“रासबिहारी होते हुए भी श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी कहलाए, इसका मर्म क्या है?”

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 20नवंबर। रास को समझने के लिए पहली जरूरत तो यह समझना है कि सारा जीवन ही रास है। जैसा मैंने कहा, सारा जीवन विरोधी शक्तियों का सम्मिलन है। और जीवन का सारा सुख विरोधी के मिलन में छिपा है। जीवन का सारा आनंद और रहस्य विरोधी के मिलन में छिपा है। तो पहले तो रास का जो “मेटाफिजिकल’, जो जागतिक अर्थ है, वह समझ लेना उचित है; फिर कृष्ण के जीवन में उसकी अनुछाया  है, वह समझनी चाहिए।

चारों तरफ आंखें उठाएं तो रास के अतिरिक्त और क्या हो रहा है? आकाश में दौड़ते हुए बादल हों, सागर की तरफ दौड़ती हुई  सरिताएं हों, बीज फूलों की यात्रा कर रहे हों, या भंवरे गीत गाते हों, या पक्षी चहचहाते हों, या मनुष्य प्रेम करता हो, या ऋण और धन विद्युत आपस में आकर्षित होती हों, या स्त्री और पुरुष की निरंतर लीला और प्रेम की कथा चलती हो, इस पूरे फैले हुए विराट को अगर हम देखें तो रास के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो रहा है।

रास बहुत “कॉस्मिक’  अर्थ रखता है। इसके बड़े विराट जागतिक अर्थ हैं। पहला तो यही कि इस जगत के विनियोग में, इसके निर्माण में, इसके सृजन में जो मूल आधार है, वह विरोधी शक्तियों के मिलन का आधार है। एक मकान हम बनाते हैं, एक द्वार हम बनाते हैं, तो द्वार में उल्टी  ईंटें लगाकर “आर्च’ बन जाता है। एक-दूसरे के खिलाफ ईंटें लगा देते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ लगी ईंटें पूरे भवन को सम्हाल लेती हैं। हम चाहें तो एक-सी ईंटें लगा सकते हैं। तब द्वार नहीं बनेगा, और भवन तो उठेगा नहीं। शक्ति जब दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है, तो खेल शुरू हो जाता है। शक्ति का दो हिस्सों में विभाजित हो जाना ही जीवन की समस्त पर्तों पर, समस्त पहलुओं पर खेल की शुरुआत है। शक्ति एक हो जाती है, खेल बंद हो जाता है। शक्ति एक हो जाती है तो प्रलय हो जाती है। शक्ति दो में बंट जाती है तो सृजन हो जाता है।

रास का जो अर्थ है, वह सृष्टि की जो धारा है, उस धारा का ही गहरे-से-गहरा सूचक है। जीवन दो विरोधियों के बीच खेल है। ये विरोधी लड़ भी सकते हैं, तब युद्ध हो जाता है। ये दो विरोधी मिल भी सकते हैं, तब प्रेम हो जाता है। लेकिन लड़ना हो कि मिलना हो, दो की अनिवार्यता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है। कृष्ण के रास का क्या अर्थ होगा इस संदर्भ में?

इतना ही नहीं है काफी कि हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं। यह हमारी बहुत स्थूल आंखें जो देख सकती हैं, उतना ही दिखाई पड़ रहा है। लेकिन कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा-सा नाटक है, उस विराट का एक आणविक प्रतिबिंब है। वह जो समस्त में चल रहा है नृत्य, उसकी एक बहुत छोटी-सी झलक है। इस झलक के कारण ही यह संभव हो पाया कि उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। उस रास का कोई “सेक्सुअल मीनिंग’ नहीं है। ऐसा नहीं है कि “सेक्सुअल मीनिंग’ के लिए, कामुक अर्थ के लिए कोई निषेध है। लेकिन बहुत पीछे छूट गई वह बात। कृष्ण कृष्ण की तरह वहां नहीं नाचते, कृष्ण वहां पुरुष तत्व की तरह ही नाचते हैं। गोपिकाएं स्त्रियों की तरह वहां नहीं नाचती हैं, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं। प्रकृति और पुरुष का नृत्य है वह।

तो जिन लोगों ने उसे कामुक अर्थ में ही समझा है, उन्होंने नहीं समझा है, वे नहीं समझ पाएंगे। वहां अगर हम ठीक से समझें तो पुरुष शक्ति और स्त्री शक्ति का नृत्य चल रहा है। वहां व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है। “इंडिवीजुअल्स” को कोई मतलब नहीं है। इसलिए यह भी संभव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सकता। अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नाच नहीं सकता है। एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ एक-साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है। और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहा है। प्रत्येक गोपी को अपना कृष्ण मिल सका। और कृष्ण जैसे हजार में बंट गए। और हजार गोपियों हैं तो हजार कृष्ण हो गए।

निश्चित ही, इसे हम व्यक्तिवाची मानेंगे तो कठिनाई में पड़ेंगे। विराट प्रकृति और विराट पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य है। नृत्य को ही क्यों चुना होगा इस अभिव्यक्ति के लिए? जैसा मैंने सुबह कहा, नृत्य निकटतम है अद्वैत के। निकटतम अद्वैत के है। नृत्य निकटतम है उत्सव के। नृत्य निकटतम है रहस्य के।
कृष्ण स्मृति

ओशो

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.