सरकार बदलते ही “मित्र” की नगर निगम का चित्र हुआ विचित्र..!!
"शिव" "राज" बदलते ही एक्शन में महापौर पुष्यमित्र औऱ उनकी नगर निगम
नितिनमोहन शर्मा।
वो ही अमला, वो ही नगर निगम। वो ही शहर, वो ही समस्या। वो ही अफसर, वो ही “मित्र”। पर अब चित्र विचित्र हो चला हैं। “मित्र” अब कुछ कर गुजरने पर आमादा है औऱ अमला भी कुछ करने के जज्बे से ओतप्रोत हैं। मित्र के चेहरे की उदासी भी दूर हो गई है और एक लंबी मुस्कान से तैर गई हैं। अब हर उस समस्या के समाधान पर “मित्र” औऱ उनका अमला आमदा हो चला हैं, जिस पर मित्र चाहकर भी कुछ कर नही पा रहे थे। खासकर ट्रैफिक के मसले पर, जो “मित्र” की पारी का पहली घोषणा था।
याद है न फूल लेकर “मित्र” कैसे महू नाका चौराहा के ट्राफ़िक के बीच पहुँचे थे? वाहन चालकों को फूल देकर शहर के बिगड़े ट्रैफिक मुद्दे औऱ सड़को पर कब्जो पर अपनी प्राथमिकता दिखा दी थी। फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में क्यो चला गया। इसका जवाब “मित्र” और उनकी “मित्रमण्डली” के पास है या भाजपा की अंदरूनी राजनीति को जानने वाले के पास था। जनता के पास कोई ज्यादा जानकारी नही थी। बस इसके कि ” सरकार” को “मित्र” हजम नही औऱ वो ही काम करने नही दे रही। जनसामान्य के लिए ये हैरत का विषय था कि क्या ऐसा भी होता हैं? ऐसा तो कांग्रेस की प्रदेश में सरकार रहते नही हुआ।
याद है न दिग्विजयसिंह का कार्यकाल? तब “नगर सरकार” भाजपा की बन गई थी। प्रत्यक्ष प्रणाली से पहली बार हुए चुनाव के बाद महापौर के रूप में शहर को कैलाश विजवर्गीय मिले थे। वे विजयवर्गीय, जिनकी छवि विकास की पर्याय आज तक बनी हुई है। ये छवि यू ही नही बनी थी। इसमे बड़ा योगदान कांग्रेस की प्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह का था। सिंह ने दलगत राजनीति को एक तरफ सरकाकर इंदौर हित मे विजयवर्गीय का भरपूर सहयोग किया। भोपाल ने कभी फंड की कमी नही आने दी। यहां तक कि दिग्विजयसिंह को तब अपने ही दल में इसका विरोध भी झेलना पड़ा। तत्कालीन नगरीय प्रशासन मंत्री सज्जन सिंह वर्मा से राजा साहब के बीच तल्खी की शुरुआत का कारण भी इंदौर निगम बना लेकिन दिग्विजयसिंह ने मुख्यमंत्री रहते कभी भी इंदौर नगर निगम और महापौर विजयवर्गीय को न “तला” न “सताया”। शहर हित मे भरपुर मदद की।
याद है उस दौर की बांड सड़कें? जो आज भी पूरे “यौवन” के साथ जिंदा हैं। याद है न श्रमिक क्षेत्र की भारी तोड़फोड़, फिर डेवलपमेंट? नंदानगर का कायाकल्प? बापट चौराहे जैसी शहर की साजसज्ज़ा औऱ प्लास्टिक के लाइट वाले पेड़ याद है न? जनभागीदारी से काम की शुरुआत भी उसी दौर में हुई थी न, जब कांग्रेस का मुख्यमंत्री और भाजपा का महापौर था? फिर ऐसा क्या हो गया कि एक ही दल की नगर में भी औऱ प्रदेश में भी सरकार होने के बाद इंदौर नगर निगम “सौतेला” हो गया था?
