सरकार और व्यवस्था अदालतें चलाएंगी तो न्याय कौन देगा: आलोक मेहता

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 9अगस्त। इस समय एक नया सामाजिक, संवैधानिक संकट दिख रहा है। गंभीर संवैधानिक मुद्दों के बजाय राज्यों या केंद्र सरकार के निर्णयों, हिंसा, उपद्रव, पानी, प्रदूषण, चुनाव, पार्टियों के विवाद, संसद या विधान सभा के फैसले जैसे अनेक मामले सीधे सुप्रीम कोर्ट में सुने जा रहे और माननीय न्यायाधीश आदेश-निर्देश जारी कर रहे हैं। मणिपुर से लेकर हरियाणा तक हिंसा पर सर्वोच्च अदालत पुलिस से जवाब तलब कर रही है। केंद्र शासित दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति के अधिकार या केंद्रीय जांच एजेंसियों के प्रमुखों की नियुक्ति अथवा कार्यकाल तक पर सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश पर अमल चाहती है। संविधान निर्माताओं ने कभी इस तरह के टकराव और हस्तक्षेप की कल्पना नहीं की होगी। जब सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश स्वयं सरकारों, प्रशासन को निर्देश देने लगेंगे तो उच्च न्यायालयों अथवा जिला न्यायालयों के जज भी कानून के बजाय अपनी मर्जी से व्यवस्था चलाने की कोशिश कर सकते हैं। यह स्थिति देर सबेर समाज और लोकतंत्र के लिए घातक हो सकती है।

इसमें कोई शक नहीं कि देश में आज भी न्यायालय का सर्वाधिक सम्मान है और करोड़ों लोगों का विश्वास है। शायद यही कारण है कि अदालतों के जज यदा कदा संवैधानिक प्रावधानों से आगे बढ़कर अपने विचार व्यक्त कर दिशा-निर्देश देने लगते हैं। वर्षों से न्याय व्यवस्था का सबसे बड़ा मुद्दा अदालतों में सुनवाई में देरी और लगातार बढ़ते जा रहे विचाराधीन मामले हैं। इस समय देश की अदालतों में करीब 5 करोड़ प्रकरण विचाराधीन हैं। हाई कोर्ट्स में ही करीब 33 लाख प्रकरण लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट में लगभग 69 हजार मामले पेंडिंग हैं। एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार देश की अदालतों में 14 लाख मामले दस साल से, 30 लाख मामले पांच से दस साल और लगभग 71 हजार मामले तीस साल से चल रहे हैं। शायद दुनिया के किसी भी देश में ऐसी स्थिति नहीं होगी। समय पर न्याय नहीं मिलना किसी अन्याय से कम नहीं है। सवाल न्याय पालिका की प्राथमिकताओं और न्याय व्यवस्था को सुधारने का है।

संविधान में न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों के साथ उनकी सीमाएं भी स्पष्ट है। अपेक्षा यह की जाती है कि लोकतंत्र में संतुलन और समन्वय के साथ संयम भी हो। सरकारों और न्याय पालिका के अधिकारों, नियुक्तियों और निर्णयों पर मतभेद पिछले पचास वर्षों में दिखते रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में टकराव का दौर दिखने लगा है। अदालत सामाजिक राजनैतिक एक्टिविज्म के रूप भी दिखाने लगी है। दूसरी तरफ राजनेताओं से जुड़े विवादास्पद मामलों पर जल्दी सुनवाई और राहत, लेकिन सामान्य लोगों के दुःख दर्द के मामलों पर केवल तारीखें बढ़ते रहने से उसकी साख पर चोंट लगती है। अदालत सफाई, सड़क, पुलिस, अस्पताल से लेकर सीमा की सुरक्षा के मामलों पर कितने आदेश जारी कर दे, क्रियान्वयन तो सरकारें, प्रशासन, सेना ही करेगी। जिलों में कलेक्टर के पास कुछ न्यायिक अधिकार हो सकते हैं, लेकिन हर जज के पास प्रशासनिक अधिकार नहीं होते।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि शीर्ष अदालत को मणिपुर में तनाव बढ़ाने के लिए एक मंच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह हिंसा को रोकने के लिए कानून और व्यवस्था तंत्र को अपने हाथ में नहीं ले सकता है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ ने कहा कि अधिक से अधिक वह स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अधिकारियों को निर्देश दे सकती है और इसके लिए उसे विभिन्न समूहों की सहायता और सकारात्मक सुझावों की जरूरत है।

