कमलेश कमल
★ आइए, इन शब्दों के व्युत्पत्तिगत अर्थ को देखते हैं। शायद इनके अर्थ-परक विभेद इस प्रक्रिया में ही स्पष्ट हो जाएँ।
★ अभिवादन के लिए नमन, नमस्ते, नमामि, नमस्कार, प्रणाम आदि अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं। इन सभी शब्दों में एक तथ्य समान है– सबके मूल में झुकना ही है। लेकिन पहले ‘अभिवादन’ शब्द को देख लेते हैं।
★ ‘अभि+वादन = अभिवादन’। ‘अभि’ संस्कृत का उपसर्ग है, जिसका अर्थ– अच्छा, सामने आदि है। ‘वादन’ का अर्थ है– ‘बोलना’। ‘वादन’ शब्द ‘वद्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ ही है– बोलना। ऐसे, ‘अभिवादन’ शब्द की निर्मिति है: [अभिवादन= अभि+वद्+घञ्, ल्युट् वा]। ‘अभि’ का अर्थ अच्छा और ‘वादन’ का अर्थ बोलना को जोड़कर ‘अभिवादन’ शब्द का मूल अर्थ है– ‘अच्छा बोलना’ अथवा ‘अच्छी वाणी’ बोलना है। अभिवादन करने वाले को ‘अभिवादक’ कहते हैं। अस्तु, अभिवादन का क्षेत्र बहुत बड़ा है। ससम्मान नमस्कार, छोटों के द्वारा बड़ों को प्रणाम, राम-राम, सुप्रभात, जय हिंद, नमस्ते आदि सभी ‘अभिवादन’ हैं। हाँ, इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि आप सामने वाले के सम्मान में झुकें, उसको नमस्ते, नमस्कार, अथवा प्रणाम कहें। आइए नमस्ते, नमस्कार और प्रणाम शब्दों को समझते हैं–
★’नमस्ते’ शब्द ‘नमः+ते’ से बना है। ‘नमः’ शब्द ‘नम्’ से बना है, जो संस्कृत की धातु है और जिसका अर्थ है– ‘झुकना’। ‘ते’ का अर्थ है– ‘तुम्हारे लिए’। इस तरह, ‘नमस्ते’ का शाब्दिक अर्थ हुआ– ‘तुम्हारे लिए झुकता हूँ।’
★ संस्कृत में ‘नम्’ से ‘नम’ बना और ‘नम’ (झुकने) की प्रक्रिया को ‘नमन’ कहा गया। इस पर ध्यान दें कि अधिसंख्य संस्कृतियों में झुकना, अभिवादन करने का पर्याय है। अस्तु, नमन के प्रत्युत्तर में ‘प्रतिनमन’ (नमन के बदले नमन) शब्द का प्रयोग उचित है–अगर दोनों समान वय के हों तो। छोटे को आशीष दिया जाना चाहिए।
★ हमने देखा कि झुकना के लिए ‘नम्’ धातु है। यही कालांतर में अभिवादन के लिए नमन, प्रणाम, नमस्ते आदि शब्दों के रूप में ढल गए। आपने पढ़ा अथवा सुना होगा: श्री दुर्गायै नमः, श्री सरस्वत्यै नमः, श्री गुरवे नमः आदि। ऐसे शब्दों में जो ‘नमः’ शब्द है, वह प्रणाम, झुकना अभिवादन करना आदि अभिव्यंजित करता है।
★’नमस्ते’ का सारांश हुआ– ‘झुक कर प्रणाम करना’। इसकी एक मुद्रा होती है, जिसमें पीठ आगे की ओर कुछ झुकी हुई, छाती के मध्य में दोनों हाथ आपस में जुड़े हुए और उँगलियाँ आकाशोन्मुखी रहती हैं। जहाँ हम दोनों हाथ जोड़कर रखते हैं, वह हृदय के क़रीब है। तो, कहीं-न-कहीं इससे अभिव्यंजित होता है कि मैं हृदय से आपके लिए झुक रहा हूँ। शरीर कम भी झुके, हृदय झुकना चाहिए। हाँ, कुछ लोग ‘नमस्ते’ को ‘नमः+अस्ते’ समझते हैं, जो कदापि उचित नहीं है।
