स्व का बोध: अपनेपन का आधार भारतीयता 

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पार्थसारथि थपलियाल

(14 सितंबर2022 को कांस्टीट्यूशन क्लब नई दिल्ली में “लोक परम्पराओं में स्व का बोध” पुस्तक का विमोचन एवं लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ। प्रस्तुत है स्व केंद्रित लोक परंपराओं पर बुद्धिशील वक्ताओं के चिंतन का सार)

परम्पराओं में भारत की संस्कृति और जीवन मूल्य हैं- श्रीकृष्णपाल गुर्जर

भारत सनातन और स्वतंत्र चेतना का देश है। तपस्वी ऋषियों को जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह वेदों में है। भारत शब्द का अर्थ है ज्ञान में लगा हुआ। विष्णुपुराण और पद्मपुराण में इस भू भाग का उल्लेख है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।

समुद्र से उत्तर की ओर और हिमालय से दक्षिण की ओर जो भू-भाग है वह भारत है। इसमें रहनेवाली संताने भारतीय हैं। भारतीय संविधान में नागरिक शब्द है। अतः सभी नागरिक इस धरती की संतानें हैं । अथर्ववेद में कहा गया है- “माता भूमि पुत्रोहम पृथिव्या”। यह पृथ्वी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। इसलिए यह धरती हम सब की माता है। भारत रैन बसेरा भी नही है कि काफिले बनते गए और हिंदुस्तान बसता गया। यह पवित्रभूमि है।

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था भारत कोई भूमि का टुकड़ा नही है यह एक जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। राष्ट्र के रूप की परिभाषा में कहा गया है- “अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम्”। राष्ट्र शब्द से आशय उस क्षेत्र विशेष से हैं जहां के निवासी एक संस्कृति विशेष में आबद्ध होते हैं | एक सुसमृद्ध राष्ट्र के लिए उस का स्वरुप निशित होना आवश्यक है।

कोई भी देश एक राष्ट्र तभी हो सकता है जब उसमें सभी को आत्मसात करने की शक्ति हो। वह चाहे किसी भी धर्म, जाति तथा प्रांत का हो। राष्ट्रीय एकता राष्ट्र का महत्वपूर्ण आधारतत्व है, जो नागरिकों में पारस्परिक सम्मान, प्रेम, सद्भाव, सहयोग, धर्म, निष्ठा कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता तथा बंधुत्व आदि गुणों का विकास करता है तथा धर्म तथा प्रांतीयता गौण हो जाती है इन गुणों के विकास से ही राष्ट्र स्वस्थ तथा शक्तिशाली होता है। यह हमारा अपनापन है, यही स्व है। यह स्व हमारी लोकपरंपराओं में है।

लोक परम्परराओं में स्व का बोध पुस्तक के लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि केंद्र सरकार में बिजली एवं भारी उद्योग राज्यमंत्री श्री कृष्णपाल गुर्जर को परम्पराओं के माध्यम से समाज को जोड़ने का यह विचार बहुत अच्छा लगा। उन्होंने कहा हमे गुलामी की बेड़ियों से बाहर निकलना है। भारत की गौरवशाली संस्कृति और परम्पराएं रही हैं, जिनमें भहरत के जीवन मूल्य और संस्कार दिखाई देते हैं। आधुनिकता ने उन्हें भुला दिया है।

माननीय प्रधानमंत्री जी का सपना है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव हमनें मनाया, लेकिन अगले 25 वर्षों (अमृतकाल) में हमें अपनी गौरवशाली परम्पराओं को खोजना है, उनसे समाज को जोड़ना है। हमारी प्राचीन सोच है, लोक विश्वास है। हम केवल इहलोक की ही नही परलोक की भी सोचते हैं। हम जैसा कर्म करेंगे वैसा फल पाएंगे। समाज में धन का प्रभाव बढ़ा और धर्म का प्रभाव घटा। हमने धर्म छोड़ा धर्म ने हमें छोड़ दिया। धर्म को मानने वाले कभी पापकर्म नही कर सकते। ऐसे लोगों को राजनीति में भी आना चाहिए। ऐसा न हुआ तो एक दिन अधर्मवाले सत्ता का हरण कर लेंगे। राजनीति पर धर्म का अंकुश रहेगा तो समाज में सुधार होगा।

उन्होंने याद दिलाया कि हमारी परंपरा थी कि रसोई में पकनेवाली पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी कुत्ते की होती थी। पीपल पर जल चढ़ाना, भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना, चींटी और मछली के लिए आटा देना, सर्प को दूध पिलाना जैसी परम्पराएं गायब हो रही हैं। सामाजिक सद्भाव भी घटता जा रहा है। भारत से गुलामी की निशानियाँ मिटाने के लिए समाज को आगे आना चाहिए। हाल ही में दिल्ली में राजपथ का नाम कर्तव्यपथ किया गया है। यह भारतीयता की ओर एक कदम है। हम स्वयं को पहचाने इसके लिए ज्ञान भारतीय परम्पराओं से मिलता है। हम परम्पराओं को बचाने के प्रयास करें।

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