पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर विशेष
महान दार्शनिक व एकात्म मानवतावाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का सपना था -अखंड भारत
*डॉ ममता पांडेय
बचपन में” दीना” नाम से संबोधित इस बालक में राष्ट्र और राष्ट्रवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाले एकात्म मानवतावाद के प्रणेता; ऋषि; पंडित दीनदयाल उपाध्याय जन्म अश्वनी कृष्ण त्रयोदशी संवत 1673 दिनांक 25 सितंबर 1916 को बृजभूमि मथुरा जिले के नगला चंद्रभान गांव में पिताश्री भगवती प्रसाद माता श्रीमती रामप्यारी के घर में हुआ।
एक ज्योतिषी ने उनकी कुंडली का अध्ययन करते हुए भविष्यवाणी की थी कि उनका लड़का एक महान विद्वान और विचारक; एक निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक प्रमुख राजनेता बन जाएगा लेकिन वह शादी नहीं करेगा । दीन दयाल उपाध्याय जी निश्चित रूप से एक गहन दार्शनिक वैचारिक मार्गदर्शन का एक उज्जवल प्रकाश और उच्च नैतिक क्षमताओं के धनी थे। तीन वर्ष में पिता का देहांत हो गया सात वर्ष में मां भी नहीं रही।
जब वह सात आठ साल के थे तब डकैतों ने उनके घर पर धावा बोल दिया डकैतों से डरते तड़पते हुए दीनदयाल ने धीरे से कहा हमने सुना है कि”डकैत अमीरों को ही लूटते हैं और गरीबों की रक्षा करते हैं ” बच्चे की निडरता से प्रभावित होकर डकैत घर को लूटे बिना चले गए।
अपने बौद्धिक कुशाग्रता के आधार पर संपूर्ण शिक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। 1935 हाई स्कूल की परीक्षा में 1937इंटर की परीक्षा में सर्वप्रथम आने पर उन्हें स्वर्णपदक; 10 रुपए मासिक छात्रवृत्ति तथा पुस्तकों के लिए ₹250 की राशि प्राप्त हुई। सन 1939 में सनातन धर्म कॉलेज कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण की। एम० ए ०(पूर्वार्ध अंग्रेजी) को प्रथम श्रेणी में करने के बाद बहन की बीमारी के कारण उत्तरार्ध की परीक्षा नहीं दे पाए। अपने चाचा राधा रमन जी के आग्रह पर प्रशासनिक सेवा परीक्षा सफलतापूर्वक दी ।इंटरव्यू के दौरान धोती कुर्ता और टोपी पहनने को लेकर उनका मजाक उड़ाया गया वह पहली बार था जब उन्हें “पंडित जी” कहा गया; हालांकि बाद में उनके जीवन में अनेक अनुयायियों द्वारा स्नेह के साथ यह संबोधन दिया गया।प्रशासनिक सेवा में चुने जाने के बाद भी उन्होंने सरकारी सेवाओं में शामिल होने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें सरकार की सेवा करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी । प्रारब्ध और एक बड़ी खोज उनका इंतजार कर रही थी।
वही कॉलेज के छात्रावास में सुंदर सिंह भंडारी और बलवंत महासागर से उनकी दोस्ती हो गई जिनके आग्रह पर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए ।उस समय वे स्नातक कक्षा के छात्र थे। कानपुर में उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार जी से हुई वे उनके व्यक्तित्व और विचारों से इतने प्रभावित हुए की 1942 में संघ के पूर्ण कालिक प्रचारक बन गए तथा आ जीवन प्रचारक ही रहे। उनके मामा जी उनके शिक्षा पूर्ण कर उन्हें भविष्य हेतु तैयार करना चाहते थे तब उन्होंने अपने मामा जी को पत्र में लिखा I
“जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिए राम ने वनवास सहा;कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाए ;राणा प्रताप जंगल जंगल मारे फिरे; शिवाजी ने सर्वस्व न्यौछावर कर दिया ;गुरु गोविंद सिंह छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए; क्या उसके खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओ का झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं?” दीनदयाल जी ने यह भी लिखा “परमात्मा ने हम लोगों को सब प्रकार से समर्थ बनाया है फिर क्या हम अपने मे से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते हैं ?”