ख़ुलासा फर्स्ट ने इस “सौतेलेपन” को भांपकर तब ” भोपाल” को चेताया भी था कि क्या “मित्र” हजम नही हो रहे? मित्र से बेहतर इस बात को कौन समझ सकता हैं कि कैसे उनके मातहत अमला, उनसे ज्यादा कहीं औऱ से दिशा निर्देश पा रहा है। निगम के शीर्ष अफसर की तो समानांतर नगर सरकार चलने लगी। कई अहम फैसले तो ऐसे लिए गए जिसकी भनक तक “मित्र” को नही थी औऱ जो बाद में “मित्र” के लिए मुसीबत का कारण भी बने। याद है न एक दिवसीय मैच के ठीक 24 घन्टे पहले एमपीसीसी के दफ्तर पर निगम की बकाया वसूली का तगादा? एबी रॉड के निर्माणाधीन माल का रिमूवल भी याद होगा ही औऱ राउ विधानसभा क्षेत्र में मन्दिर की तोड़फोड़ भी। 36 मौत वाला “बावड़ी कांड” भी सबको याद होगा?
“परबस” बनाकर रख दिया गया था नगर सरकार को। उस नगर सरकार को जिसे इस शहर के बाशिंदों ने 1 लाख 35 हजार की रिकार्ड जीत से चुना था। लेकिन “कुत्सित राजनीति” ने युवा और ऊर्जा से भरी एक अनंत संभावनाशील नगर सरकार को पंगु बनाकर रख छोड़ा था। सवा साल से ज्यादा हो गया था लेकिन नगर सरकार के खाते में सिर्फ बाधाएं ही आई। नगर सरकार की ये “परबसता” सबको नजर भी आने लगी थी। चारों तरफ चल रही बेतरतीब खुदाई ओर सड़को पर फिर से पसारती पुरानी अराजकता के जरिये जनसामान्य भी इसे समझने, महसूस करने लग गया था लेकिन वो ये समझ ही नही पा रहा था कि क्या भाजपा में ऐसा भी होता है?
अब वो ही जनसामान्य अब देख रहा है अपनी नगर सरकार की सक्रियता। अपने महापौर का एक्शन। निगम के अमले की चुस्ती फुर्ती। पसीना बहाते अफ़सर-कारिंदे सड़क पर दिखने लगे हैं। न केवल दिख रहे है बल्कि सड़को पर कब्जे के लिए बदनाम इलाको में घुस भी रह रहे हैं। अन्यथा एक कान से सुन रहे थे, दूजे से निकाल रहे थे। लोहारपट्टी, रानीपुरा औऱ बम्बई बाजार की कार्रवाई क्या बताती हैं? निगम के कायदे कानून को घोलकर पी जाने वाले “कमाल” का “जमाल” भी उसी के इलाके में उतारा गया औऱ उतारी गई वे कब्जा करती “झालर-लटकने” जिस पर लटककर कमाल नगर निगम को चिड़ा रहा था। बरसो से। ये अब काम मित्र ने स्वयम खड़े रहकर करवाया। जबकि कमाल, उसी कमलदल से है जिससे “मित्र” है।
ये शहर के लिए भी शुभ संकेत है कि अब इन्दोर में वाकई ” डबल इंजिन” सरकार का काम नजर आने लगा है। जिम्मेदारों की ये गति और मति ऐसी ही बनी रही तो ये तय मानकर चले कि इंदौर एक बड़े बदलाव की तरफ निश्चित रूप से बडेगा। अभी तो ये आगाज़ है, उस तालमेल का जो इंदौर-भोपाल के बीच बना हैं। हुकुमचंद मिल का 30 बरस से पुराना मसला हल हो गया। 32 साल बाद फिर से ऑपरेशन बम्बई बाजार शुरू हो गया। सड़क घेरती लोहारपट्टी की कोठी, ड्रम, पलंग समेटे जाने लगे हैं। गोपाल मंदिर का पिछवाड़ा साफ हो रहा है। राजबाड़ा क्षेत्र की सड़कों पर कब्जा जमाए दुकानदारों का सामान समेटा जा रहा है। ट्रैफिक में नम्बर वन बनने पर फोकस हो चला हैं।
ये सब ही तो चाहता था इंदौर कि उसकी नगर सरकार निर्बाध गति से औऱ शुद्ध मति से काम करे। प्रदेश के नए सीएम औऱ शहर के पुराने मित्र के बीच की “पुरानी मित्रता” का लाभ अब भी इंदौर को नही मिले तो क्या फायदा फिर इंदोरियो द्वारा भाजपा को 9 की 9 सीट जिताने का?
_सुन रहे है न डॉक्टर साहब?_