संस्कृति : लोकमंथन (7)

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पार्थसारथि थपलियाल।
22 सितंबर 2022 को श्रीमंता शंकर देव कलाक्षेत्र के पांडाल में मुख्यवक्ता के रूप में “लोकपरम्परा” पर लोक कला मर्मज्ञ (पद्मश्री) डॉ. कपिल तिवारी के व्याख्यान के सार की दूसरी और समापन कड़ी…

….भारत में कुछ लोग हैं जो यहां की संस्कृति को पिछड़ी संस्कृति बताते हैं। ये, वे लोग हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति को न समझा और न जाना। अपनी ओर से कुछ नया करने की तो उनसे उम्मीद भी नही की जा सकती है। पश्चिमी सभ्यता में जो देखा उसे अपनाकर आधुनिक बताने में वे गौरव अनुभव करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने न शास्त्रों को पढ़ा और न लोक को जाना, लेकिन वे लोग बातें इस तरह करेंगे जैसे ये बहुत बड़े ज्ञाता हों। सच तो यह है कि वे संस्कृति की समझ भी ही नही रखते। वास्तविकता यह भी है कि भारत के लोक समाज मे अनपढ़ व्यक्ति भी ज्ञानवान होता है। लोक संस्कृति में पले बढ़े लोग जानते हैं, जो ज्ञान शास्त्रों में निहित है वही ज्ञान लोक परम्पराओं में व्यवहार रूप में है। लोक में पाप और पुण्य की अवधारणा बहुत साफ तौर पर व्याप्त है। लोक अच्छाई और बुराई के अंतर को समझता है। करणीय और अकरणीय के भेद को भारत का जनसामान्य, जिसे लोक कहते हैं, अच्छी तरह जानता है। वह जानता है कि बिना उद्यम के लक्ष्मी प्राप्त करना ठीक नही। यह भारत का लोक ज्ञान है।

भारत पर विदेशी आक्रांताओं ने बहुत अत्याचार किये। हर बर्बरता को इस देश ने झेला है। आतताइयों ने तलवार से सनातन संस्कृति को नष्ट करना चाहा। क्या वे ऐसा कर पाने में सफल हुए? कोई आक्रांता गर्दन काट लेगा लेकिन क्या वह लोक चेतना को नष्ट कर पायेगा? भारतीय संस्कृति को कोई इसलिए नष्ट नही कर पाया क्योंकि यह ज्ञानात्मक संस्कृति है। यह संस्कृति सर्वत्र व्याप्त है। इसे कोई नष्ट नही कर पाया। जो कुछ हानि हुई वह ऊपरी सतह पर खरोंच जैसी है। भारत विविधताओं का देश है। भौगोलिक विविधता, भाषाई विविधता, खान पान की विविधता और भी कई विविधताएं हैं, लेकिन चेतनात्मक सूत्र इन विविधताओं को एकात्मता के सूत्र में पिरोकर रखता है। ठीक उसी तरह जैसे विभिन्न फूलों की माला एक सूत्र में पिरोई जाती हैं।

भारतीय लोकजीवन में राज्य की उपस्थिति न के बराबर रही है। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में या जनजातीय लोगों के बीच जाकर कुछ दिन रहें तो आपको पता चल जाएगा कि उन्हें न पुलिस की आवश्यकता है न सैन्य बल की। उन्हें न जेल से मतलब है न बेल से। उनके जीवन की मर्यादाएं स्वयं स्थापित हैं वे उनका दृढ़ता से पालन करते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि जो समाज अपने शासन में है उसे विधि संहिताओं की जरूरत नही होती। ऋग्वेद में एक शब्द आया है ऋत। इसका अर्थ है अस्तित्व में समाहित, अस्तित्व को संचालित करनेवाला महानियम। इसे और कोई संचालित नही कर रहा है। हमनें भगवान राम को मर्यादा पुरूषोत्तम कहा। क्यों कहा? इसलिए कि राम जो राजा बननेवाले थे जंगल गए। वे राज्य के कानून को साथ नही ले गए। उनके साथ मर्यादा थी। उसी मर्यादा से वन में रहे, रावण से लड़े, अयोध्या आये, राजकाज संभाला सिर्फ मर्यादा के साथ। इसलिये वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये।

आप वनवासी समुदाय के साथ कुछ दिन रहिए, आपको ज्ञान हो जाएगा कि वे प्रकृति को कितना जानते हैं। उन्हें देखकर नागर समाज को समझ आ जायेगा कि आपाधापी का कोई बड़ा मतलब नही। सुखी जीवन जीना सीखिये। जीवन का आनंद कुछ और है, जिसे पाने के लिए नागर सभ्यता के लोग संघर्ष करते रहते हैं। जीवन छोटा सा है, उसे हार जीत में न लगाएं। धरती न तो जीतने के लिए है और न हारने के लिए। यह तो जीने के लिए है। जीतना है तो स्वयं को जीतो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि उनके पास समय नही बचता। सही बात तो यह है कि जीवन में समय का अभाव नही हुआ, मनुष्य की अनावश्यक व्यस्तताओं ने उसे उलझा दिया है। वह भटक गया है जीवन का सुख उससे छटक गया है। यही है लोकपरम्परा जो जीवन में खुशियों का मार्ग दिखाती हैं। एक बार लोकपरम्परा में जीना तो सीखो। भारतीय लोक परम्पराएं
सामूहिक कल्याणकारी हैं।

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