लोग टिकट खरीदकर अच्‍छी फिल्‍में देखना चाहते हैं: उत्पल दत्ता

18वें एमआईएफएफ में ओपन फोरम ने वृत्‍तचित्रों की वित्तीय उपादेयता के समाधान पर चर्चा की

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 21जून। वर्तमान में चल रहे 18वें मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के अवसर पर, भारतीय वृत्तचित्र निर्माता संघ (आईडीपीए) ने ‘क्रिएटिंग न्‍यू अपॉरच्‍युनिटीज़ फॉर डॉक्‍युमेंट्री-फंडिंग(वृत्तचित्र-वित्तपोषण के लिए नए अवसरों का सृजन) विषय पर एक खुले मंच का आयोजन किया। फिल्म उद्योग के प्रतिष्ठित वक्ताओं ने भारत में वृत्तचित्रों की वित्तीय उपादेयता के लिए चुनौतियों और संभावित समाधानों पर प्रकाश डालते हुए अपने विचार साझा किए।

चर्चा की शुरुआत करते हुए वी. शांताराम पुरस्कार विजेता और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता श्री संजीत नारवेकर ने कहा कि भारत में ऐसे दर्शकों को आ‍कर्षित करना जरूरी है, जो टिकट खरीदकर वृत्तचित्रों को देखने के लिए प्रोत्‍साहित हों। उन्होंने कहा कि जब तक ऐसी संस्कृति नहीं उभरती, तब तक वृत्तचित्रों को आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं बनाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि जहां लोग कथात्‍मक फिल्मों के वित्तपोषण के लिए तैयार हैं, वहीं राजस्व मॉडल की कमी वृत्तचित्रों के लिए वित्तपोषण में बाधा डालती है। उन्‍होंने कहा, “कुछ फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों के लिए वित्तपोषण करते हैं, जो उन्हें कलात्मक स्वतंत्रता देता है। हमने वृ‍त्‍तचित्रों के लिए सरकारी, कॉरपोरेट और क्राउड-सोर्सिंग फंडिंग देखी है, लेकिन इनमें से कोई भी प्रयास कारगर नहीं हुआ। जो लोग अपना पैसा खर्च करते हैं, वे उससे लाभ भी उठाना चाहते हैं।’’

दिग्गज फिल्म निर्माता ने यह भी कहा कि नई तकनीक और एमयूबीआई जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म वृत्तचित्रों के लिए अधिक अवसर प्रदान कर रहे हैं। उन्होंने प्रश्‍न किया कि क्या भारतीय वृत्तचित्र निर्माता वर्तमान वित्तीय बाधाओं को देखते हुए ‘कमांडेंट्स शैडो’ जैसी परियोजना की कल्पना कर सकते हैं?

फिल्म समीक्षक, लेखक और आयोजक श्री प्रेमेंद्र मजूमदार ने उक्‍त विचार को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भारतीय दर्शकों में वृत्तचित्र देखने की लोकप्रिय संस्कृति नहीं है और सबसे पहले ऐसे दर्शकों को आकर्षित करना होगा, जो पैसा खर्च करके वृत्‍तचित्र देखें। उन्होंने कहा कि एमआईएफएफ जैसे फिल्म समारोह इस संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। श्री मजूमदार ने वृत्तचित्र फिल्म उद्योग के वैश्विक स्तर पर प्रकाश डाला, जिसका मोल लगभग 12 अरब डॉलर है, लेकिन अफसोस है कि भारत का हिस्सा न्यूनतम है। उन्‍होंने कहा, “भारत में सालाना लगभग 18 से 20 हजार फिल्मों को प्रमाणपत्र प्राप्त होता है। इनमें फीचर फिल्मों का हिस्‍सा लगभग दो हजार ही है। बाकी वृत्‍तचित्र हैं, लेकिन हम इन फिल्मों को कहीं भी प्रदर्शित होते नहीं देख रहे हैं। एनएफडीसी जैसे संगठन नए वृत्तचित्र निर्माताओं के काम को बढ़ावा देने का भरपूर प्रयास करते हैं।’’

