* कुमार राकेश
महाराज युधिष्ठिर जुए के शर्तों के अनुसार हारने पर बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास पर द्रोपदी और अन्य भाइयों के साथ, निकल पड़े। इधर राजा धृतराष्ट्र को निरंतर विचलित और दुःखी देखकर संजय ने कारण पूछा; धृतराष्ट्र ने कहा– “पांडवों से वैर मोल ले लेने पर मैं निश्चिंत रह ही कैसे सकता हूं ?
संजय बोला –“आप सच कह रहे हैं! प्रारब्ध लाठी लेकर किसी का सिर थोड़े ही फोड़ता हैं। जिसे दंड देना होता हैं उसका विवेक हर लेता हैं। आपके बेटों की यही बात हैं। उन्होंने द्रौपदी का अपमान किया और अपने ही हाथों अपने सर्वनाश का गड्ढा खोद लिया।”
धृतराष्ट्र ने पश्चाताप के साथ कहा–“विदुर ने जो सलाह
दी थी वह धर्म और राजनीति के अनुकूल थी। किंतु मैंने उसे ठुकरा दिया और अपने नासमझ बेटे की बात मान ली। हमें धोखा हो गया।”.विदुर की बुद्धिमत्ता का धृतराष्ट्र पर भारी प्रभाव था। परंतु विदुर के बार-बार इस आग्रह से कि वे पांडवों के साथ संधि कर लें और उनका छीना हुआ राज्य उन्हें वापस लौटा दें, धृतराष्ट्र चिढ़ उठे।
एक दिन फिर यही बात निकलने पर धृतराष्ट्र झुंझलाकर बोले–“विदुर! तुम हमेशा पांडवों की तरफदारी करते हो। मालूम होता हैं, तुम हमारा भला नहीं चाहते। मैं दुर्योधन का साथ कैसे छोड़ दूं ? वह मेरा बेटा हैं। तुम पर से मेरा विश्वास उठ गया हैं, मुझे अब तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं। अगर चाहो तो तुम भी, पांडवों के पास चले जाओ।” विदुर ने मन ही मन कहा– अब इस वंश का सर्वनाश निश्चित हैं। उन्होंने रथ जुड़वाया और वन में पांडवों के पास चले गए।
इधर विदुर के जाने से धृतराष्ट्र असहाय और चिंतित हो उठे। उन्होंने संजय को उन्हें मना लाने के लिए भेजा। संजय, वन में जाकर देखते हैं कि पांडवों के आश्रम में विदुर भी ऋषियों के संग धर्म-चर्चा में लीन हैं। उन्होंने धृतराष्ट्र के पछतावे का जिक्र किया और कहा– यदि वे वापस नहीं लौटेंगे तो महाराज अपने प्राण छोड़ देंगे। विदुर, हस्तिनापुर वापस चले आए।
इसी कालखंड में एक बार ‘महर्षि मैत्रेय’ धृतराष्ट्र के दरबार में पधारे। राजा ने उनका समुचित आदर सत्कार किया। फिर ऋषि से हाथ जोड़कर पूछा– “भगवन! आपने वन में मेरे प्यारे पुत्र, वीर पांडवों को तो देखा होगा। वे कुशल से तो हैं! क्या वे वन ही में रहना चाहते हैं ? हमारे कुल में आपसी मित्र-भाव कहीं कम तो नहीं हो जाएगा ? आप मेरी शंका का समाधान करने की कृपा करें।”
महर्षि मैत्रेय ने कहा–“राजन! काम्यक वन में संयोग से युधिष्ठिर से मेरी भेंट हो गई थी। वन में दूसरे ऋषि मुनि भी उनसे मिलने उनके आश्रम में आए थे। हस्तिनापुर में जो कुछ घटा उसे उन्होंने मुझे विस्तार से बताया हैं और उसी कारण मैं यहां आया हूं।” इस अवसर पर दुर्योधन भी सभा में मौजूद था।
मुनि ने उसकी ओर देखकर कहा–“राजकुमार, तुम्हारी भलाई के लिए कहता हूं , सुनो! पांडवों को धोखा देने का विचार छोड़ दो। वे बड़े वीर हैं। महाराजा कृष्ण और द्रुपद उनके रिश्तेदार हैं। उनसे वैर मोल न लो। उनके साथ संधि कर लो। इसी में तुम्हारी भलाई है।”
ऋषि की बातों को अनसुना करते हुए जिद्दी और नासमझ दुर्योधन ने उनकी ओर देखा तक नहीं। कुछ बोला भी नहीं बल्कि अपनी जांघ पर हाथ ठोंकता और पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदता, वह मुस्कुराता हुआ खड़ा रहा।
दुर्योधन की इस ढिठाई को देखकर महर्षि बड़े क्रोधित हुए और कहा–“दुर्योधन, तुम इतने अभिमानी हो कि जो तुम्हारा भला चाहते हैं उनकी बातों पर ध्यान न देकर गरूर में जांघ ठोक रहे हो। याद रखो! अपने घमंड का फल तुम अवश्य पाओगे। लड़ाई के मैदान में भीमसेन की गदा से तुम्हारी यह जांघ टूटेगी और इसी से तुम्हारी मृत्यु होगी।”
धृतराष्ट्र ने फौरन उठकर मुनि के पांव पकड़ लिए और विनय की–“महर्षि शाप न दें। कृपा करें।”
मुनि ने कहा– “राजन! यदि दुर्योधन पांडवों से संधि कर लेगा तो मेरे शाप का प्रभाव नहीं होगा। वरना वह होकर ही रहेगा।”
महाभारत तो हिंदुस्तान की एक प्राचीन कथा हैं परंतु मनोवृत्तियाँ आज भी वही हैं।
क्रोध और घृणा की ज्वाला से आज भी वैश्विक मानव समाज उसी प्रकार ग्रस्त और त्रस्त हैं।