अवधेश प्रताप सिंह।
जो ज़हर बोया उसे ख़ुद ही भुगतना होता है। मोहम्मद साहब के गुजर जाने के तीन महीने में ही उनकी बेटी फातिमा की घर में घुसकर निर्मम हत्या कर दी गई थी।
उनके दामाद अली को रमजान में नमाज पढ़ते हुए मारा गया। बड़े नवासे को जहर दिया गया और छोटे नवासे को कर्बाला के मैदान में तीन दिन तक भूख और प्यास से तड़पाने के बाद शहीद कर दिया गया।
जैनब मोहम्मद साहब की नवासी थी जो जंजीरों में कैद नए खलिफा यजीद के सामने खड़ी थी।
कमाल की बात ये थी जब ये सब हो रहा था उस समय ना अमेरिका बना था, ना इजरायल था, ना हथियार बेचने वाली कंपनियाँ थी और जो ये सब कर रहे थे वो भी कोई गैर नहीं थे।
ये जौहर करती औरतें, तबाह होते विजननगर और देवगिरी, लाशों की बेकद्री, कटे हुए सिरों के पिरामिड ये सब तो भारत में बाद में आया।
इस मानसिकता का सबसे पहला पीड़ित मोहम्मद साहब का परिवार ही बना।
उधर कर्बाला के मैदान में 70 का सामना हजारों से था,
इधर चमकौर के युद्ध में 40 का 10000 से।
उधर मोहम्मद साहब का परिवार था, इधर गुरू गोविंद सिंह का।
उधर शहीद हुसैन का कटा शीश उनकी चार साल की बेटी को खाने की थाल में सजा कर दिया गया,
इधर दारा का कटा शीश शाहजहां को खाने की थाल में दिया गया।
उधर जैनब यजीद से अपने भाईयों का कटा हुआ शीश माँग रही थी ताकि उनका मातम मनाया जा सके,
इधर सोनीपत का कुशाल सिंह दहिया गुरू तेगबहादुर के शीश को ससम्मान वापस आनंदपुर साहिब भेजने के लिए अपना सिर काटकर मुगल सेना को सौंप रहे थे।
उधर शहीद हुसैन की छोटी बेटी को तड़पाया गया,
इधर गुरू गोविंद सिंह के छोटे बच्चों को जिंदा दीवार में चिना गया।
उधर जैनब को कुफा (इराक) से दमास्कस ले जाया गया,
इधर बंदा वीर बैरागी को जोकर बनाकर हाथी में लादकर लाहौर से दिल्ली लाया गया– जहाँ उनके मुँह में उनके तीन साल के बच्चे का माँस डाला गया।
उधर कर्बला शहीदों के शवों की बेकद्री की गई,
इधर गुरू गोविंद सिंह के बच्चों को दाह संस्कार के लिए जमीन सोने के सिक्के लगाकर बेची गई।
जो जहालत 7वीं शताब्दी में अरब में थी…
वो 17वी शताब्दी में भारत में भी साफ दिख रही थी।
फिर भी यजीद तो शैतान था और औरंगजेब जिंदा पीर