डॉ कविता”किरण”
नख़रे तमाम उनके उठा भी नहीं सकते
रूठे हुए सनम को मना भी नहीं सकते
जबरन किसी से रिश्ते निभा भी नहीं सकते
जबरन किसी को दिल से भुला भी नहीं सकते
ख्वाहिश की गिनतियों को घटा भी नहीं सकते
खुशियों के चंद्रमा को बढ़ा भी नहीं सकते
जो ज़ख्म खाये हैं वो दिखा भी नहीं सकते
जो दर्द दिल में है वो सुना भी नहीं सकते
इक राज़ ऐसा है जो छुपा भी नहीं सकते
इक राज़ ऐसा है जो बता भी नहीं सकते
इक आसमां है जिसको झुका भी नहीं सकते
इक है ज़मीं कि जिसको उठा भी नहीं सकते
आबादियों को दिल में बसा भी नहीं सकते
बर्बादियों से दिल को बचा भी नहीं सकते
तू है “किरण” कि तुझको बुझा भी नहीं सकते
तू है “किरण” कि तुझको जला भी नहीं सकते
डॉ कविता”किरण”