मंथन- पंचनद : विमर्श का सांगोपांग मंथन (11)
पंचनद के वैचारिक अभियान में युवावर्ग को अधिक से अधिक जोड़ें- जे.नंदकुमार जी
पार्थसारथि थपलियाल
15 जून को जब सुबह सुबह की परिवह पवनें चलने लगी थी। (परिवह, आठ प्रकार की पवनों में से एक)। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अतिथि गृह के पीछे मखमली दूब में स्वास्थ्य के प्रति सावधान प्रतिभागी अपने अपने आसान बिछाकर योगाचार्य महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग में वर्णित कुछ आसनों को आसानी से अभ्यास करने की मुद्रा में थे। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद गीता के दूसरे अध्याय में कहा है-
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थात हे धनंजय! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है। इसे दूसरी दृष्टि से देखें तो समभाव की दृष्टि उत्तम जीवन को संभव बना देती है। योगासन से मन और देह दोनों को सुख मिलता है। इसीलिए हमारे यहां कहावत है- पहला सुख निरोगी काया, दूजो सुख घर मे हो माया। तीजो सुख कुलवंती नारी, चौथो सुख सुत आज्ञाकारी….इस समभावयोग के आचार्य थे सोलन से पधारे वैद्य राजेश कपूर जी। वे सहजभाव से “योग: चित्तवृत्ति तं निरोध:” को परिभाषित कर रहे थे। प्रसन्नता की बात यह थी जीवन के 75वें वर्ष में चल रहे प्रोफेसर बृजकिशोर कुठियाला योग साधकों की अग्रिम पंक्ति में तो थे वे ही, योग में भी अग्रणीय थे। “योग युक्ति रोग मुक्ति” के साधारण आसनों का अभ्यास कराते, सीखते सिखाते एक घंटे का समय कब बीत गया, पता ही नही चला। मैं निजी कारणों से सह भागी नही बन सका अन्यथा अष्टांग योग के यम, नियम और आसान इन तीन अंगों से साक्षात होने का अवसर युवास्था में खूब मिला।
जलपान अल्पाहार के बाद सभागार में पहला ही सत्र शोध और स्वाध्याय की जानकारी से परिपूर्ण था। इस सत्र के आचार्य थे प्रोफेसर बृजकिशोर कुठियाला। शोध भी और स्वाध्याय भी उनके प्रिय विषय भी हैं और वे ज्ञान में निष्णात भी हैं। उनका संवाद पंचनद के संदर्भ में ही था। पंचनद के वे कार्यकर्ता उनके सामने थे जो पंचनद के निर्णयों को मूर्तरूप देते हैं। वेद में भी लिखा है- स्वाध्यायान्मा प्रमदः। स्वाध्याय के प्रति आलस न बरतें। श्रेष्ठ काम करने वालों को स्वाध्याय से बड़ी प्रेरणा और ऊर्जा मिलती है। सनातन संस्कृति में पारमार्थिक ज्ञान भरा हुआ है। प्रोफेसर कुठियाला इस सत्र में दो काम एक साथ कर रहे थे। अध्यक्ष रूप में प्रबंधन को प्रोत्साहित कर रहे थे और आचार्य रूप में व्यावहारिक ज्ञान बढ़ा रहे थे। उन्होंने विगत वर्ष के कई शोध कार्यों के लिए कार्यकर्ताओं के कार्य की सराहना की जहां कुछ कमी रह गई उन क्षेत्रों में उन्होंने संस्कृत की एक सूक्ति को चरितार्थ रूप में भावों से भर दिया। “यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोत्र दोष:। माननीय कुठियाला जी ने सभी को स्वाध्याय के लिए प्रेरित किया कि किस तरह अच्छी पुस्तकें हमें उत्तम और व्यवहारिक बनाने में एक संरक्षक और एक मित्र की भूमिका निभाती हैं। इस दौरान विभिन्न सदस्यों की जिज्ञासाएं संवाद रूप में हल होती रही।
पंचनद शोध संस्थान जिसके कार्य की प्रवृति समाज के साथ संवाद सेतु स्थापित करना है, इस मंथन शिविर में एक सत्र वैचारिक अभियान में पंचनद की भूमिका पर प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी का मार्ग दर्शन मिला। उनके उद्बोधन का सार यह था कि समाज मे बहुत सी समस्याएं इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि समाज मे दूरियां बढ़ रही हैं। यह समस्या आधुनिकता की देन है। इस दौर में हम यह पाते हैं कि आज का शिक्षित समाज संवाद से कतराने लगा है। जब आदमी आज की शिक्षा नही लिया था तब वह आपस मे बात करता था। एक दूसरे से मिलता था। इस प्रकार समाज एक दूसरे के सुख दुख में होता था। हमारे समस्त शास्त्र इस बात के अनुपम उदाहरण हैं कि पुराने समय में ज्ञान चर्चाएं होती थी। लोग एक दूसरे की कुशल क्षेम पूछते थे। जान पहचान न होते भी बात करने की पहल करते थे।। यह परंपरा धीरे धीरे कमजोर पड़ रही है। कोरोना काल हम सब की परीक्षा का समय रहा। लोगों ने स्वार्थवश अपने ही कोरोना पीड़ित परिजनों से दूरी बना ली। जब अपने लोग अपनों से ही कट रहे थे तब संघ के स्वमसेवकों ने अपनी जान को जोखिम में डालते हुए, बिना किसी लोभ या लाभ की कामना के जन सेवा की।
माननीय जे.नंदकुमार जी ने कहा पंचनद एक संवाद संस्था है इस संस्था को अपने वैचारिक कार्यक्रमों के साथ समाज को जोड़ना चाहिए। पंचनद की हर गोष्ठी या कार्यक्रम में कम से कम आधे लोग नए हों और युवा हों। युवावर्ग को पंचनद से जोड़ना आवश्यक है। इस प्रकार संवाद कार्य बढ़ेगा और संवादहीनता के कारण जो दूरियां दिखाई दे रही हैं उन दूरियों को मिटाने में हम सफल होंगे। इस काम को अवश्य करना चाहिए।