प्राचीन भारतीय खेल

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विविध क्षेत्रों में, विविध आयामों में कभी हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ थे, इस पर अधिकतर भारतीयों का विश्वास ही नहीं हैं। यह हमारा दुर्भाग्य हैं।

खेलों के बारे में भी यही सोच है। विश्व का पहला और सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत में हैं, यह हमने पिछले आलेख में देखा हैं। किंतु भारतीय खिलाड़ियों ने, खेलकूद संगठनों ने और सरकार ने भी, इस विषय पर जितना चाहिए, उतना ध्यान नहीं दिया हैं। लूडो, शतरंज (चेस), सांप-सिडी जैसे बैठकर खेलने वाले खेल, अर्थात ‘बोर्ड गेम’, यह भारत की, विश्व को दी हुई देन हैं। इस पर आज भी अनेक लोगों का विश्वास नहीं हैं।

जैसे बैठकर खेले जाने वाले खेलों का, वैसे ही मैदानी खेलों (अर्थात, आउटडोर गेम्स) का हाल है। पांच हजार वर्ष पहले, दर्शक दीर्घा वाला स्टेडियम तैयार करने वाला अपना देश, मैदान में खेले जाने वाले खेलों में पीछे रह सकता हैं, यह संभव ही नहीं हैं। मल्ल युद्ध (आज की भाषा में – कुश्ती), धनुर्विद्या (ओलंपिक में खेली जाने वाली आर्चरी यह प्रतियोगिता), भाला फेक, तलवारबाजी, नि:युद्ध, रथों की प्रतियोगिता, बैलगाड़ियों की दौड़, खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डंडा… यह सब, प्राचीन भारत में खेले जाने वाले खेल हैं। इनमें से अनेक खेल, आज भी खेले जाते हैं।

जैकी चैन, ब्रूस ली यह कलाकार हॉलीवुड की मूवीज के माध्यम से दुनिया में प्रसिद्ध हुए। उनके ‘कराटे किड’, ‘शांघाई नून’, ‘रश अवर’, ‘एंटर द ड्रैगन’ जैसी मूवीज बहुत हिट हुई। इन सब में जो आकर्षण था, वह था – मार्शल आर्ट। अर्थात, कुंग फू – कराटे, जिनका दोनों ने मूवीज में भरपूर उपयोग किया हैं। जैकी चैन और ब्रूस ली की मूवीज में, या ’36 चैंबर ऑफ शाओलिन’ जैसे पिक्चर में, जो मार्शल आर्ट दिखाया हैं, उसका जन्म भारत में हुआ हैं..!

जी हां, कराटे – कुंग फू जैसे मार्शल आर्ट की जननी अपना भारत देश हैं। चीनी और ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी यह लिखकर रखा हैं।

मार्शल आर्ट इस क्रीडा प्रकार का उल्लेख या जिक्र भारत में अनेक जगह, कलारीपयट्टू इस नाम से मिलता हैं। धनुर्वेद यह यजुर्वेद का एक उपवेद हैं। यह कम से कम, तीन हजार वर्ष पहले लिखा गया होगा, ऐसी मान्यता हैं। मूलत: यह धनुर्विद्या के संदर्भ का ग्रंथ हैं। किंतु इसमें मार्शल आर्ट का उल्लेख आता हैं। ‘कलारीपयट्टू’ जैसे क्रीडा प्रकार के संबंध में इसमें विस्तार से लिखा गया हैं।

दक्षिण भारत में जिसे ‘संगम साहित्य’ कहा जाता हैं, उसका कालखंड 2500 वर्ष पहले का हैं। इसमें ‘पुरम’ और ‘अकम’ नाम के काव्य प्रकार है। इन काव्य प्रकार में, ‘कलारीपयट्टू’ इस मार्शल आर्ट का कई बार उल्लेख आया हैं।

भारत के मार्शल आर्ट का नाम, ‘बोधिधर्म’ इस नाम के बिना पूर्ण नहीं हैं। पांचवीं शताब्दी के यह बौद्ध भिक्षु थे। लेकिन बौद्ध भिक्षु होने से पहले, वे दक्षिण के पराक्रमी, पल्लव राजवंश के युवराज थे।

आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व, कोरोना जैसी ही महामारी चीन में फैली थी।इसका असर प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष रूप से भारत पर भी होने लगा था। उस महामारी को रोकने के लिए, चीन के सम्राट के अनुरोध पर, बोधिधर्म के गुरु ने उन्हे चीन जाने के लिए कहा। बोधिधर्म उनके आयुर्वैदिक ज्ञान के लिए और कलारीपयट्टू जैसे मार्शल आर्ट के लिए जाने जाते थे। बौद्ध धर्म अहिंसा का संदेश देने वाला धर्म हैं। लेकिन सतत प्रवास करने वाले बौद्ध भिक्षुओं के संरक्षण के लिए, कलारीपयट्टू जैसे क्रीडा प्रकार सिखाए जाते थे।

