प्रशांत पोळ।
रविवार, दिनांक 17 अगस्त 2017. गणेशोत्सव का तीसरा दिन है. स्पेन के सुदूर दक्षिणी भाग में, मोरक्को की सीमा के पास, अफ्रीका महाद्वीप में, स्पेन का एक स्वशासी (ऑटोनोमस) शहर है, जिसका नाम है ‘क्यूटा’ (Ceuta). इस शहर में कुछ सिंधी भाषी हिन्दुओं ने गणेश विसर्जन हेतु एक विशाल शोभायात्रा निकाली, जिसमें कई स्थानीय स्पेनिश हिन्दू भी शामिल हुए. क्यूटा शहर के मुख्य चर्च (अवर लेडी ऑफ़ अफ्रीका केथेड्रल) में चर्च के प्रमुख पादरी ‘विकार जनरल फादर जुआन मेतीओस कैस्ट्रो’ ने गणेशोत्सव शोभायात्रा के लिए चर्च का द्वार खोल दिया. शोभायात्रा को चर्च के भीतर ले जाया गया. विसर्जन यात्रा में सभी स्थानीय लोग ही थे, परन्तु सभी भारत प्रेमी थे. इन लोगों ने चर्च में कुछ क्षण आराम किया एवं उसके बाद विसर्जन हेतु आगे बढे.
हालांकि इस घटना के पश्चात चर्च के फादर को अपने इस कृत्य की भारी कीमत चुकानी पडी. उस क्षेत्र की ईसाई डायोसिस ने तत्काल प्रभाव से उस फादर को निलंबित कर दिया. अलबत्ता स्थानीय सामान्य जनता ने फादर का समर्थन किया एवं फादर ने भी सार्वजनिक रूप से कहा कि ‘हिन्दू देवता के सम्मान में ऐसी छोटी-मोटी अनुमति देने में कोई गलती नहीं है’.
स्पेन एवं मोरक्को, अर्थात यूरोप एवं अफ्रीका को आपस में जोड़ने वाला यह क्षेत्र उपेक्षित ही है. परन्तु पिछले कुछ वर्षों से पर्यटन के कारण अत्यंत समृद्ध हुआ हैं. यहां के स्थानीय लोगों के मन में हिंदुत्व एवं हिन्दू जीवनशैली के प्रति जबरदस्त आकर्षण निर्मित हुआ है.
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पश्चिम अफ्रीका का एक देश है ‘घाना’. इस गरीब देश की जनसंख्या लगभग सवा तीन करोड़ की है. इस जनसंख्या में सत्तर प्रतिशत ईसाई एवं लगभग बीस प्रतिशत मुस्लिम धर्म को मानने वाले रहते हैं. इस गरीब देश में ‘कुमासी’ नामक महानगर के पास एक विशाल एवं भव्य हिन्दू मंदिर है. लगभग दो हजार श्रद्धालु प्रति सप्ताह इस मंदिर में दर्शन हेतु आते हैं. मजे की बात यह है कि इनमें से एक भी भारतीय नहीं है. संभवतः इन श्रद्धालुओं में से किसी ने भारत कभी देखा भी नहीं है. ये सभी लोग स्थानीय अफ्रीकन लोग हैं. इस मंदिर में होने वाली सभी धार्मिक गतिविधियों में इन अफ्रीकन-हिंदुओं का सक्रिय सहयोग रहता है.
यह अकेला ऐसा मंदिर नहीं है. देश के दक्षिणी भाग में समुद्र किनारे पर ‘आक्रा’ नामक राजधानी में भी एक विशाल हिन्दू मंदिर है. यह मंदिर भी स्थानीय अफ्रीकन हिन्दुओं का ही है. घाना देश में इस प्रकार के छः विशाल मंदिर हैं, जिनकी व्यवस्था एवं प्रबंधन अफ्रीकन हिन्दूओं के हाथ में है.
यह सारा चमत्कार, मूलतः अफ्रीकन, स्वामी घानानंद सरस्वती ने दिखाया है. हिन्दू धर्म के प्रति आकर्षण के कारण वे भारत आए थे. यहां ऋषिकेश में उनकी भेंट स्वामी कृष्णानंद सरस्वती से हुई. इस भेंट के पश्चात इन दोनों में एक आध्यात्मिक संबंध निर्माण हुआ. स्वामी घानानंद सरस्वती को यह नाम एवं दीक्षा यहीं पर प्राप्त हुई. स्वामी घानानंद, अपने देश घाना वापस लौटे एवं उन्होंने हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार का काम आरम्भ किया. 2016 में उनकी मृत्यु के पश्चात हिंदुत्व के प्रसार की सम्पूर्ण जिम्मेदारी स्थानीय अफ्रीकन हिन्दू, स्वामी सत्यानन्द जी ने अपने कन्धों पर उठा ली और स्वामी घानानंद के कार्यों को पूरे जोश के साथ आगे बढ़ाया. 28 मई 2019को स्वामी सत्यानन्द की भी मृत्यु हो गयी. अभी वर्तमान में ब्रह्मचारी आदिमाता इन मंदिरों की प्रमुख हैं.