दूसरी तरफ कुछ अर्सा पहले सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से तीखे सवाल उठाए कि अगर दिल्ली में प्रशासनिक कार्यों को केंद्र के आदेश पर किया जाना है तो निर्वाचित सरकार का उद्देश्य क्या है। केंद्र के इस रुख के साथ कि राजधानी में तैनात सभी अधिकारी केंद्र सरकार के हैं जो उन पर प्रशासनिक नियंत्रण बनाए रखती है, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) धनंजय वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एक संविधान पीठ ने कहा, “इसका उद्देश्य क्या है? अगर प्रशासनिक कार्यों को केंद्र की आज्ञा और आह्वान पर किया जाना है तो दिल्ली में निर्वाचित सरकार बिल्कुल भी नहीं है।” सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने कहा था कि संविधान केंद्र शासित प्रदेशों के लिए ‘सेवाओं’ की परिकल्पना नहीं करता है। दिल्ली में तैनात अधिकारी अखिल भारतीय सेवा, दानिक्स से हैं जो दिल्ली, अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप, दमन और दीव और दादरा और नगर हवेली सिविल सेवा और दिल्ली प्रशासनिक अधीनस्थ सेवा (डीएएसएस) के रूप में विस्तारित है।

मेहता ने कहा, ये सभी केंद्रीय सेवाएं हैं और केंद्र सरकार उनका अनुशासनात्मक प्रमुख है जो उनके स्थानांतरण और पोस्टिंग तक को नियंत्रित करता है।’ बाद में अदालत ने विपरीत फैसला दिया तो केंद्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिया और अब संसद में नया विधेयक पारित करवा लिया। ‘राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली क्षेत्र सरकार संशोधन विधेयक, 2023’ को चर्चा पर उत्तर देते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि दिल्ली न तो पूर्ण राज्य है, न ही पूर्ण संघ शासित प्रदेश है। राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते संविधान के अनुच्छेद 239 (ए) (ए) में इसके लिए एक विशेष प्रावधान है। संविधान के अनुच्छेद 239 (ए) (ए) के तहत इस संसद को दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र या इससे संबंधित किसी भी विषय पर कानून बनाने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में पैरा 86, पैरा 95 और पैरा 164 (एफ) में स्पष्ट किया गया है कि अनुच्छेद 239 (ए) (ए) में संसद को दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र के विषय पर कानून बनाने का अधिकार है। अमित शाह ने कहा कि पट्टाभि सीतारमैया समिति ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की सिफारिश की थी। जब यह विषय तत्कालीन संविधान सभा के समक्ष आया, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजाजी (राजगोपालाचारी), डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज दिये जाने का विरोध किया था।

बहरहाल यह स्वीकारा जाना चाहिए कि ब्रिटेन में संसद के पास कानून बनाने के असीमित अधिकार हैं। अदालतें केवल उनकी व्याख्याएं कर सकती हैं। भारत में लिखित संविधान होने के कारण न्यायालयों को कुछ अधिनियमों और कानूनों को निरस्त करने का अधिकार है लेकिन यह दावा गलत होगा कि केवल न्यायालय ही लोकतंत्र के परिपालक हैं। वास्तव में लोकतंत्र में संसद सर्वोपरी है और उसकी शक्ति सीमित करने पर लोकतंत्र कमजोर होगा। अमेरिका में भी सर्वोच्च न्यायालय निर्वाचित सरकार से टकराव बचाता है। वहां एक कहावत प्रचलित है कि ‘अमेरिकी न्यायाधीशों को जो दलील सबसे अधिक जंचती है, वह है मतदान की संख्या की दलील। ‘

(यह लेखक के निजी विचार हैं)
साभार- समाचार4मीडिया

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