चीनी ग्र॔थों के अनुसार, वर्ष 528 में, बोधिधर्म चीन में पहुंचे। वह चीन के सम्राट ‘वू ऑफ लियांग’ (Wu of Liang अर्थात, Xiao Yan) से मिले। चीन की उस भयंकर महामारी को काबू करने में बोधिधर्म के आयुर्वैदिक ज्ञान का उपयोग हुआ। वह शाओलिन के आश्रम में रहने लगे। वहां के बौद्ध भिक्षुओं को उन्होंने कलारीपयट्टू यह स्वत: की रक्षा करने वाला खेल सिखाया। आगे चलकर यही खेल, ‘कुंग फू’ और ‘कराटे’ नामों से विश्व में प्रसिद्ध हुआ। बोधिधर्म को चीन में ‘दामो’ (Damo) और ‘बू ताओ’ इन नाम से जाना जाता हैं।

बोधिधर्म के चीन में रहने का अनेक चीनी ग्रंथों में उल्लेख आता है। ‘7 Aum Arivu’ नाम के तमिल पिक्चर में (हिंदी में इसकी बॉलीवुड छाप नकल – ‘चेन्नई वर्सेस चाइना’) में बोधिधर्म का जीवन पट विस्तार से दिखाया हैं।

रथों की प्रतियोगिता

जैसे कुंग फू / कराटे का जन्म भारत में हुआ हैं, वैसे ही रथों की प्रतियोगिता का उद्गम भी भारत में ही हुआ हैं। किंतू, वैश्विक स्तर पर इसे मान्यता नहीं हैं। ‘ग्रीस (यूनान) ही रथों का, और रथों की प्रतियोगिता का, उद्गम वाला देश हैं’, ऐसा माना जाता हैं। ओलिंपिक का ग्रीस में हुआ प्रारंभ तथा वर्ष 1959 में रिलीज हुई ‘बेनहर ‘ यह मूवी, इन सब के कारण ‘ग्रीस ही रथों की प्रतियोगिता करने वाला पहला देश हैं’ या मान्यता दृढ हुई। इसलिए विकिपीडिया, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका जैसे जानकारी के स्रोत, पूर्णतया ग्रीस की जानकारी से भरे पड़े हैं। इनमें कहीं भी भारत नहीं हैं। दो हजार वर्ष पहले भारत में रथ थे, या रथ बहुत दूर की बात, कम से कम घोड़े थे, इस पर भी विश्व के इतिहासकार विश्वास रखने तैयार नहीं थे।

लेकिन दो जबरदस्त प्रमाणों ने पश्चिम के इतिहासकारों के इस विमर्श (Narrative) को ध्वस्त कर दिया। वर्ष 1957 में जब पद्मश्री हरिभाऊ वाकणकर जी ने भोपाल के पास स्थित भीमबेटका गुफाओं को खोजा, तब ‘सिकंदर (अलेक्झांडर) भारत मे आने तक भारत में घोड़े भी नहीं थे’ यह मान्यता रद्द हुई। इन गुफाओं में अनेक शैल चित्र अर्थात भित्ति चित्र (दीवारों पर उकेरे गए चित्र) मिले। कार्बन डेटिंग में इन शैल चित्रों की आयु, तीस हजार से पैंतीस हजार वर्ष पहले की हैं, यह सिद्ध हुआ हैं। और मजेदार बात यह, कि उन गुफाओं में घोडों के शैल चित्र हैं..!

अर्थात, इस बात से स्पष्ट होता है कि भारत में साधारणतः तीस – पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, घोड़ों का उपयोग होता था।

रथों का उपयोग भारत में प्राचीन काल से होता आया हैं। रामायण, महाभारत में इसके अनेक उदाहरण स्पष्ट रूप से मिलते हैं। परंतु दुर्भाग्य से रामायण, महाभारत को पश्चिम के इतिहासकार, इतिहास ही नहीं मानते। इसलिए अपने पुराणों के उदाहरण उनको स्वीकार्य नहीं हैं। अर्थात, भारत पर ग्रीकों (युनानीयों) का आक्रमण होने के पहले भी, भारत में रथों का उपयोग होता रहा हैं, इस बात को दुनिया के इतिहासकार स्वीकार नहीं करते थे।