वर्तमान में घाना में साढ़े सात लाख हिन्दू रहते हैं. इनमें से लगभग साठ-सत्तर हजार लोग स्थानीय अफ्रीकन हिन्दू हैं. दिनोदिन इनकी संख्या बढ़ती जा रही है. तमाम अफ्रीकन लोग, ईसाई एवं इस्लाम धर्म छोड़कर हिन्दू जीवन पद्धति अंगीकार करते हुए हिन्दू बन रहे हैं. इन्हें हिंदुत्व के माध्यम से स्वयं के अस्तित्त्व की पहचान हो रही है.
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पारंपरिक रूप से इंडोनेशिया एक हिन्दू राष्ट्र था. इंडोनेशिया का राष्ट्रीय वाक्य है, ‘भिन्नेका तुगल इका’ (अर्थात विभिन्नता में ही एकता है). ‘बहासा (भाषा) इंडोनेशिया’ में संस्कृत शब्दों की भरमार है. अनेक संस्कृत शब्द, अनेक मंदिर, अनेक हिन्दू परंपराओं को गर्व के साथ जतन करने वाला यह देश हैं. किन्तु अपनी हिन्दू विरासत को मानने वाला इंडोनेशिया, मुस्लिम धर्म अपनाने वाला देश बन चुका है. विश्व की सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या वाला देश इंडोनेशिया ही है.
ऐसे इंडोनेशिया में ‘राष्ट्रपुरुष’ के रूप में माने जाने वाले सुकर्णो की लड़की, सुकुमावती सुकर्णोपुत्री ने 26 अक्टूबर 2021 को हिन्दू धर्म में प्रवेश किया. हिन्दू धर्म में प्रवेश करने संबंधी समारोह बाली प्रांत स्थित सुकर्णो हेरिटेज सेंटर में ‘बाले अगुंग सिंगराजा बुलेलेंग रीजेंसी’ नामक स्थान पर संपन्न हुआ. इंडोनेशिया में इस कार्यक्रम को ‘सुधी वादानी’ (शुद्धि विधान) कहते हैं. हिन्दू धर्म में प्रवेश करने के उपरान्त सुकुमावती ने नारायण मंत्र एवं गायत्री मंत्र का पाठ किया.
सुकुमावती सुकर्णोपुत्री की पहचान मात्र सुकर्णो की ‘तीसरी कन्या’ इतनी ही नहीं है, वरन यह इंडोनेशिया की राजनीति का एक जबरदस्त नाम है. ‘इंडोनेशियाई नेशनल पार्टी’ की वे संस्थापिका हैं. विश्व में सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या का (एक प्रांत को छोड़कर) देश होने के बावजूद यह एक कट्टर इस्लामिक देश नहीं है. यहां पर अभी भी अनेक प्राचीन हिन्दू परम्पराओं का पालन किया जाता है. यहां तक कि मुस्लिम लोग भी इन प्रथाओं एवं परम्पराओं का पालन करते हैं. ऐसे वातावरण में सुकुमावती सुकर्णोपुत्री ने अपने जीवन के सत्तर वर्ष बिताए. ऐसे में प्रश्न उठता है कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में उनकी इच्छा, हिन्दू धर्म में प्रवेश करने संबंधी क्यों हुई होगी? उन्हीं के द्वारा जारी वक्तव्य के अनुसार संभवतः उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि भले ही उनका जन्म मुसलमान के रूप में हुआ है, परन्तु उनकी मृत्यु एक हिन्दू के रूप में होनी चाहिए…!
हिन्दू धर्म के प्रति ऐसी ‘आत्मिक जागृति’ प्राप्त करने वाले सुकुमावती अकेली नहीं हैं. उनके साथ ही इंडोनेशिया के अट्ठाईस हजार लोगों ने उन्हीं से प्रेरणा लेते हुए हिन्दू धर्म में प्रवेश किया.
