पार्थसारथि थपलियाल
लोग अक्सर धर्म की बात तो करते हैं लेकिन धर्म को जानते नही हैं। कोई मंदिर जाने को धर्म कह देगा, कोई तिलक लगाने को धर्म कह देगा। कुछ लोग रीति रिवाज को तो कोई परंपराओं को धर्म मान लेता है। यह सब अज्ञानताएं हैं। भारतीय शास्त्रों में धर्म के 10 लक्षण बताये गए हैं।
धृतिक्षमा दमस्तेयं शौचंमिन्द्रीय निग्रह
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम धर्म लक्षणं।।
अर्थात धैर्य, क्षमा, प्रलोभनों की इच्छा का दमन, चोरी न करना, शौच इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या सत्य तथा क्रोध पर नियंत्रण रखना। ये दस लक्षण बताये गए हैं। डॉ. मनमोहन वैद्य, सह सरकार्यवाह ने कुरुक्षेत्र में पंचनद द्वारा आयोजित मंथन शिविर में भारत के स्व को जागृत करने के लिए हिन्दू, हिंदुत्व, धर्म, संस्कृति आदि पर धारा प्रवाह रूप में अपने विचार रखे। उन्होंने कहा सनातन और हिन्दू शब्द अलग नही हैं। सनातन धर्म में आचरण को पहला धर्म माना गया है। आचार: प्रथमो धर्म:।
हमारे यहां धर्म को बहुत निजी माना गया है। अगर ऐसा न होता तो सब एक ही पूजा कर रहे होते। जिस एक सत्य को परम सत्य कहा गया है उसी को लोग अपनी अपनी आस्थाओं के अनुसार मानते हैं। कोई शिवजी को जल चढ़ाते हैं, कोई दूसरे देवी के मंदिर जा रहे हैं, कोई हनुमान जी पूजा कर रहा है। कोई सोमवार का व्रत रखता है तो कोई मंगलवार, बुधवार का। यहां तक कि एक ही परिवार में जितने लोग उतने उपासक। इसलिए धर्म और संस्कृति को समझना होगा। धारयते इति धर्म:। जो दहरण करने योग्य है वह धर्म है। धर्म का उद्देश्य है इह लौकिक और पारलौकिक उन्नति। महाभारत में लिखा है-
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
“धर्म” शब्द की उत्पत्ति संस्कतित भाषा में धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना, अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है, यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। वस्तुतः धर्म वह मानवीय गुण है, जो सर्व कल्याण के लिए किया जाने वाला व्यवहार है। यह व्यक्ति के कर्तव्य की बात करता है। पिता का परिवार का लालन पालन का कर्तव्य उनका धर्म है तो संतान का धर्म है माता पिता के आदेश का पालन करना। धर्म इस लोक मे अच्छी प्रकार से जीवन यापन करने और परलोक सुधारने के काम आने वाला व्यवहार है।
यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्म।
अर्थात जिस माध्यम से हमारा सर्वांगीण विकास हो और सभी प्रकार के दुःखों-कष्टों से मुक्ति मिले, उसी को धर्म कहते हैं। संघ की प्रार्थना में भी यह निःश्रेयस शब्द आया है-
समुत्कर्षनिःश्रेयसस्यैकमुग्रं, परं साधनं नाम वीरव्रतम्।
हम उत्कर्ष के लिए उग्रवीर बने जो आध्यात्मिक उन्नति और ऐहिक समृद्धि प्राप्त करने का एक मात्र साधन है। भारतीय दर्शन के मूल को समझने की चेष्टा करें तो यह बात पता चलती है कि आध्यात्मिक उन्नति और भौतिक समृद्धि सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की शिक्षा विद्या है और भौतिक मार्ग पर चलने वाली शिक्षा अविद्या है।
डॉ. मनमोहन वैद्य जी ने ग्रामीण क्षेत्रों में हमारे लोक संस्कारों में हिन्दू धर्म की बहुत सी मान्यताएं अब भी जीवित हैं। उन्होंने वनवासी क्षेत्र प्रवास के दौरान का एक अनुभव सुनाया। संभवतः झारखंड के किसी अंचल के किस्सा था। प्रवास के दौरान चलते चलते किसी स्थान पर पहुंचे। वहाँ पर एक छोटी सी चाय की दुकान थी। हम चार लोग चाय के लिए वहां पर रुक गए। दुकान में जो महिला थी उसे बताया चार चाय बनाइये। एक कप में सिर्फ चाय की पत्ती डाल कर उबालकर दे देना बाकी 3 कप चीनी और दूध डालकर बनाना। चाय बन गई। चारों ने चाय भी पी ली। जब पैसे देने की बारी आई तो उस महिला ने 3 कप के ही पैसे मांगे। जब उसे बताया कि चाय तो चार थी। इसलिए 4 कप के पैसे लो। तो उसने कहा वह चाय कहां थी। वह तो गर्म पानी मे चाय की पत्ती डालकर उबाल ली थी।उस चाय के कप को तैयार करने में मुझे कुछ अतितिक्त नही करना पड़ा, जिसमें चीनी और दूध तो था ही नही। इसलिए उसके पैसे नही लेंगे। ऐसा पैसा कमाकर हम पाप के भागी क्यों बने? यह है भारतीय सोच। शहरी समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ता रहता है, लेकिन ग्रामीण समाज सरकारों पर कमसे कम निर्भर रहता है। वास्तव में सही लोकतंत्र तो यही है। जिसे लोकतंत्र कहा जा रहा है वह संख्यातंत्र है।
भारत को समझने के लिए हमें भारत के उस दृष्टिकोण को समझने की आवश्यकता है- जो बसुधैवकुटुम्बकं की सोच रखता है, सर्व कल्याण की भावना रखता है, जो विविधताओं को स्वीकार करता है, समावेशी समाज का संस्कार रखता है, अनेकता में एकता के मूलमंत्र को समझता है। स्त्री-पुरुष में लैंगिक भेद नही करता, समानता का भाव, जो ईश्वर को चैतन्य रूप में चराचर में व्याप्त मानता है और कर्म बंधनो से मुक्त होने की चाह रखता है वह हिन्दू है। सा विद्या या विमुक्तये।