लेकिन एक अकाट्य प्रमाण के कारण यह मिथक भी ध्वस्त हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बागपत जिला हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के कारण यह जिला प्रसिद्ध है। इस जिले के बड़ौत तहसील के सिनौली ग्राम में कुछ वर्ष पहले पुरातत्व विभाग की ओर से उत्खनन हुआ। डॉक्टर संजय कुमार मंजुल के नेतृत्व में, कोरोना से पहले, वर्ष 2018 में यह उत्खनन प्रारंभ हुआ।

इस उत्खनन में एक तांबे का रथ मिला। कार्बन डेटिंग के बाद यह सिद्ध हुआ कि यह रथ ईसा पूर्व 1800 से 2000 वर्ष पुराना हैं। अर्थात आज से 3800 से 4000 वर्ष पहले का यह तांबे का रथ हैं। इसका अर्थ हैं, ग्रीक (युनानी) भारत में आने के बहुत पहले से भारत में रथों का और घोड़ों का उपयोग होता रहा है, यह निर्णायक रूप से सिद्ध हुआ।

ऋग्वेद के दसवें मंडल के 101 वे सूक्त के सातवें मंत्र में उल्लेख है –
प्री॒णी॒ताश्वा॑न्हि॒तं ज॑याथ स्वस्ति॒वाहं॒ रथ॒मित्कृ॑णुध्वम् । द्रोणा॑हावमव॒तमश्म॑चक्र॒मंस॑त्रकोशं सिञ्चता नृ॒पाण॑म् ॥
अर्थात, इस प्रकार घास आदि की उत्पत्ति हो जाने पर घोड़े आदि को तृप्त करो। हित अन्न को प्राप्त करो। इस प्रकार घास अन्न से समृद्ध होते हुए, कल्याणवाहक रथ को अवश्य बनाओ। काष्ठमय जलपात्रवाले, घूमते हुए चक्र से युक्त कुएँ को गति करते हुए यन्त्रों के रक्षक गुप्त घर को बनाओ। कृषकजनों की रक्षा जिससे हो, ऐसे खेत को सींचो-प्रवृद्ध करो ॥७॥

मजेदार बात यह है, कि दुनिया का सबसे पुराना, घोड़े के प्रशिक्षण का जो हस्तलिखित मैन्युअल मिला हैं, वह तुर्किस्तान और सीरिया के बॉर्डर पर बसे हुए गांव में। इसमें जिस भाषा का प्रयोग किया गया हैं, उसमें अंकों की जानकारी संस्कृत में हैं!

भारतीय साहित्य में ‘रथी / महारथी’ इन शब्दों का प्रयोग वर्षों से होता आ रहा हैं। यह रथों से ही संबंधित हैं। इसा पूर्व कालखंड में, (अर्थात इसा पूर्व 492 – 460) मगध देश के राजा अजातशत्रु ने ‘रथ मुसल’ का उपयोग किया, ऐसा उल्लेख मिलता हैं।

ऋग्वेद और अथर्ववेद में उस समय के ‘घोड़ों की प्रतियोगिता के मैदान’ (रेस कोर्स) का उल्लेख मिलता हैं। उस समय रेस कोर्स को ‘काष्ठा कहते थे।
हन्तो॒ नु किमा॑ससे प्रथ॒मं नो॒ रथं॑ कृधि । उ॒प॒मं वा॑ज॒यु श्रव॑: ॥
अवा॑ नो वाज॒युं रथं॑ सु॒करं॑ ते॒ किमित्परि॑ । अ॒स्मान्त्सु जि॒ग्युष॑स्कृधि ॥
अर्थात, ईश्वर हम लोगों के रथ को विजयी और हमको विजेता बनावे ॥६॥
मा सी॑मव॒द्य आ भा॑गु॒र्वी काष्ठा॑ हि॒तं धन॑म् । अ॒पावृ॑क्ता अर॒त्नय॑: ॥
(ऋग्वेद 8 / 80 / 8. अथर्ववेद 2 / 14 / 6)। घोड़ों की रेस जीत कर जो पुरस्कार मिलता था उसे ‘कारा’ और ‘भारा’ कहते थे। ऋग्वेद में ही मुद्गल ऋषि से संबंधित सूक्त हैं। उसमें भी रथों की प्रतियोगिताओं का उल्लेख हैं।

कुल मिलाकर रथों की प्रतियोगिता का उद्गम भारत में ही हुआ हैं। बाद में अन्य विविध माध्यमों से यह खेल, मेसोपोटेमिया, ग्रीस, रोम तक पहुंचा यह स्पष्ट होता हैं।

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