प्रायश्चित और पश्चाताप में क्या फ़र्क़ है ? दोनों का पाप या पुण्य से कोई रिश्ता ? जानिए “कुमार राकेश” से –

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

कुमार राकेश

किसी भी पाप को करने के पश्चात जो उसके प्रभाव को कम करने हेतु कर्म किये जाते हैं , वह प्रायश्चित्त कहलाता है ।

हमने जो पाप किया है उसका फल तो मिलकर ही रहेगा , वह कहीं भी नहीं जाएगा ।

उस फल के प्रभाव को कम करने हेतु जो पुण्य कर्म किये जाते हैं , वह प्रायश्चित्त कहलाता है ।

ऐसे समझिये कि एक ग्लास आपके पास नमकीन पानी है । उसे आपको पीना ही पड़ेगा ।

लेकिन उस नमकीन पानी में चीनी भी मिला देना , वह प्रायश्चित्त है।

नमकीन पानी जस का तस है , लेकिन चीनी मिलाने से उसकी व्यापकता और गंभीरता पर असर पड़ा ।

जैसे कोई अग्नि में जल रहा हो , तो प्रायश्चित्त कर्म ऊपर से पानी फेंकने के बराबर है ।

अर्थात फफोले नहीं पड़ेंगे लेकिन जलन का आभास फिर भी भोगना ही पड़ेगा ।

पाप और पुण्य कभी नहीं खत्म होता । हाँ साधारण भाषा में बोला जाता है कि पाप खत्म हो गया या पुण्य खत्म हो गया ।

यह पाप और पुण्य एकमात्र भगवदप्राप्ति के पश्चात ही सम्भव है ।

रही बात तन से करने की तो तन से कोई कार्य नहीं किया जा सकता जब तक मन उसको आदेशित न करे ।

विश्व का कोई भी जीव तब तक कोई कर्म नहीं करता जब तक मन में यह दृढ़ निश्चय न हो जाए कि अमुक कर्म करने से मेरा लाभ है ।

विश्व का कोई जीव कभी भी ग़लत कार्य नहीं करता और न ही कर सकता है ।

जब तक मन के अंदर यह दृढ़ विश्वास न हो जाये कि अमुक कर्म करने से उसका लाभ है तब तक कोई भी कर्म नहीं हो सकता या कर सकता ।

विश्व में कोई भी व्यक्ति कभी भी ग़लत कार्य नहीं करता ।

किसी हत्यारे से भी पूछेंगे , वह यही कहेगा कि उस समय जो सही था या उसके मन ने जो सही बोला उसी के अनुरूप उसने यह कार्य किया ।

उस समय उसके मन ने बोला कि अमुक कार्य ठीक है तो उसने तुरंत वह कार्य किया ।

पश्चात्ताप कहते हैं , पश्चात होने वाला ताप ।

भले उस समय उसके मन ने वह कार्य सही बताया हो ,लेकिन बाद में आभास हुआ हो कि अरे वह कार्य तो ग़लत था , तो उसे पश्चात्ताप बोलते हैं , कि बाद में उसे बुद्धि आयी ।

तो विश्व का कोई भी कार्य तन से नहीं किया जाता या चाहकर भी नहीं कर सकते ।

इसलिए मन को ही केंद्रित कर सभी साधना , सभी ग्रन्थ , सभी कार्य बताये गए हैं ।

क्योंकि चित्तमेव हि संसारः ।

मनमेव हि संसारः ।।

सब कुछ यही है । पाप पुण्य सब मन के द्वारा परिणत होते हैं , उसमें तन का कोई योगदान नहीं है ।

तन तो जड़ है उसे चेतन करने वाला मन है ।

जैसे किसी ने गाड़ी से accident कर दिया तो judge साहब गाड़ी को दंड या जेल नहीं करेंगे , गाड़ी को चला रहा था दंड उसे मिलेगा ।

प्रायश्चित्त का अगर संधि विच्छेद करें तो होता है :- प्रायः + चित्त ।

इसिलिए चित्त ही प्रमुख है । अर्थात मन ही प्रमुख है ।

मन ही सब कर्मों का कर्ता है । केवल मन मन मन ।

इसीलिए गीता में भगवान ने कहा कि अर्जुन तू केवल मुझे मन दे दे ।।

यह नहीं कहा कि तू अपना हाथ दे दे ,या पैर , या आँख , या गांडीव , या घोड़ा इत्यादि ।

केवल मन मन मन ।

बार बार एक ही बात समझाता हूँ ,वह भी आज से नहीं जब से यह ग्रुप शुरू हुआ है कि सभी कार्यों का कर्ता केवल मन है ।

मन को ही साधना करना है । मन ही पाप करता है । मन ही पुण्य करता है ।

इन्द्रियाँ केवल और केवल उसकी सहायक हैं ।

मन को ही गुरु के तत्व ज्ञान से पुष्ट करना है , तन को नहीं ।

मन मन मन मन मन और केवल मन ।
प्रस्तुति -:कुमार राकेश

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.