संस्कृति : लोकमंथन (6)

भारत में ज्ञान का विपुल भंडार है। ज्ञान को खोजने की आवश्यकता नही है। सत्य को जानने के लिए ज्ञान की अंतर्यात्रा जरूरी है- (पद्मश्री) डॉ. कपिल तिवारी

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पार्थसारथि थपलियाल।
( हाल ही में 21 सितंबर से 24 सितंबर 2022 तक श्रीमंता शंकरदेव कलाक्षेत्र गोहाटी में प्रज्ञा प्रवाह द्वारा तीसरे लोकमंथन का आयोजन किया गया। इस दौरान बहुत महत्वपूर्ण सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित की गई। प्रस्तुत है लोकमंथन की उल्लेखनीय गतिविधियों पर सारपूर्ण श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुति)

लोकमंथन के दूसरे दिन उद्घाटन सत्र के बाद लोकपरंपराओं के मर्मज्ञ डॉ. कपिल तिवारी लोक परंपरा विषय पर मुख्यवक्ता के रूप में वक्ता मंच (Podium) पर शोभायमान थे। उन्होंने अपने आरंभिक वक्तव्य में कहा कि परंपरा एक विराट पद है। एक ऐसा पद जिसमें ज्ञान की परंपरा है, साधना की परंपरा है, एक धर्म की परंपरा है, एक संस्कृति की परंपरा है, सौंदर्यबोध की परंपरा, कौशल परंपरा, उद्यम परंपरा, जीवन परंपरा, शब्द रचना की परंपरा आदि आदि…

परंपरा को समझने के लिए हमारे सामने दो उपयुक्त उदाहरण हैं। एक वृक्ष है और दूसरी नदी। सूक्ष्म बीज से विराट वृक्ष होना एक परंपरा है। बीज का अंकुरण होना, पनपना, पौधा होना, पेड़ होना, विशाल वृक्ष होना, छायावान होना, फलवान होना, झुकना, पकना और लोगों के काम आना। यही तो मानव जीवन की भी सार्थक परंपरा है। दूसरा उदाहरण नदी का है। नदी तभी नदी है जब वह प्रवाहमान (बहती) है। प्रवाहमान नदी बहते बहते स्वयम को स्वच्छ करती रहती है। नदी का यह संस्कार अनुकरणीय है। नदी यदि प्रवाहमान नही है तो वह तालाब बन जाएगी। तालाब स्वयम को स्वच्छ नही कर पाता। गतिमान नदी का पानी रुकता नही है। आप किसी नदी में उसी पानी से दो बार स्नान नही कर सकते हैं। जिस पानी मे अभी डुबकी लगाए थे वह जा चुका, बह चुका होता है। जीवन मे परम्पराएं इसी तरह हैं। हर पीढ़ी के सामने हर बार एक नई चुनौती आती है। चुनौती यह कि वह परंपरा निभाये या आधुनिकता को स्वीकार करे। उन्हने बताया कि एक पत्रकार ने जब उनसे पूछा कि क्या सनातन संस्कृति आधुनिक युवावर्ग के लिए प्रासांगिक रह गई है? डॉ. तिवारी ने बताया कि मैंने प्रतिप्रश्न किया कि क्या आधुनिक युवा सनातन संस्कृति के लिए प्रासांगिक रहा भी या नही? पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर हमनें नया क्या किया? जिसे आधुनिक बता रहे हैं उसमें अपना आधुनिक क्या है? अपनी ही परम्पराओं में कुछ नव सृजन हो तो उसे आधुनिकता कहा जा सकता है। इस नए समाज को सनातन मूल्यों से अवगत कराएं जाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है अपनी आवाज़ों को सुनना सीखें। कानों से सम्यक श्रवण शुरू करें। नेत्रों से सम्यक जीवन को देखना शुरू करें। वाक दर्शन और वाक परंपरा को समझें। बात करने से सरलता बनी रहती है। यह सरलता हमारी जटिलताओं को तोड़ती है, अहंकार को तोड़ती है। सभी लोग समान धरातल पर हों तो सामाजिक समरसता भी स्थापित होती है। बात करने और विमर्श करने में अंतर होता है। विमर्श किसी विषय को लेकर एक गहन चिंतन को आगे बढ़ाता है। विमर्श परम्परा से प्रतिभा का विकास होता है। प्रतिभा में निरंतरता होनी चाहिए। प्रतिभा जब रुकती है तब वहाँ एक सत्ता बन जाती है यदि प्रतिभा सत्याभिमुख होती है तो वहां से प्रज्ञा पट खुलते हैं। ठहरी हुई प्रतिभा जिस भी क्षेत्र में हो वह सत्ता बन जाती है। क्षेत्र राजनीति का हो, साहित्य के हो, पत्रकारिता का हो, साधना का हो, विज्ञान का हो, कोई भी हो। रुकी हुई प्रतिभा शक्ति बन जाती है। प्रतिभा जब प्रज्ञा की ओर बढ़ती है तब जो ज्ञान दिखाई देता है वह सनातन है।

लोक और folk समानार्थी नही हैं। लोक एक वाक केंद्रित परंपरा है। भारत कि चेतना में लोक का विस्तार है। यह विस्तार षडमातृकाओं (माताओं) में है। भारतीय परम्पराओं को समझने के लिए इन छः मातृकाओं को जानना जरूरी है। ये हैं- पहली मातृका – धरती, दूसरी मातृका- प्रकृति, तीसरी मातृका- नदी, चौथी मातृका- स्त्री, जिसनें जन्म दिया, पांचवी मातृका- गाय माता और छठी माता- मातृभाषा। ये छः माताएं हैं जिनमें भारत का लोक विस्तारित है और भारत की परम्पराएं विस्तारित हैं।

इस व्याख्यान के सार का शेष भाग कल…..

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