सरदार ऊधम सिंह को शत शत नमन- 31 जुलाई/बलिदान दिवस

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प्रस्तुति -:कुमार राकेश
ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था. बचपन में उनका नाम शेर सिंह रखा गया था. छोटी उम्र में में ही माता-पिता का साया उठ जाने से उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी. यहीं उन्हें उधम सिंह नाम मिला और उनके भाई को साधु सिंह. 1917 में साधु सिंह भी चल बसे. इन मुश्किलों ने उधम सिंह को दुखी तो किया, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत भी बढ़ाई.

१३ अप्रैल, 1919 में जब जालियांवाला बाग कांड हुआ तो ऊधम सिंह वहीं मौजूद थे. उन्होंने अपनी आँखों से डायर की करतूत देखी. वे गवाह थे उन हज़ारों भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे. यहीं पर ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओ ड्वायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली. इसके बाद वो क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गये।

१९२४ में उधम सिंह गदर पार्टी से जुड़ गए. अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों ने 1913 में इस पार्टी को भारत में क्रांति भड़काने के लिए बनाया था. क्रांति के लिए पैसा जुटाने के मकसद से उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा भी की।

भगत सिंह के कहने के बाद वे 1927 में भारत लौट आए. अपने साथ वे २५ साथी, कई रिवॉल्वर और गोला-बारूद भी लाए थे. जल्द ही अवैध हथियार और गदर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार गदर की गूंज रखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मुकदमा चला और उन्हें पांच साल जेल की सजा हुई।

जेल से छूटने के बाद भी पंजाब पुलिस उधम सिंह की कड़ी निगरानी कर रही थी. इसी दौरान वे कश्मीर गए और गायब हो गए. बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं. बाद में उधम सिंह लंदन जा पहुंचे. यहां उन्होंने ड्वॉयर की हत्या का बदला लेने की योजना को अंतिम रूप देना शुरू किया. उन्होंने किराए पर एक घर लिया. इधर-उधर घूमने के लिए उधम सिंह ने एक कार भी खरीदी. कुछ समय बाद उन्होंने छह गोलियों वाला एक रिवॉल्वर भी हासिल कर लिया. अब उन्हें सही मौके का इंतजार था।

इसी दौरान उन्हें १३ मार्च, 1940 की बैठक और उसमें माइकल ओ ड्वायर के आने की जानकारी हुई. वे वक्त से पहले ही कैक्सटन हाल पहुँच गये और उचित स्थान पर बैठ गये।

उन्होंने अपनी रिवॉल्वर एक मोटी किताब में छिपा रखी थी. बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उन्होंने माइकल ओ ड्वायर को निशाना बनाया. दो गोलियां ड्वायर को लगी जिससे उसकी तुरंत मौत हो गयी. इसके साथ ही ऊधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते।

ऊधम सिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और अरेस्ट हो गये. उन पर मुकदमा चला. कोर्ट में पेशी हुई. देश के बाहर फांसी पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे. उनसे पहले मदन लाल ढींगरा को कर्ज़न वाइली की हत्या के लिए साल १९०९ में फांसी दी गई थी।

संयोग देखिए कि 31 जुलाई को ही उधम सिंह को फांसी हुई थी और 1974 में इसी तारीख को ब्रिटेन ने इस क्रांतिकारी के अवशेष भारत को सौंपे. उधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित उनके गांव लाई गईं जहां आज उनकी समाधि बनी हुई है।
प्रस्तुति -कुमार राकेश

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