दीनदयाल जी का व्यक्तित्व बहु आयामी था। संघ के प्रचारक होने के नाते दीनदयाल जी का उत्तर प्रदेश में संघ विस्तार में अमूल्य योगदान है। आगरा में साथ-साथ काम करते हुए नानाजी देशमुख जी के साथ आप एक कमरे में ही रहे हैं । श्रद्धेय नानाजी देशमुख दीनदयाल जी के व्यक्तित्व से बहुत अधिक प्रभावित थे।
नानाजी देशमुख लिखते हैं “दी नदयाल को बहुमुखी व्यक्तित्व का उपहार दिया गया था। वह एक असाधारण सफल आयोजक थे और लोगों को एक साथ रखने के लिए उनमें एक आदत थी। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विकास में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी।”
चिन्तन एवं मनन शीलता के धनी दीनदयाल जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में “राष्ट्र धर्म प्रकाशन”की स्थापना की। राष्ट्रीय धर्म (मासिक समाचार पत्र) पांचजन्य (साप्ताहिक) तथा स्वदेशी( दैनिक समाचार पत्रों) के प्रकाशन में दीनदयाल जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने कंपोजिंग से लेकर छापने तथा बंडलों को स्टेशन पहुंचाने तक का कार्य किया। दीनदयाल जी का लेखन भी अत्यधिक प्रतिभाशाली था उन्होंने कई पुस्तक लिखी जिसमें सम्राट चंद्रगुप्त; शंकराचार्य; राष्ट्रीय जीवन की दिशा ; एकात्म मानवता वाद ;हमारा कश्मीर अखंड भारत; भारतीय राष्ट्रीय जीवन का पुण्य प्रवाह(बुद्ध से शंकराचार्य तक) प्रमुख है।
दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों पर भारतीय ज्ञान परंपरा का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। शिक्षा का भारतीय दृष्टिकोण”सा विद्या या विमुक्त्य ” “शिक्षा को मनुष्य को मुक्त करने के तरीके के रूप में दर्शाता है। दीनदयाल उपाध्याय जी इस रामबाण के महान समर्थक थे। प्राचीन भारत की संस्कृति पर उन्हें गर्व था। भारत के सांस्कृतिक मूल्यों ; वेद; उपनिषद; पुराण तथा स्मृतियों में व्यक्त ज्ञान ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया। दीनदयाल जी ने जिस एकात्म मानव दर्शन के विचार को स्थापित किया उसकी प्रेरणा उन्हें भारत की दार्शनिक चिंतन परंपरा से प्राप्त हुई है।
उनके जीवन व्रत की डोर वैदिक ग्रंथ” ऐतरेय ब्राह्मण” के मंत्र “चरैवेति” “चरैवेति” से बंधी थी । यही मंत्र उनकी शक्ति भी थी और प्रेरणा भी ।जिसका अर्थ है श्रम करो; आलस्य पूर्णतया त्याग दो ;सदा गतिमान रहो; चलता हुआ मनुष्य ही अमृत प्राप्त करता है। चलता हुआ मनुष्य ही स्वादिष्ट फलों को चखता है। सूर्य के परिश्रम को देखो जो नित्य चलता हुआ कभी आलस नहीं करता इसलिए चलते रहो चलते रहो।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के मन में एक ऐसे भारत के निर्माण की कल्पना थी जिसमें पराश्रित होने की इच्छा नहीं थी और ना अवसर उनका भारत स्वावलंबी ;जातिवादी सदियों ;रूढ़ियों और संकीर्ण मानसिकता से मुक्त; अज्ञान के अंधकार से दूर तथा सामानता;संपन्नता एवं ज्ञान वक्ता का ज्योतिपुंज होगा।
उनके शब्दों में “हमने किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है सभी देशवासी हमारे बांधव हैं जब तक हम इन सभी बंधुओ को भारत माता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करा देंगे हम चुप नहीं बैठेंगे। हम भारत माता को सही अर्थों में सुजला सुफला बना कर रहेंगे।”
“हिंदू महासागर और हिमालय से परिवेषित भारत खंड में जब तक एकरसता; कर्मठता; सामानता ;संपन्नता; ज्ञानवेत्ता ;सुख और शांति की सप्त जान्हवी का पुण्य प्रवाह नहीं ला पाते हमारा भागीरथ तप पूरा नहीं होगा। इस प्रयास में ब्रह्मा विष्णु और महेश सभी हमारे सहायक होंगे। विजय का विश्वास है; तपस्या का निश्चय लेकर चले।”
संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आए। 21 अक्टूबर 1951 को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। गुरुजी (गोलवलकर जी)की प्रेरणा इसमें निहित थी। 1952 में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने ।इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में 7 प्रस्ताव उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किये। डॉ०मुखर्जी ने उनकी कार्य कुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाए तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूं।” सन् 1967 तक दीनदयाल जी भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 1967 में कालीकट अधिवेशन में उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए वह मात्र 43 दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे 10/ 11 फरवरी 1968 की रात्रि मुगलसराय स्टेशन पर उनका असामयिक निधन हो गया।
दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के राष्ट्र जीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारती तत्व दृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगनूकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी। उन्हें जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है।
संस्कृति निष्ठा उपाध्याय जी के द्वारा निर्मित राजनीतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र है।
उनका कहना था कि”भारत में रहने वाला और इसके प्रति महत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जान है उनके जीवन प्रणाली कला साहित्य दर्शन सब भारतीय संस्कृति है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है इस संस्कृत में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।”
वसुधैव कुटुंबकम भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित है I दीनदयाल जी द्वारा प्रतिपादित “चिति”सिद्धांत राज्य दर्शन को उनकी महान देन है।
“चिति” राष्ट्र की आत्मा है। उपाध्याय जी का विचार है कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है। इसे “चिति ” कहा जाता है। यह किसी समाज की जन्मजात प्रकृति होती है ।इसे लेकर ही प्रत्येक समाज का निर्माण होता है ।किसी भी समाज की संस्कृति की दिशा का निर्धारण इसी “चिति” के अनुकूल ही होता है। अर्थात जो चीज इस” चिति “के अनुकूल होती है वह संस्कृति में सम्मिलित कर ली जाती है। “चिति “वह मापदंड है जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु को मान्य अथवा मान्य किया जाता है। यह “चिति”राष्ट्र के प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्ति के आचरण द्वारा प्रकट होती है ।इसी आचरण के आधार पर राष्ट्र खड़ा होता है। राष्ट्र की संपूर्ण एकता इसकी समृद्धि जीवन राष्ट्र आत्मा चिति के परिणाम स्वरुप ही होता है राष्ट्र के उत्थान पतन में भी दीनदयाल जी ने “चिति”को ही मूल कारण माना है “चिति “के प्रकाश से ही राष्ट्र का अभ्युदय होता है और” चिति “के विनाश से ही राष्ट्र का पतन होता है ।
जब कई भारतीय विचारक सामाजिक मूल्यों और राजनीति पद्धति को पाश्चात्य विचारधाराओं पर आधारित करने के लिए प्रयत्नशील थे; उस समय पंडित दीनदयाल जी ने दृढ़ता पूर्वक इस विचार को समझ रखा की समस्त पाश्चात्य विचारधाराए अपूर्ण और एकांगी हैं तथा भारत सहित विश्व के मानव मात्र का कल्याण भारतीय चिंतन धारा और मूल्यों में है। ।पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी जी के चिंतन को ही आगे बढ़ाया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने जिस नवीन विचारधारा को विकसित किया वह “एकात्म मानववाद” है। वस्तुत इस विचारधारा में भारतीय जीवन दृष्टि ही परिलक्षित हुई है। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी का विचार है कि “एकात्म मानववाद का विचार इस संसार को पंडित दीनदयाल जी की श्रेष्ठतम देन है।”
