हरिद्वार: संतों की बैठक में संस्कृत शब्दों के उपयोग पर जोर, ‘शाही’ और ‘पेशवाई’ जैसे शब्दों का विकल्प तलाशने की तैयारी

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,6 सितम्बर। हरिद्वार में संत समाज ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण घोषणा की है, जिसमें उन्होंने कहा कि जल्द ही विभिन्न अखाड़ों की एक बैठक बुलाई जाएगी। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य ‘शाही’ और ‘पेशवाई’ जैसे शब्दों के स्थान पर उनके संस्कृत के विकल्पों को अपनाने पर विचार करना है। संतों का मानना है कि भारतीय संस्कृति और सनातन परंपराओं के अधिक निकट रहने के लिए संस्कृत शब्दों का उपयोग करना आवश्यक है।

पृष्ठभूमि

भारत में कुंभ और अर्धकुंभ जैसे महापर्वों में साधु-संतों की पेशवाई या शाही सवारी एक महत्वपूर्ण धार्मिक परंपरा मानी जाती है। इस दौरान अखाड़ों के संत शोभायात्रा निकालते हैं, जिसे बहुत ही भव्य और शाही तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। इसी परंपरा को लेकर संतों ने अब विचार करना शुरू कर दिया है कि इनमें इस्तेमाल होने वाले शब्दों को भारतीय और विशेष रूप से संस्कृत भाषा के करीब लाया जाए।

संतों का दृष्टिकोण

संत समाज का मानना है कि ‘शाही’ और ‘पेशवाई’ जैसे शब्द मुस्लिम शासनकाल के दौरान प्रचलित हुए थे, और ये शब्द भारतीय सनातन संस्कृति से मेल नहीं खाते। उनकी सोच यह है कि संस्कृत हमारी प्राचीन भाषा है और भारतीय धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं की जड़ें भी संस्कृत में ही हैं। इसलिए, धार्मिक आयोजनों में अधिक से अधिक संस्कृत शब्दों का प्रयोग करना हमारी सांस्कृतिक विरासत के सम्मान के लिए महत्वपूर्ण है।

संतों ने कहा कि यह बैठक एक बड़ा मंच होगा, जहां सभी प्रमुख अखाड़ों के प्रतिनिधि एक साथ मिलकर विचार-विमर्श करेंगे। इसमें संस्कृत के शब्दों को चुनने और उन्हें धार्मिक आयोजनों में लागू करने की योजना बनाई जाएगी। बैठक में धार्मिक परंपराओं को और अधिक शुद्ध और भारतीयता के करीब लाने के लिए अन्य उपायों पर भी चर्चा हो सकती है।

शब्दों के विकल्प की तलाश

अब सवाल उठता है कि ‘शाही’ और ‘पेशवाई’ जैसे शब्दों के स्थान पर कौन से संस्कृत शब्द अपनाए जाएंगे। संत समाज का मानना है कि यह काम विशेषज्ञों और विद्वानों की सलाह के साथ किया जाएगा, ताकि जो शब्द चुने जाएं, वे धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से उचित हों।

संस्कृत भाषा में समृद्ध शब्दावली होने के कारण इन शब्दों के विकल्प ढूंढना मुश्किल नहीं होगा। उदाहरण के लिए, ‘शाही’ की जगह ‘राजसी’ या ‘वैभवपूर्ण’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह, ‘पेशवाई’ के लिए भी कोई संस्कृत शब्द ढूंढा जा सकता है जो इस धार्मिक यात्रा की महत्ता और गौरव को अभिव्यक्त करता हो।

संस्कृति और परंपरा के संरक्षण पर जोर

संत समाज का यह कदम भारतीय संस्कृति और परंपराओं को फिर से प्रमुखता देने का एक प्रयास है। उनका कहना है कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक पहचान का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। जब हम अपनी भाषा और शब्दों को बदलते हैं, तो यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर पर भी असर डालता है।

संस्कृत शब्दों के प्रयोग को बढ़ावा देने का उद्देश्य न केवल धार्मिक आयोजनों को शुद्धता प्रदान करना है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ना है। संतों का मानना है कि संस्कृत भाषा का अधिक प्रयोग भारतीय समाज को उसकी पुरानी परंपराओं और मूल्यों के प्रति जागरूक बनाएगा।

निष्कर्ष

हरिद्वार में संत समाज द्वारा उठाया गया यह कदम भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। ‘शाही’ और ‘पेशवाई’ जैसे शब्दों के स्थान पर संस्कृत के शब्दों का उपयोग न केवल भाषा के शुद्धिकरण का प्रतीक होगा, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की गहराई और उसकी समृद्धि को भी उजागर करेगा। संतों की इस बैठक से निश्चित रूप से सनातन परंपराओं को एक नई दिशा मिलेगी, और यह हमारे धार्मिक आयोजनों को भारतीयता के और करीब लाने में सहायक होगी।

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