★ अब ‘नमस्कार’ शब्द को देख लेते हैं: ‘नमस्कार’ शब्द नमस्ते से अधिक आध्यात्मिक हो न हो; परंतु भाषा-विज्ञान के अनुसार अधिक बलवान् शब्द है क्योंकि इसमें कार/कार्य/क्रिया का स्पष्ट बोधन है।
★’नम्’ धातु से निर्मित ‘नमस्'(नम्+असुन्) अभिवादन है, प्रणाम और पूजा का वाचक है। जब आप ‘नम्’ से ‘नम’ और ‘नम्र’ होते हैं, तो ‘नमत’ हो जाते हैं अर्थात् ‘झुकते’ हैं। ऐसे में दुनिया आपको ‘विनीत’ कहती है।
★’नमस्कार’ का अर्थ ‘‘झुकने की क्रिया’’। नमस्ते– आपके लिए झुकता हूँ। ध्यान दें कि ‘‘आपको नमस्ते करता हूँ’’ नहीं कह सकते हैं; लेकिन ‘’आपको नमस्कार करता हूँ’’ कह सकते हैं। [नमः+कार = नमस्कार]। ‘नमः’ का अर्थ झुकना और ‘कार’ का अर्थ कार्य। वैदिक परंपरा में कहा जाता है कि ‘नमस्कार’ में आकाश तत्त्व का आवाहन भी है। ऐसे ‘नमस्कार’ कई तरह के होते हैं: ‘सामान्य नमस्कार’ जिसमें केवल नमस्कार बोल दिया जाता है, पद नमस्कार (चरण स्पर्श), भावपूर्ण नमस्कार, साष्टांग नमस्कार आदि।
★ध्यान दें कि जो ‘नमस्कार’ के योग्य हों, आदरणीय हों, उन्हें ‘नमस्य'(नमस्+यत्) कहा जाता है, जबकि जिसे नमस्कार किया गया हो(चाहे योग्य हो अथवा न हो), उसे ‘नमसित'(नमस्य+क्त) कहा जाता है। ‘नमसित’ व्यक्ति ‘नमस्य’ हो, यह आवश्यक नहीं है और ठीक इसी तरह कोई ‘नमस्य’ सदा ‘नमसित’ हों, यह आवश्यक नहीं है।
★ ‘प्रणाम’ शब्द बना है– ‘नम्’ धातु में ‘प्र’ उपसर्ग जोड़कर। प्र+नम्+घञ् =प्रणाम। ‘प्र’ का अर्थ विशेष होता है। नम् धातु का अर्थ है– झुकना, इसलिए प्रणाम का अर्थ हुआ– ‘विशेष’ रूप से झुकना’। इसका अर्थ है कि जब हम प्रणाम कर रह होते हैं, तो यह नमस्ते की तरह केवल झुकना नहीं है, वरन् विशेष रूप से झुकना है। ध्यान दें कि ‘प्रणत'(प्र+नम्+क्त) का अर्थ है– ‘झुका हुआ’।
★’नम्’ धातु की बात करें, तो ‘नम्’ से ही नम्र शब्द बना है। नम्र का अर्थ मुलायम भी है। नम्र वह है, जो आसानी से झुक जाए। नम्र से शब्द बना नम्रता। अगर कोई विशेष रूप से नम्र है, तो वह विनम्र कहलाएगा, क्योंकि ‘वि’ उपसर्ग विशेषताबोधक है। विनम्र के लिए polite, humble आदि शब्द हैं।
★’नम’ से क्रिया बनती है– नमना, नवाँना आदि। हम ईश्वर, गुरु आदि के सामने शीष नवाते हैं।
★ भाषा के अध्येता यह जानते हैं कि शब्दों की व्युत्पत्ति भले ही क्षेत्र विशेष पर भी निर्भर करती है, विशिष्ट भावों के लिए प्रत्येक भाषा में जो शब्द हैं, उनमें कुछ साम्य रहता ही है।
★ नमाज पढ़ने के लिए मुसलमान ‘सिजदा’ करते हैं। सिजदा भी अरबी ज़बान में ‘सज्द’ से बना है। सज्द- सजदा-सिजदा। बहरहाल, सिजदा के मूल में भी झुकना ही है। अतः, हम देखते हैं कि झुकना अभिवादन का एक सामान्य शिष्टाचार है। यह दिखाता है कि व्यक्ति लोचदार है, वह विनम्र है।
