किशोर कुमार।
बीसवीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती क्या फिर भौतिक शरीर धारण कर चुके हैं? यानी, उनका पुनर्जन्म हो चुका है? हम कैसे पहचानेंगे उन्हें? इस तरह के न जाने कितने ही सवाल उस महान संत के अनुयायियों के जेहन में अक्सर कौंधते रहते हैं। और ऐसा अकारण ही नहीं है। जन्मशताब्दी वर्ष पर इसी आलोक में प्रस्तुत है यह आलेख।
कोई तेरह साल पहले 5 दिसंबर 2009 को महासमाधि लेने से पहले स्वामी जी स्वयं भक्तों से कहते थे कि रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा में हूं। मिलते ही चला जाऊंगा। फिर भावुक होते आयुयायियों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए मजाक करते और पूछते, मैं नया शरीर धारण करके आऊंगा तो कैसे पहचानोगे? जबाव में कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। स्वामी जी सबकी बातें सुनते और मुस्कुराते रहते। पर देखते-देखते महाप्रस्थान का दिन आ ही गया। स्वामी जी ने आसन ग्रहण किया और शिष्यों से कहा, रिटर्न टिकट मिल चुका है, मैं चला….और भौतिक शरीर को त्याग दिया था।
भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में विज्ञान के आलोक में योग का अलख जगाने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने समाधि न ली होती तो आज से कोई तीन दिन बाद ही शिष्यगण अपने प्रिय गुरू की उपस्थिति में उनकी 100वीं जयंती मनाते। उनका जन्म मौजूदा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में सन् 1923 की मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस साल यह तिथि 8 दिसंबर को है। यानी महासमाधि दिवस और जयंती के बीच का अंतराल मात्र तीन दिन।
आध्यात्मिक साधना के आलोक में तर्क करने पर मन में सहज सवाल उठेगा कि संन्यासी की अंतिम इच्छा तो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना होता है। फिर परमहंस जी महासमाधि के लिए रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा क्यों करते रहे? जबाव पहले से मौजूद है। परमहंस जी ने महाप्रयाण से पहले ही कहा था, योग का उत्तम ज्ञान बताना प्रथम उत्तम दान है। इससे अज्ञान मिटता है और क्लेष दूर होते हैं। रोगी को दवा-दारू देना द्वितीय उत्तम दान है और भूखे को भोजन देना तृतीय उत्तम दान है। सभी इस महान कर्तव्य का पालन करें, इसके लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। मेरे हिस्से का काम शेष रह गया है। इसलिए रिटर्न टिकट लेकर जा रहा हूं। आऊंगा जरूर।
किस रूप में आएंगे? परमहंस जी कहते, मेरी इच्छा होगी कि एक ऐसी स्त्री के गर्भ से जन्म लूं, जो तथाकथित छोटी जाति की हो। उस परिवार में जन्म लेकर अपने माता-पिता को उपदेश दूंगा। साथ ही मजदूरों और मेहतरो को भी, जो मेरे आसपास होंगे। ताकि वे भी अच्छे संस्कारों को आत्मसात् कर सकें। यही है बोधिसत्व। बोधिसत्व के रूप में भगवान बुद्ध ने अनेक जन्मों में अवतार लिया, पशु के घर, भिक्षुओं के परिवार में, साहूकारो और राजा के घर। उन्होंने सभी जगह धर्म की शिक्षा दी। साधुओं और महात्माओं का यही आदर्श होना चाहिए। संत नामदेव वंचितों की तरह जीते रहे और अमर हो गए।
परमहंस जी अपने अनुयायियों से कहते, तुमलोग भी चाहते हो कि इस शरीर को छोड़ने के बाद फिर से नया शरीर धारण करूं। पर यह तय है कि तुम्हारा बेटा बनकर पैदा हुआ तो बड़ी समस्या खड़ी होगी। इसलिए कि तुमलोग भौतिक सुख चाहते हो और मैं कहूंगा, नहीं मां, मैं मात्र एक लंगोटी पहनूंगा। मैं गीता-रामायण और श्रीमद्भागवतम् की शिक्षा दूंगा। जीवन जीने की कला सिखाऊंगा और अन्य कौशल भी, जिनकी जीवन में आवश्यकता है। जैसे, मवेशियों की देखभाल कैसे की जाए, खेती कैसे की जाए, गन्ने कैसे उगाए जाएं, बैंक खाते में सावधि जमा कैसे करें। आदि आदि। इसलिए भगवान से कहना कि प्रभु, ऐसा बालक दो जो घर में योग भी लाए और भोग भी। योग का मतलब ऊंचे विचार, ज्ञान का विचार, भगवान का विचार और भोग का मतलब है लड़का-लड़की, धन-दौलत आदि। हर काम देश-काल को ध्यान में रखकर होना चाहिए। इस युग में योग और भोग दोनों जरूरी है।
