ललिता सहस्त्रनाम

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आनन्द कुमार
ब्रम्हांड पुराण में भगवान हयग्रीव और अगस्त्य मुनि की बातचीत का एक सन्दर्भ है जहाँ ललिता सहस्त्रनाम आता है |

पहला नाम श्री माता है क्योंकि वो जगत की माता मानी जाती हैं | अब हज़ार नाम में तो कई सुन्दर नाम आते हैं, फिर ये भी ध्यान देने लायक है की आगे पीछे वाले दोनों नामों को जोड़े में पढ़े तभी तात्पर्य समझ में आता है |

ऐसे में मेरा ध्यान दो नामों पर गया | एक है “अंतर्मुखा समाराध्या” और अगला नाम है “बहिर्मुखशु दुर्लभा” | पहले का मतलब है “जो अंतर्मन में, एकांत में अपने अन्दर पूजी जातीं हैं” और अगला ही नाम बताता है की उनकी पूजा का सार्वजनिक प्रदर्शन उन्हें आपके लिए अनुपलब्ध कर देता है |

सादगी में भी श्रृंगार है तो पूजा में दिखावा जरा कम रखें |

लेकिन भारतवासी show off न करे तो कैसे चलेगा ? उसके लिए ऐसा करते हैं हम बुध को मंगल पे चलेंगे !!

इसका hidden benefit भी है वहां का साल 600+ दिन का होता है तो वो जो अभी कुछ साल से 25 पे अटकी हैं वो अचानक से 16 की हो जाएँगी !! क्रन्तिकारी आईडिया है भाई !! बहुत क्रन्तिकारी !! फिर दुनियाँ भी हमें देखेगी हम भी दुनियाँ को देखेंगे…

हे क… क… क… क… किरण! चलिए फिल्म तो आपने आसानी से पहचान ही ली होगी कि ये “डर” नाम की फिल्म है जो 1993 में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म में शाहरुख खलनायक की भूमिका में था। सिर्फ किस्मत की बात थी कि उसे ये फिल्म मिल गयी। जो शाहरुख़ की राहुल वाली भूमिका थी वो पहले संजय दत्त को मिलने वाली थी। उसे जेल हो गयी तो इस भूमिका के लिए सुदेश बेरी को लेने की कोशिश की गयी, मगर वो स्क्रीन टेस्ट में रिजेक्ट कर दिए गए। फिर अजय देवगन से पूछा गया और दूसरी फिल्मों के काम के कारण उसने भी भूमिका नहीं स्वीकारी।

इसके बाद आमिर खान को ये रोल दिया गया। फिल्मों में अपने हिसाब से बदलाव करवाकर डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को परेशान करने के लिए कुख्यात आमिर खान को पहले तो ये शिकायत थी की ये राहुल का किरदार भला नायक वाले किरदार से इतना पिटेगा क्यों? खलनायक घूंसे खाता है, नायक कम पिटता है ये पता नहीं उसे क्यों नहीं सूझा। खैर, इसके बाद उसे फिल्म में दिव्या भारती को लिए जाने से भी दिक्कत थी। फिल्मों में रोल मिलने में भाई-भतीजावाद कैसे काम करता है, इसपर अब सुशांत सिंह के जाने के बाद चर्चा खुलकर होने लगी है। उस दौर में दिव्या के बदले बाद में जूही चावला को ले लिया गया था।

नायिका भी एक बार में नहीं चुनी गयी थी। यश चोपड़ा नायिका के रूप में श्रीदेवी को लेना चाहते थे। अगर “डर” में जूही के कपड़े और लहजा वगैरह देखेंगे तो चांदनी/लम्हे की श्रीदेवी तुरंत याद आ जाएगी। श्रीदेवी पागल प्रेमिका बनना चाहती थीं, और चोपड़ा राहुल का किरदार बदलना नहीं चाहते थे। इसलिए ये भूमिका पहले दिव्या भारती और फिर जूही के पास गयी। जो भूमिका सनी देओल ने निभाई थी, वो पहले ऋषि कपूर और जैकी श्राफ को दी गयी, उन्होंने जब इंकार कर दिया तो महाभारत में कृष्ण की भूमिका निभाने वाले नितीश भारद्वाज को लेने की कोशिश की गयी। सबके इनकार करने के बाद ये भूमिका सनी देओल को मिली थी।

