समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,24 फरवरी। भारतीय राजनीति में कई घटनाएं ऐसी रही हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गईं। 1976 का वर्ष भी ऐसी ही एक घटना का साक्षी बना, जब एक सांसद को अपनी संसद सदस्यता बचाने के लिए तेजी से कार्रवाई करनी पड़ी।
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नई दिल्ली,24 फरवरी। भारतीय राजनीति में कई घटनाएं ऐसी रही हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गईं। 1976 का वर्ष भी ऐसी ही एक घटना का साक्षी बना, जब एक सांसद को अपनी संसद सदस्यता बचाने के लिए तेजी से कार्रवाई करनी पड़ी।
1976 का दौर आपातकाल (Emergency) का था, जब राजनीतिक माहौल अस्थिर और कड़े नियंत्रण में था। भारतीय संविधान के तहत किसी भी सांसद की सीट लगातार 60 दिनों तक सदन से गैर-हाजिर रहने पर रिक्त घोषित की जा सकती है। इसी नियम के तहत एक सांसद की सीट पर संकट आ गया क्योंकि वे लंबे समय से संसद की कार्यवाही से अनुपस्थित थे।
जब उन्हें इस बात की जानकारी मिली कि उनकी ग़ैरहाज़िरी के कारण उनकी सीट पर खतरा मंडरा रहा है, तो उन्होंने तेजी से संसद पहुँचने और स्थिति को सुधारने के लिए पूरी ताकत झोंक दी।
इस घटनाक्रम ने भारतीय राजनीति में एक अनोखा मोड़ ला दिया, क्योंकि यह सिर्फ एक सीट की लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह एक राजनीतिक अस्तित्व को बचाने का संघर्ष बन गया। जब यह खबर सामने आई कि उनकी अनुपस्थिति उनकी संसदीय सदस्यता समाप्त कर सकती है, तो उन्होंने बिना देरी किए संसद पहुँचने के प्रयास शुरू किए।
यह दौड़ सिर्फ भौतिक दूरी तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें राजनीतिक दबाव, रणनीतिक वार्ताएं और प्रक्रियाओं की पेचीदगियाँ भी शामिल थीं। अंततः उनकी सीट बच गई, लेकिन यह घटना उन सांसदों के लिए एक सख्त चेतावनी बन गई जो बिना किसी वैध कारण के सदन से अनुपस्थित रहते हैं।
1976 में एक ‘ग़ैरहाज़िर’ सांसद द्वारा अपनी सीट बचाने के लिए की गई अचानक और तेज़ दौड़ केवल व्यक्तिगत राजनीतिक अस्तित्व बचाने का प्रयास नहीं थी, बल्कि इसने भारतीय संसदीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण सीख भी दी। इस घटना ने संसदीय उपस्थिति और जिम्मेदारी के महत्व को उजागर किया, जिसे आज भी भारतीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना जाता है।