परमहंस जी के गुरू और बीसवीं सदी के महानतम संत ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जब कहा था, जाओ सत्यानंद, योग का प्रचार करो, तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती बड़ी उलझन में पड़ गए थे। “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास” वाली कहावत चरितार्थ होती प्रतीत होने लगी थी। वे तो संन्यास मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते थे। इसलिए योग का न तो प्रशिक्षण लिया था और न ही उसमें कोई रूचि थी। उलझन इसी बात से थी। गुरू तो सिद्ध संत थे। उन्हें अपने शिष्य के मन की उलझन समझते देर न लगी थी। इसलिए पास बुलाया और सिर पर हाथ रखा। शक्तिपात हो गया। फिर एक रूपए आठ आने दिए औऱ फिर दोहराया, जाओ, योग का प्रचार करो। तुम जिस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो, उसके लिए अभी बीस साल प्रतीक्षा करनी होगी। तब तक समय का सदुपयोग करो।
परमहंस जी परकाया प्रवेश विद्या में सिद्धहस्त थे। वे अनुयायियों से पूछते थे, यह शरीर किसका है? फिर इसका उत्तर भी देते थे। कहते, यह स्वामी सत्यानंद का शरीर है। मैंने (आत्मा) ने इस शरीर को किराए पर लिया है। अपने आध्यात्मिक तत्व को बांटने के लिए। जब तक हूं, इस शरीर में वास कर रहा हूं। पर मैं इस शरीर को छोड़ भी सकता हूं। तुम मुझे स्वामी सत्यानंद के रूप में जानते हो। किन्तु यथार्थ में मैं स्वामी सत्यानंद नहीं भी हो सकता हूं। बीस वर्षों तक, एक सिद्ध आत्मा ने, जिसका मैंने आह्वान किया था, इस शरीर में निवास किया। जब मैं अठारह वर्षों का था तो एक तांत्रिक योगिनी से मिला था। उन्होंने ही मुझे अन्य चीजों के अलावा आवाह्न विज्ञान की शिक्षा दी थी। यह शिक्षा तांत्रिक पद्धति का एक अंग है। वे जानती थीं कि मुझे आवाह्न विज्ञान की शिक्षा इसलिए जरूरी है, ताकि मैं इस आत्मा का आवाह्न अपने गुरू के आदेश की पूर्ति के लिए कर सकूं।
उस विद्या से मिली अलौकिक शक्ति का ही प्रतिफल है कि कई दशकों से बिहार योग या सत्यानंद योग की खुशबू सुगंधित पुष्प की तरह सर्वत्र फैल रही है। जाहिर है कि परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने गुरू के मिशन को बखूबी पूरा किया। बीस वर्षों के भीतर न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में योग और उसकी वैज्ञानिकता पर उल्लेखनीय कार्य करके अपने द्वारा बिहार के एक छोटे-से शहर मुंगेर में गंगा के तट पर स्थापित बिहार योग विद्यालय को दुनिया के मानचित्र पर ला खड़ा कर दिया। फिर तो दुनिया के अनेक देशों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” को कहना पड़ा कि भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय का स्थान प्रथम है।
जब संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने का उचित समय आया तो परमहंस जी सन् 1989 में मुंगेर को सदा के लिए छोड़कर दैव कृपा से झारखंड के देवघर जिले के रिखिया गांव में धुनी रमाने पहुंच गए थे। वहां उन्होंने सेवा, प्रेम और दान को अपने आध्यात्मिक जीवन का आधार बनाया था। वे कहते थे कि सेवा आध्यात्मिक जीवन का पहला, प्रेम दूसरा और दान तीसरा पाठ है। इसके बाद ही आत्म-शुद्धि, ध्यान और ईश्वर-साक्षात्कार का नंबर आता है।
दुनिया भर में योग-अध्यात्म को मिल रही गति और भक्तियुग के आने के संकेतों से अनुयायियो को भरोसा होने लगा है कि परमहंस जी का अवतरण हो चुका है। इसलिए कि रिखिया में उन्हें ऐसी ही दुनिया की झलक मिल रही थी। उन्हें ऐसे ही जगत के निर्माण में अपने हिस्से का काम करने के लिए नवजीवन चाहिए था। परमहंस जी किस रूप में आए या आएंगे, थोड़ी देर के लिए इन बातों को छोड़ भी दें, तो यह निर्विवाद है कि उनकी शिक्षाएं मानव जीवन के उत्थान में उत्प्रेरक का काम कर रही है, करती रहेगी। आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक संत को उनकी जन्मशती पर सादर नमन।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)