संस्कृति : लोकमंथन (11)- वंशावली लेखन की भारतीय परंपरा-1

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पार्थसारथि थपलियाल।
( हाल ही में 21 सितंबर से 24 सितंबर 2022 तक श्रीमंता शंकरदेव कलाक्षेत्र गोहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा तीसरे लोकमंथन का आयोजन किया गया। इस दौरान बहुत महत्वपूर्ण सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित की गई। प्रस्तुत है लोकमंथन की उल्लेखनीय गतिविधियों पर सारपूर्ण श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुति)

22 सितंबर को अपरान्ह के सत्र का विषय था लोक परम्परा और भारत में वंशावली लेखन का महत्व। इस सत्र में सत्र संचालिका थी डॉक्टर सुनीता रेड्डी, जो मानव शास्त्र में विशेषज्ञ हैं। वंशावली के पारंपरिक लेखक डॉ. सुखदेव राव जोधपुर से और श्री भंवर सिंह राव बाड़मेर से मंच पर शोभायमान थे।

डॉक्टर सुनीता रेड्डी
सत्र की संचालिका डॉक्टर सुनीता रेड्डी ने विषय की भूमिका रखी। उन्होंने बताया कि वंशावली का उल्लेख सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। वंशावली से आशय है एक परिवार के विस्तार के साथ वंश का उल्लेख करना। जैसे हम सूर्य वंश और चंद्र वंश के राजाओं के वंशजों के बारे में कुछ न कुछ अवश्य जानते हैं, उसी प्रकार अन्य लोगों की भी वंशावली लिखी जाती थी। वंशावली लिखने की परंपरा अनेक देशों में पाई जाती है।
इंसान की प्रवृति रही है कि वह अपनों के बारे में जिज्ञासा से कुछ जानना चाहता रहा है। वंशावली के माध्यम से हमें एक परिवार के विस्तार, गौरव, वैभव और संघर्ष की कहानी का पता चलता है। यहां तक कि आयुर्विज्ञान की दृष्टि से भी उस वंश के लोगों की पराक्रमी प्रवृत्ति, शारिरिक व्याधियों की वृत्ति का ज्ञान भी होता है। पुराने समय मे वंशावली लिखनेवाले कुछ लोग होते थे। आज डिजिटल जमाना है। वंशावली लिखना काफी सरल होगया है।

डॉक्टर सुखदेव राव
डॉ. सुखदेव राव जोधपुर में पारंपरिक वंशावली लेखक परिवार से हैं। विषय में प्रवेश करने से पहले वे प्रश्न करते हैं वंशावली क्या है? वंशावली क्यों लिखी जानी चाहिए? फिर स्वतः बताते हैं कि वंश अर्थात एक परिवार में वंशवृद्धि का विवरण। पीढ़ी दर पीढ़ी एक परिवार का विस्तार। वली का अर्थ है लता या बेल, अर्थात वंशबेल। राजस्थान में यह परंपरा है कि जब नई दुल्हन आती है तो वह बड़ी, बुजुर्ग महिलाओं को धोक देती है। (धोक देना- चरणस्पर्श करती है, पांव दबाती है, आशीर्वाद लेती है)। तब बड़ी बुजुर्ग महिलाएं आशीर्वाद देते हुए कहती हैं- दोब ज्यूं पसरो, बेल ज्यूं बढ़ो। अर्थात तुम डूब जैसी फैलो और बेल जैसी बढ़ो। इसमें वंशवृद्धि का ही आशीर्वाद है।

वंश की परंपरा ब्रह्मा जी से मानी जाती है। सनातन संस्कृति के अनुसार सभी लोग ब्रह्मा जी की संतानों की संतानें हैं। वंशावली के दो पक्ष हैं एक तो पति-पत्नी, जिनके कारण वंशवृद्धि हो रही है और दूसरा जो लोग वंशावली लिखते हैं राजस्थान में उन्हें राव जी, जागा जी, बरोट जी, भाट आदि जातियों के नाम से जानते हैं। जबकि अन्य प्रांतों में कुछ अलग अलग नामों से जानें जाते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति तक वंशावली लेखन सुचारू रूप से चल रहा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नाम पंजीकरण होने लगे। धीरे धीरे पिछले 75 वर्षों में वंशावली लेखन की परंपरा लगभग समाप्त सी हो गई है।

डॉ. सुखदेव राव बता रहे थे कि अब वंशावली लेखन की तरफ किसी का ध्यान नही है। पहले जब किसी की वंशावली लिखी जाती थी तो सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वृतांत शुरू होता, फिर ब्रह्मा जी से वंशावली शुरू होती। वंशावली के आरंभ में कोई न कोई मंगलाचरण लिखा जाता था। जैसे-
रिद्धि दे सिद्धि दे अष्ट नवनिधि दे
वंश मा वृध्दि दे वाक वाणी।
हृदय में ज्ञान दे चित्त में ध्यान दे
अभय वरदान दे, शंभु रानी।
दुःख को दूर कर सुखभरपूर कर
आस सम्पूर्ण कर दास जानी
सज्जन को हित दे कुटुंब को प्रीतिं दे
जग मा जीत दे श्री भवानी।।

इस प्रकार से राव, भाट आदि वंशावली लेखकों के वे घर नियत होते थे जिनकी वे वंशावली लिखते थे। इस व्यवस्था को यजमानी कहते थे। वे लोग समय समय पर अपनी यजमानी में जाकर वंशावली की पोथी की पूजा कर खुलवाते थे। कोई नाम जोड़ना हो तो उसे बही में लिख दिया जाता था। बही का वाचन किया जाता था। उस बैठक में जो प्रतिष्ठित व्यक्ति होता प्रमाण के तौर पर उसके हस्ताक्षर करवाये जाते थे। इन वंशावली लेखकों की परवरिश यजमानी से हो जाती थी।

वंशावली लेखन का पारंपरिक तरीका यही है। हस्मरे देश मे अनेक तीर्थ स्थानों पर तीर्थ पुरोहित भी वंशावली निर्माण का काम करते हैं। जैसे बदरीनाथ के पंडे, हरिद्वार के पंडे, प्रयागराज के पंडे, सोरों के पंडे, बनारस के पंडे, गया के पंडे आदि। तीर्थ पुरोहितों की बहियों में अधिकतर उन लोगों का ही विवरण मिलता है जो अपने तीर्थ पुरोहितों के पास जाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण परंपरा थी जो समाज द्वारा संचालित थी, अब अर्थहीन बनती जा रही है।

क्रमशः श्री भंवर सिंह राव..12

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