यासीन मलिक को सजा सुनाते हुए कोर्ट ने कही यह बाते, ध्यान से पढें यह प्वाइंट

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 26मई। दिल्ली की एक अदालत ने बुधवार को जम्मू-कश्मीर के टॉप अलगाववादी नेताओं में से एक यासीन मलिक को आतंकवाद के वित्तपोषण के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई। कोर्ट ने मलिक को सजा सुनाने से पहले केस के मामले में कई अहम बातें कहीं, जो जरूर जानिए चाहिए

यासीन मलिक को सजा सुनाते हुए कोर्ट ने कहा कि इन अपराधों का मकसद ‘भारत के विचार की आत्मा पर हमला करना’ और भारत संघ से जम्मू-कश्मीर को जबरदस्ती अलग करने का था. स्पेशल जस्टिस प्रवीण सिंह ने विधिविरुद्ध क्रियाकलाप रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत विभिन्न अपराधों के लिए अलग-अलग अवधि की सजा सुनाईं.
न्यायाधीश ने राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) की तरफ से की गई मृत्युदंड की मांग को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि मलिक को जिन अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया है वे गंभीर प्रकृति के हैं. न्यायाधीश ने कहा, ‘इन अपराधों का उद्देश्य भारत के विचार की आत्मा पर प्रहार करना था और इसका उद्देश्य जम्मू-कश्मीर को भारत संघ से जबरदस्ती अलग करना था. अपराध अधिक गंभीर हो जाता है क्योंकि यह विदेशी शक्तियों और आतंकवादियों की सहायता से किया गया था. अपराध की गंभीरता इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि यह एक कथित शांतिपूर्ण राजनीतिक आंदोलन के पर्दे के पीछे किया गया था. ऐसे अपराध के लिए अधिकतम सजा मृत्युदंड है.’
अदालत ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) नेता मलिक को दो अपराधों – आईपीसी की धारा 121 (भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना) और यूएपीए की धारा 17 (आतंकवादी गतिविधियों के लिए राशि जुटाना)- के लिए दोषी ठहराते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई गई. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, आजीवन कारावास का मतलब मृत्यु तक कैद है, जब तक कि अधिकारियों द्वारा सजा को कम नहीं किया जाता है. वरिष्ठ अधिवक्ता विकास पाहवा ने कहा कि हालांकि, संबंधित अधिकारी न्यूनतम 14 साल की कैद पूरी होने के बाद ही सजा की समीक्षा कर सकते हैं. न्यायाधीश ने 20 पृष्ठों के अपने फैसले में कहा कि जिस अपराध के लिए मलिक को दोषी ठहराया गया है उनकी प्रकृति गंभीर है.
न्यायाधीश ने हालांकि कहा कि यह मामला ‘दुर्लभ से दुर्लभतम मामला’ नहीं है जिसमें मृत्युदंड सुनाया जाए. उन्होंने कहा कि जिस तरह से अपराध किए गए थे, वह साजिश के रूप में थे, जिसमें उकसाने, पथराव और आगजनी करके विद्रोह का प्रयास किया गया था, और बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा के कारण सरकारी तंत्र बंद हो गया था. हालांकि उन्होंने संज्ञान लिया कि अपराध करने का तरीका, जिस तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया गया था, उससे वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विचाराधीन अपराध उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित दुर्लभ से दुर्लभतम मामले की कसौटी में विफल हो जाएगा.

न्यायाधीश ने मलिक पर 10 लाख रुपये का जुर्माना लगाते हुए कहा, ‘इसलिए, मेरी राय में, यह उचित समय है कि यह माना जाए कि आतंकवाद का वित्तपोषण सबसे गंभीर अपराधों में से एक है और इसमें और अधिक कड़ी सजा दी जानी चाहिए.’ अदालत में मलिक द्वारा दाखिल जवाब में कहा गया, ‘1994 में संघर्षविराम के बाद, उसने घोषणा की थी कि वह महात्मा गांधी के शांतिपूर्ण मार्ग का अनुसरण करेगा और एक अहिंसक राजनीतिक संघर्ष में शामिल होगा. उसने आगे तर्क दिया है कि तब से उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है कि पिछले 28 वर्षों में उसने किसी भी आतंकवादी को कोई आश्रय प्रदान किया था या किसी आतंकवादी संगठन को कोई साजोसामान संबंधी सहायता प्रदान की थी.’

