गए, जो उस समय व्यस्त थे। उन्होंने मिलने में देरी की। कमाल अमरोही ने उसी समय तय कर लिया कि संगीतकार बदलना है। वे घर आये। कुछ परेशान से लग रहे थे। उनकी पत्नी मीना कुमारी ने उन्हें याद दिलाया कि शगुन फ़िल्म के संगीतकार खय्याम को क्यों नही लेते? शगुन फ़िल्म का गीत- पर्वतों के पेड़ों पर…खूब गुनगुनाते हो। कितना अच्छा संगीत दिया है उन्होंने। इस प्रकार खय्याम साहब को रज़िया सुल्तान में संगीत देने के लिए चुना गया।
फ़िल्म “रज़िया सुल्तान” में रज़िया के दरबार मे एक किरदार के गाने के लिए बहुत अलग किस्म की आवाज़ की जरूरत थी। खय्याम साहब ने कई लोगों का ऑडिशन लिया लेकिन कोई समझ नही आया। किसी ने उन्हें कब्बन मिर्ज़ा का नाम सुझाया। उन्हें बुलाया गया। खय्याम साहब ने कब्बन मिर्ज़ा से एक मर्शिया गाने के लिए कहा। खय्याम साहब को लगा जिस आवाज़ को वे इतने दिनों से तलाश रहे थे वह उन्हें मिल गई। उसके बाद रज़िया सुल्तान में कब्बन मिर्ज़ा के गाये दो गाने शामिल हुए।
आयी जंजीर की झंकार खुदा खैर करे..
इस गीत का लिंक साथ मे भहेज जा रहा है। साथ ही ज़ाकिर हुसैन का तबला और शिव कुमार शर्मा की संतूर वादन की जुगलबंदी भी है।

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