फिल्म की कहानी तो खैर सबको मालूम ही है। आम भारतीय मनिसिकता के विरुद्ध ये फिल्म “प्यार में सब जायज है” को सही साबित करने की कोशिश करती है। इसका खलनायक राहुल अपने ही कॉलेज में पढ़ने वाली किरण से एकतरफा मुहब्बत करता है। वो जैसे तैसे हर वक्त किरण के करीब पहुँचने की कोशिश करता रहता है। किरण उसे घास भी नहीं डालती और एक नौसेना अधिकारी सुनील से शादी कर लेती है। राहुल फिर भी पीछा नहीं छोड़ता और सुनील की हत्या करके जबरन किरण को पाने की कोशिश करता है। अंततः नायक खलनायक की आमने-सामने की लड़ाई होती है और खलनायक मारा जाता है। नायक-नायिका हंसी-ख़ुशी घर लौट आते हैं।

थोड़ा गौर करेंगे तो पायेंगे कि इस फिल्म से पहले के दौर तक एकतरफा प्रेम प्रसंग में लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंक देने जैसे वाकये आम नहीं थे। जबरन किसी लड़की के पीछे पड़े रहना बिलकुल निकृष्ट कोटि की हरकत मानी जाती थी। जो लोग 90 के दशक में युवा होंगे वो बता देंगे कि ऐसी हरकतें करने पर मित्र इत्यादि भी साथ नहीं देते थे। व्यक्ति समाज से बहिष्कृत हो जाता था। जैसे कई अपराधी हत्या-लूट आदि की योजना किसी फिल्म से प्रेरित होकर बनाते हैं वैसे ही इस दौर में “डर” जैसी फिल्मों का भी असर हुआ। अंग्रेजी की “केप फियर” और “स्लीपिंग विथ द एनिमी” जैसी फिल्मों से प्रेरित इन फिल्मों का असर समाज अब भी झेल रहा है।

अब जैसा कि हमारी आदतों से वाकिफ अधिकांश लोग जानते ही हैं हम “डर” जैसी फिल्मों के “एंटी-हीरो” को महिमंडित करने वाली फिल्म की कहानी तो सुना नहीं रहे होंगे। हमारी रूचि बस ये याद दिला देने में थी, कि ऐसे खलनायकों को दुराचारी और निकृष्ट ही बताये जाने की परंपरा कहाँ रही है। इस बार धोखे से हमने “ललिता सहस्त्रनाम” के कुछ हिस्से सुना डाले हैं। जैसे उत्तरी भारत में “दुर्गा सप्तशती” के पाठ की परंपरा है, वैसे ही भारत के कई हिस्सों में “ललिता सहस्त्रनाम” का पाठ किया जाता है। जैसे “दुर्गा सप्तशती” मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है, वैसे ही “ललिता सहस्त्रनाम” ब्रह्माण्ड पुराण का हिस्सा है। भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार इसे अगस्त्यमुनि को सुनाते हैं और माना जाता है कि तमिलनाडु के थिरुमीयाचूर मंदिर वो जगह है जहाँ इसे सुनाया गया था।

ललिता सहस्त्रनाम कितना महत्वपूर्ण है ये अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि श्री औरोबिन्दो की “सावित्री” के पहले भाग का पूरा एक अध्याय (तीसरा) देवी के ललिता सहस्त्रनाम से काफी मिलता जुलता है। दूसरे तरीके से देखें तो किसी भी प्रयास में कैसी बाधाएं आती हैं, वो भी नजर आता है। जैसे असुरों में से एक देवी की सेना को आलस्य के वशीभूत कर रहा होता है। एक दूसरा सबकुछ अंधकार से ढक देता है। किसी भी बड़े काम को करते समय चलो थोड़ी देर और सो लें का आलस्य भी होता है। फिर आधा काम होते होते लगता है कि अब और हो ही नहीं सकता, कोई रास्ता ना सूझे ऐसा भी होता है।

बाकी तकनीक के मामले में कोई चीज कैसे बनी है, या काम कर रही है, ये समझने के लिए तोड़-फोड़ यानि “रिवर्स इंजीनियरिंग” इस्तेमाल करते हैं। फिल्मों और दूसरे माध्यमों से अगर कोई “नेगेटिव” चीज़ें सिखाई जा रही हों, तो उसे दोबारा उल्टा करके, दो नेगेटिव से एक पॉजिटिव बनाना चाहिए। इतनी “कलात्मक अभिव्यक्ति” की स्वतंत्रता तो सबको है ही!
✍🏻आनन्द कुमार

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