न्यायाधीश ने कहा, ‘हालांकि, बुरहान वानी की मौत के तुरंत बाद, उसे गिरफ्तार कर लिया गया और नवंबर 2016 तक हिरासत में रहा. इसलिए, वह हिंसक विरोध प्रदर्शन में शामिल नहीं हो सकता था.’ एनआईए के इस तर्क पर कि मलिक कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और उनके पलायन के लिए जिम्मेदार था, न्यायाधीश ने कहा कि चूंकि यह मुद्दा अदालत के समक्ष नहीं है और इस पर फैसला नहीं किया गया है, इसलिए वह खुद को तर्क से प्रभावित नहीं होने दे सकते.
मलिक को मौत की सजा देने की एनआईए की याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश ने कहा, ‘मैं तदनुसार पाता हूं कि यह मामला मौत की सजा देने लायक नहीं है.’ न्यायाधीश ने मलिक की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि उसने 1994 में बंदूक छोड़ दी थी और उसके बाद उसे एक वैध राजनीतिक व्यक्ति के रूप में मान्यता दी गई थी. न्यायाधीश ने कहा कि ‘मेरी राय में, इस दोषी का यह कोई सुधार नहीं था.’ न्यायाधीश ने कहा, ‘यह सही हो सकता है कि अपराधी ने वर्ष 1994 में बंदूक छोड़ दी हो, लेकिन उसने वर्ष 1994 से पहले की गई हिंसा के लिए कभी कोई खेद व्यक्त नहीं किया था.
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जब उसने दावा किया था कि उसने 1994 के बाद हिंसा का रास्ता छोड़ दिया, भारत सरकार ने इस पर भरोसा किया और उसे सुधार करने का मौका दिया और अच्छे विश्वास में, उसके साथ एक सार्थक बातचीत में शामिल होने की कोशिश की और जैसा कि उसने स्वीकार किया, उसे अपनी राय व्यक्त करने के लिए हर मंच दिया.’
उन्होंने कहा कि दोषी ने हालांकि हिंसा का त्याग नहीं किया. न्यायाधीश ने कहा, ‘बल्कि, सरकार के अच्छे इरादों के साथ विश्वासघात करते हुए, उसने राजनीतिक संघर्ष की आड़ में हिंसा को अंजाम देने के लिए एक अलग रास्ता अपनाया. दोषी ने दावा किया कि उसने अहिंसा के गांधीवादी सिद्धांत का पालन किया था और शांतिपूर्ण अहिंसक संघर्ष का नेतृत्व कर रहा था. हालांकि, सबूत जिसके आधार पर आरोप तय किए गए थे और जिसने उसे दोषी ठहराया है, कुछ और ही कहानी बयां करते हैं.’
उन्होंने कहा कि पूरे आंदोलन को हिंसक बनाने की योजना बनाई गई थी. न्यायाधीश ने कहा, ‘मुझे यहां ध्यान देना चाहिए कि अपराधी महात्मा की बात नहीं कर सकता और उनके अनुयायी होने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि महात्मा गांधी के सिद्धांतों में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं थी, चाहे उद्देश्य कितना भी बड़ा हो. चौरी-चौरा में हुई हिंसा की एक छोटी सी घटना पर महात्मा गांधी ने पूरे असहयोग आंदोलन को बंद कर दिया था.’
उन्होंने कहा कि घाटी में बड़े पैमाने पर हिंसा होने के बावजूद मलिक ने न तो इसकी निंदा की और न ही विरोध का अपने कार्यक्रम वापस लिया. न्यायाधीश ने कहा, वर्तमान मामले में, सजा देने के लिए प्राथमिक विचार यह होना चाहिए कि यह उन लोगों के लिए एक निवारक के रूप में काम करे जो समान मार्ग का अनुसरण करना चाहते हैं.
अदालत ने मलिक को आईपीसी की धारा 120 बी (आपराधिक साजिश), 121-ए (भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश) और यूएपीए की धारा 15 (आतंकवाद), 18 (आतंकवाद की साजिश) और 20 (आतंकवादी संगठन का सदस्य होने) के तहत 10-10 साल की जेल की सजा सुनाई. अदालत ने यूएपीए की धारा 13 (गैरकानूनी कृत्य), 38 (आतंकवाद की सदस्यता से संबंधित अपराध) और 39 (आतंकवाद को समर्थन) के तहत प्रत्येक के लिये पांच-पांच साल की जेल की सजा सुनाई. सभी सजा साथ-साथ चलेंगी.

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