निर्माता, निर्देशक, फोटोग्राफी के निदेशक और शिक्षाविद श्री धरम गुलाटी ने वृत्तचित्रों को समर्पित ओटीटी प्लेटफार्मों की आवश्यकता की ओर संकेत किया। उन्होंने कहा कि आधुनिक प्रौद्योगिकी ने वृत्तचित्र निर्माण की लागत को कम कर दिया है, जिससे फिल्म निर्माता अपनी परियोजनाओं के लिए स्व-वित्तपोषण कर सकते हैं। श्री गुलाटी ने जोर देकर कहा कि केवल वित्तीय लाभ ही नहीं, बल्कि प्रतिबद्धता भी वृत्तचित्र निर्माताओं के लिए महत्वपूर्ण है। उन्होंने प्रस्ताव किया कि सरकार वृत्तचित्रों के लिए सीएसआर निधि का उपयोग करने वाले कॉरपोरेट्स को कर कटौती प्रदान करे और कर लाभ के बदले में वृत्तचित्रों को प्रदर्शित करने के लिए मल्टीप्लेक्स को अनिवार्य करे।

एक भिन्‍न दृष्टिकोण को साझा करते हुए असम डाउन टाउन विश्वविद्यालय में प्रैक्टिस प्रोफेसर और लेखक श्री उत्पल दत्ता ने सरकार से वित्‍त प्राप्त करने में जटिल प्रशासनिक प्रक्रियाओं की चुनौतियों पर प्रकाश डाला। श्री दत्ता ने इस बात पर जोर दिया कि लोग मुफ्त पेशकशों के बजाय भुगतान की गई सामग्री को महत्व देते हैं। उन्‍होंने सुझाव दिया कि वृत्तचित्र समारोहों में उपस्थिति के लिए हमेशा शुल्क लेना चाहिए।

स्वतंत्र फिल्म निर्माता और स्वतंत्र लेखक डॉ. देव कन्या ठाकुर ने वृत्तचित्र निर्माताओं को यूट्यूब और ओटीटी सेवाओं जैसे उभरते प्लेटफार्मों को विकसित करने तथा वहां अवसर तलाशने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने विशिष्ट विषयों वाले संगठनों से वित्‍तपोषण का आग्रह करने और कॉरपोरेट वित्‍त का उपयोग करने का सुझाव दिया। डॉ. ठाकुर ने वित्‍तपोषण को आकर्षित करने के लिए वृत्तचित्र निर्माण को संस्थागत बनाने का प्रस्ताव रखा और सलाह दी कि विभिन्न हितधारक, जैसे कि आईडीपीए और ‘बिचित्र’ वृत्तचित्रों के वित्तपोषण के लिए सहयोग करें। उन्‍होंने कहा कि इन हितधारकों को इच्छुक फिल्म निर्माताओं के लिए फैलोशिप देना चाहिए। उन्होंने क्राउड-फंडिंग की क्षमता और दर्शकों को आकर्षित करने के लिए बेहतरीन सामग्री बनाने के महत्व पर भी प्रकाश डाला। डॉ. ठाकुर ने महिला वृत्तचित्र निर्माताओं की बढ़ती संख्या का उल्लेख किया, जिससे उद्योग में लैंगिक अंतर को कम करने में मदद मिली।

सत्र का संचालन फिल्म निर्माण उद्यमी सुश्री माया चंद्र ने किया, जिन्होंने इस बात का जिक्र किया कि युवा फीचर फिल्मों की तुलना में वृत्तचित्रों के प्रति कम आकर्षित होते हैं। उन्होंने वृत्तचित्र के प्रचार के लिए एक अलग निकाय या इको-सिस्‍टम स्थापित करने पर चर्चा करने का आह्वान किया। चंद्रा ने उल्लेख किया कि कॉर्पोरेट निधि ने हाल ही में कर्नाटक जैसे राज्यों में वृत्तचित्रों में निवेश शुरू कर दिया गया है। उन्‍होंने सुझाव दिया कि आईडीपीए वृत्तचित्रों को प्रदर्शित करने के लिए आईनॉक्‍स और पीवीआर जैसी थिएटर श्रृंखलाओं के साथ साझेदारी कर सकता है, जिससे दर्शक-संस्कृति विकसित हो सकती है।

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