★’नम्र’ धातु से ‘नम्र’ शब्द का बनना और इसी से ‘नम्रता’ शब्द की व्युत्पत्ति को समझते समय धातु, क्रिया, विशेषण और भाववाचक संज्ञा आदि पर विशेष बल न देते हुए, मूल और साम्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
★’प्रणाम’ शब्द में ‘विशेष रूप से झुकना’ अर्थ की व्यंजना देख लेने के पश्चात् इससे जुड़े कुछ अन्य शब्दों को भी देख लेना समीचीन होगा:
★’प्रणामी’ शब्द का अर्थ है– ‘प्रणाम करने वाला’। प्रणामी का दूसरा अर्थ है– दान अथवा दक्षिणा जो बड़ों को प्रणाम करते समय, हम उनके चरणों पर आदरपूर्वक चढ़ाते हैं अथवा अर्पित करते हैं।
★ मंदिरों में दानपात्र पर ‘प्रणामी’ लिखा रहता है, क्योंकि वह हम मानसिक रूप से ईश्वर के चरणों पर अर्पित करते हैं।
★ ‘प्रणायक’ शब्द का अर्थ मार्गदर्शक अथवा पथ-प्रदर्शक होता है; जो हमें झुकना अथवा प्रणाम करना सिखा देता है।
★ ‘प्रणिता’ का अर्थ है– मंत्र से संस्कारित, निर्मित, तैयार अभिमंत्रित आदि।
★ ‘अभिप्रणीत’ का अर्थ है– अच्छी तरह से तैयार।
★ ‘मनः प्रणीत’ का अर्थ है– जो मन को प्रिय हो, मन में जो अच्छी तरह निर्मित हो अथवा बसा हुआ हो।
★ अब प्रश्न उठता है कि नमस्कार, नमस्ते और प्रणाम में क्या अंतर है? जैसा कि हमने देखा: नमस्कार का अर्थ है– ‘’मैं आपको नमन करता हूँ अथवा आपके सम्मान में झुकता हूँ।‘’ यह मिलते समय अथवा प्रथम मिलन पर किया जाना वाला अभिवादन प्रतीत होता है। इसलिए सूर्य नमस्कार करते हैं– सुबह-सुबह प्रथम दर्शन के समय। सूर्य को नमस्ते नहीं करते।
★ विदा लेते समय पुनः अभिवादन के लिए ‘नमस्ते’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए। विदा लेते समय प्रयुक्त होने वाले संबोधनों में ‘राम! राम!’ और ‘ख़ुदा हाफ़िज’ में भी साम्य है। ‘ख़ुदा-हाफ़िज’ का अर्थ है– ख़ुदा ही रखवाला है। इसका निहितार्थ है कि हम अलग हो रहे हैं, अब ख़ुदा ही रक्षा करेंगे।
★’राम! राम!!’ का अर्थ कण-कण में राम हैं। आपमें भी राम, मुझमें भी राम। अलग होते समय कहते हैं– “अच्छा जी, राम! राम!!” इसका अर्थ हुआ– “अच्छा जी, अलग हो रहे हैं…लेकिन कोई बात नहीं, राम तो घट-घट में हैं, वही रक्षा करेंगे।”
★’प्रणाम’ शब्द का प्रयोग किसी भी सामान्य अभिवादन हेतु किया जा सकता है।
★विशेष: ‘साष्टांग-प्रणाम’ शब्द विशिष्ट है। यह है– ‘स+अष्ट+अंग = साष्टांग’। ‘स’-सहित, ‘अष्ट’-आठ, अंग-अंगों से। इसका अर्थ यह कि अष्ट-अंगों से यह प्रणाम किया जाता है। ये अष्ट-अंग हैं– सिर, हाथ, पैर, हृदय अथवा छाती, जाँघ अथवा घुटना, मन, वचन और दृष्टि। अगर आप इन आठों अंग से युक्त होकर भूमि पर सीधा लेट कर प्रणाम करते हैं, तो यह ‘साष्टांग-प्रणाम’ कहलाता है।