पिछले कुछ वर्षों में इंडोनेशिया में हिन्दू धर्म का ऐसा प्रवाह आरम्भ हुआ है. अनेक मुस्लिम हैं, जिनकी जीवन पद्धति हिन्दू जीवन शैली के समान है, फिर भी उनकी यह तीव्र इच्छा है कि वे हिन्दू बनें. मात्र पांच वर्ष पूर्व अर्थात १७ जुलाई २०१७ के दिन जावा प्रांत की राजकुमारी ‘कान्जेंग रादेन आयु महिंद्रानी कुस्विदयाथी परमसी” ने भी एक भव्य ‘सुधा वदानी’ में अपने हजारों अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म में प्रवेश किया था. हिन्दू धर्म में प्रवेश करने संबंधी यह समारोह बाली के एक विशाल मंदिर में संपन्न किया गया.
कुल मिलाकर बात ये है कि धीरे – धीरे ही सही, परन्तु इंडोनेशिया के मुस्लिमों को अपनी मूल जड़ों की पहचान होने लगी है तथा वे हिन्दू धर्म में प्रवेश कर रहे हैं, अथवा हिन्दू बनने की मानसिकता में आ चुके हैं. मजे की बात यह है कि हिन्दू धर्म के किसी बड़े संत, प्रचारक अथवा संस्था के कारण इंडोनेशिया के ऐसे दिग्गज लोग हिन्दू धर्म की तरफ आकर्षित नहीं हुए हैं, वरन इन मुस्लिमों को स्वतः ही अपने हिन्दू धर्म की मूल जड़ों की पहचान होने लगी है. इस कारण भले ही आरंभ में यह परिवर्तन धीमी गति से हो रहा हो, परन्तु अब मुस्लिमों का हिन्दू धर्म की ओर प्रवाह बढ़ता ही जा रहा है.
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यूरोप के उत्तर दिशा में एक छोटा सा बाल्टिक देश है, लातविया. रूस के विघटन होने के बाद जो अनेक छोटे – छोटे देश स्वतंत्र हुए, यह उन्हीं में से एक है. मात्र उन्नीस लाख जनसंख्या वाला यह देश काफी ठीक – ठाक स्थिति में है. इस देश की राजधानी का नाम है ‘रिगा’. पूरे देश की एक तिहाई जनसंख्या इस महानगर में बसती है. इस रिगा शहर में एक बहुत बड़ी यूनिवर्सिटी है, ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ लातविया’. इस विश्वविद्यालय में इंडोलोजी (भारत शास्त्र), अथवा ‘स्टडीज़ ऑफ़ इंडिक नॉलेज’ के नाम से एक अलग से विभाग है. इस विभाग का नाम है, UL International Institute of Indic Studies. इस विभाग के अध्यक्ष हैं डॉक्टर वाल्दिस पिराग्स.
भारत के प्रति गहरी आस्था रखने वाले डॉ पिराग्स से बातचीत करते समय यह अनुभव हुआ कि विश्वविद्यालय में इनके विभाग की भारी मांग है. विद्यार्थी यहां पर प्रतीक्षा सूची में होते हैं, क्योंकि सामान्य लोगों में भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रति जबरदस्त आकर्षण है. इसीलिए भारत की संस्कृति, इतिहास संबंधी विभिन्न विषय वहां पर पढ़ाए जाते हैं. अन्य बाल्टिक देशों से भी कई विद्यार्थी ‘भारतीय ज्ञान परंपरा’ के बारे में पढने के लिए लातविया की इस यूनिवर्सिटी में आते हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लातविया कोई अपवाद नहीं है. समूचे विश्व में, लगभग प्रत्येक देश में भारतीय ज्ञान परंपरा (Indic Studies अथवा Indology) का अध्ययन करने के लिए बड़ी संख्या में विद्यार्थियों की रूचि है. हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में ELTE यह विश्वविद्यालय, चार सेमिस्टर में इंडोलोजी विषय में M.A. की डिग्री प्रदान करता है. यह डिग्री प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों की संख्या अत्यधिक होने से उनका चुनाव परीक्षा के माध्यम से करना पड़ता है. मात्र जर्मनी में ही लगभग 14 ऐसे महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालय हैं, जिनकी 27 इंस्टीट्यूट्स में भारतीय ज्ञान परंपरा, संस्कृत इत्यादि विषयों की पढ़ाई कराई जाती है. यहां तक कि विद्यार्थी इन विषयों में डाक्टरेट भी कर सकते हैं.