पण्डित दीनदयाल जी का कहना था औपनिवेशिक भारत ने अपने प्राचीन संस्कारों मूल्य एवं आदर्शों को खो दिया है ।इसके प्रदर्शन हेतु प्राचीन भारतीय मूल्य पर आधारित एक दर्शन का प्रणयन किया जिसे चिंतन जगत में “एकात्मक दर्शन “कहा जाता है। एकात्म मानववाद का तात्पर्य है मानव जीवन तथा संपूर्ण प्रकृति के एकात्मक संबंधी दर्शन।। विविधता में एकता एकात्म मानव दर्शन का आधार है। मनुष्य शरीर मन बुद्धि और आत्मा का संकट रूप है इसलिए मानव का सर्वांगीण विकास उसके शरीर मन बुद्धि और आत्मा सब का संकलित विचार है।
29 जनवरी 1962 में एक लेख में पंडित दीनदयाल की खेती के बारे में लिखते हैं”देश की आर्थिक विकास का आधार खेती है। क्योंकि भारत में 72 फीसदी जनसंख्या की आय का मुख्य स्रोत खेती ही है और राष्ट्रीय आय का आधा हिस्सा खेती से आता है ।इस कारण खेती को पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”
दीनदयाल जी का आर्थिक चिंतन था कि ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित की जाए जिसमें मूलभूत रूप से व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके यह न्यूनतम आवश्यकता है रोटी ;कपड़ा; मकान; शिक्षा; स्वास्थ्य एवं सुरक्षा। इसके लिए वे सबको काम और रोजगार के समर्थक थे ।वह ऐसी अर्थव्यवस्था के समर्थक थे “जो हर हाथ को कम दे “उनका कहना था कि” जिस प्रकार राजनीतिक लोकतंत्र के लिए प्रत्येक व्यक्ति को वोट देने का अधिकार जरूरी है; वैसे ही आर्थिक लोकतंत्र तभी संभव होगा जब प्रत्येक व्यक्ति को कम का अधिकार हो ।”
वे इस बात के समर्थक थे कि हमें अपने देश अपनी स्थिति के अनुकूल साधन प्रयोग करना चाहिए जिसमें स्थानीय संसाधनों; स्थानीय कौशल और स्थानीय श्रम के आधार पर स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। उनका कहना था”जो अपना है अपनी पद्धति कार्यशाली टेक्नोलॉजी जीवन शैली आदि उसे युग के अनुकूल बनाकर और जो विदेशी है उसे देश के अनुकूल बनाकर अपनाना चाहिए ।” दीनदयाल जी ने कुटीर उद्योगों एवं लघु उद्योगों पर उन्होंने विशेष जोर दिया।
दीनदयाल उपाध्याय जी का मानना था कि किसी भी समाज या देश का सही मायने में उत्थान तभी हो सकता है जब समाज के अंतिम व्यक्ति का उदय हो अर्थात अंत्योदय।। 25 सितंबर उनके जन्मदिन को अंत्योदय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
पंडित दीनदयाल जी के विचारों से प्रेरणा लेकर माननीय मोदी जी की सरकार ने जम्मू कश्मीर में धारा 370 व 35ए को हटाकर देश को एकता के सूत्र में पिरोया है ।देश की सफलता व सम्मान शिखर पर है। सनातन विचारधारा एकात्म मानववाद हेतु भारत प्रयासरत है।
भारत सरकार ने शहरी ग्रामीण गरीबों के लिए दीनदयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना का आरंभ 25 सितंबर 2014 को किया है ।योजना का उद्देश्य कौशल विकास और अन्य उपायों के साधन से आजीविका के अवसरों में वृद्धि कर शहरी ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी को कम करना है।
निष्कर्ष : दीनदयाल जी की मान्यताओं का आधार भारतीय तत्व ज्ञान है; पर वह किसी भी प्रकार की रूढ़िवादिता; परंपरागत कठोरता और संकुचितता से मुक्त हैं। उनकी दृष्टि समग्र और सम्यक है; उनका चिंतन आशावादी और सृजनात्मक है जो परिवर्तन सुधार ;समन्वय और पूर्णता का प्रतीक है। आधुनिक राजनीतिक चिंतन में उनकी मान्यताएं नवीन दृष्टि और दिशा की परिचायक हैं।
उनकी जन्म जयंती पर हम भारतवासी उन्हें श्रद्धावत सादर नमन करते हैं।
डॉ० ममता पांडेय
सहायक प्राध्यापक राजनीति विज्ञान
पंडित अटल बिहारी वाजपेई
शासकीय महाविद्यालय जयसिंहनगर
जिला शहडोल मध्य प्रदेश
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