विगत आठ-दस वर्षों में जर्मनी के विद्यार्थियों में संस्कृत भाषा के प्रति जबरदस्त आकर्षण निर्माण हुआ है. इच्छुक विद्यार्थियों की संख्या तेजी से बढ़ने के कारण जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ़ हाईडलबर्ग ने सन 2015 से गर्मियों की छुट्टियों में स्विट्जरलैंड, इटली एवं भारत में भी संस्कृत भाषा के ‘समर स्कूल’ प्रारंभ कर दिए हैं. (अर्थात यह ‘समर’, यूरोप का समर होता हैं.) इंग्लैण्ड, कैनेडा, अमेरिका एवं अनेक यूरोपियन स्कूलों में संस्कृत भाषा का अध्ययन कराया जा रहा है. लन्दन शहर के मध्यवर्ती भाग में स्थित सेंट जेम्स प्रेपेरेटरी स्कूल में पिछले अनेक वर्षों से संस्कृत भाषा एक अनिवार्य विषय है. मजे की बात यह कि संस्कृत भाषा में शिक्षा, इस स्कूल का USP (यूनिक सेलिंग पॉइंट) है. अनेक ब्रिटिश माता-पिता अपने बच्चों को पढने इस स्कूल में भेजते हैं, क्योंकि यहां पर संस्कृत भाषा सिखाई जाती है. दिनांक 13अगस्त 2022 को सैन फ्रांसिस्को शहर में लगभग डेढ़ हजार लोगों ने एक साथ सम्पूर्ण भगवद्गीता का सामूहिक पाठ करके गिनीज़ बुक में विश्व रिकार्ड स्थापित किया. इसमें अधिकतम बच्चे अमेरिकन मूल के थे. इसके मात्र तीन दिनों के पश्चात डलास में २००० बच्चों ने भी सामूहिक गीता का पाठ करके उनका यह गिनीज़ रिकॉर्ड तोड़ दिया.
यह सब कुछ जबरदस्त हैं. अदभुत है. अमेरिका, यूरोप, लैटिन अमेरिका, जापान, चीन… सभी देशों में भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रति आकर्षण तेजी से बढ़ा है. इन सभी गतिविधियों के माध्यम से हिन्दू धर्म, संस्कृत भाषा, हिन्दू जीवनशैली का दर्शन विश्व में तेजी से फ़ैल रहा है. इससे हिंदुत्व की सही पहचान भी विश्व को हो रही है.
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वास्तव में देखा जाए तो, विश्व के सामने हिंदुत्व की पहचान इन चार प्रमुख माध्यमों से हो रही है –
1. योग
2. आयुर्वेद
3. भारतीय भोजन
4. भारतीय फ़िल्में
उपरोक्त चारों बातें, भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ को दर्शाती हैं. इसके अलावा विभिन्न देशों के कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में जारी भारतीय ज्ञान परंपरा एवं संस्कृत भाषा के पाठ्यक्रम, ढेरों विद्यार्थियों के मनोमस्तिष्क में हिन्दू धर्म के प्रति आकर्षण निर्माण कर रहे हैं. इटली, जर्मनी, फ्रांस, हौलेंड इत्यादि देशों के सभी बड़े शहरों में लगभग प्रत्येक मोहल्ले में योग केंद्र मौजूद हैं. लैटिन अमेरिकी देशों (जैसे अर्जेंटीना, मैक्सिको, चिली, पेरू, ब्राजील इत्यादि) में छोटे छोटे गाँवों में भी हमें योग केंद्र देखने को मिल जाते हैं. कोरोना महामारी के पश्चात योग एवं आयुर्वेद ने विदेशों में अपनी मजबूत जड़े जमाई है.
यह सारा दृश्य अत्यंत सुखद है. हजार, दो हजार वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व में भारत का बोलबाला था. विश्व भर से हजारों विद्यार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण करने आया करते थे. भारतीय व्यापारियों की नावें एवं जहाज, विश्व के कोने-कोने में प्रवास करते थे. सम्पूर्ण विश्व के व्यापार का एक तिहाई हिस्सा अकेले भारत का ही था.
इस बीच में कई वर्ष बीत गए. भारत पर इस्लामिक और अंगरेजी आक्रान्ताओं के हमले हुए, जिस कारण समूची व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी. हम हिन्दू स्वयं ही अपनी मूल पहचान भूल गए थे. एक जमाने में सर्वाधिक धनवान एवं संपन्न भारत देश, अन्य देशों के समक्ष सहायता के लिए याचना करने लगा.
परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इन परिस्थितियों में परिवर्तन दिखाई देने लगा है. भारतीय मूल्यों, परम्पराओं, संस्कृति के प्रति आकर्षण विश्व में बढ़ता ही जा रहा है. हमें भी अपने ‘हिन्दू’ होने की पहचान समझ में आने लगी है. संभवतः इसी कारण, शेष विश्व को ‘हिंदुत्व’ की पहचान होने लगी है. अगले पच्चीस वर्षों में बहुत कुछ बदलने जा रहा है. जब हमारा देश स्वतंत्रता के सौ वर्ष पूर्ण कर रहा होगा, तब विश्व को सच्चे अर्थों में हिंदुत्व की पहचान हो चुकी होगी, यह निश्चित है….!
– प्रशांत पोळ