“सैम बहादुर”: देश के वीर सपूत फील्ड मार्शल सैम मानेकशा की गौरवगाथा

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,7 अप्रैल।
भारत के सैन्य इतिहास में यदि किसी नाम को सम्मान, रणनीति और निडरता का प्रतीक कहा जाए, तो वह हैं फील्ड मार्शल सैम मानेकशा। 20वीं शताब्दी के इस प्रख्यात सेनापति का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता एक चिकित्सक थे। पारसी परंपरा अनुसार वे पूरे नाम सैमजी होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा से जाने जाते थे, लेकिन उनके मित्र और सैनिक उन्हें स्नेहपूर्वक “सैम बहादुर” कहकर पुकारते थे।

बचपन से ही उनका सपना भारतीय सेना में सेवा देने का था। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे गोरखा रेजिमेंट में मेजर के रूप में बर्मा (अब म्यांमार) मोर्चे पर जापानी सेना से लड़े। इस युद्ध में उन्हें पेट और फेफड़ों में मशीनगन की नौ गोलियां लगीं। दुश्मन उन्हें मृत समझ बैठा, लेकिन वे जीवित बचे—दृढ़ इच्छाशक्ति और वीरता की मिसाल बनकर। इस अद्भुत साहस के लिए उन्हें “मिलिट्री क्रॉस” से सम्मानित किया गया।

1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से शरणार्थियों का सैलाब भारत आने लगा, तब स्थिति बेहद संवेदनशील हो गई थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल मानेकशा से तत्काल युद्ध का आदेश देने की बात कही। परंतु मानेकशा ने स्पष्ट कहा—”युद्ध अगर होगा, तो हमारी शर्तों पर और पूरी तैयारी के साथ होगा।”

उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा कि वर्षा के मौसम में हमला करना आत्मघाती होगा। यदि आप चाहें तो मेरा त्यागपत्र ले लीजिए, पर युद्ध तभी होगा जब हम थल, वायु और जल तीनों सेनाओं के साथ एकजुट होकर तैयारी करेंगे।

इंदिरा गांधी ने उनकी रणनीति पर भरोसा जताया। और फिर दिसंबर 1971 में जब युद्ध हुआ, तो केवल 14 दिनों में पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। यह सैन्य इतिहास का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। इस अभूतपूर्व विजय ने बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र को जन्म दिया।

युद्ध के बाद भी मानेकशा ने विनम्रता दिखाई। उन्होंने आत्मसमर्पण कार्यक्रम में जाने से मना करते हुए उसका श्रेय जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को दिया और उन्हें ही ढाका भेजा।

1948 में ब्रिगेडियर, 1957 में मेजर जनरल, 1962 में लेफ्टिनेंट जनरल, और फिर 1969 में उन्हें थल सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। 1971 की विजय के बाद उन्हें भारतीय सेना के सर्वोच्च पद फील्ड मार्शल से सम्मानित किया गया। 1973 में उन्होंने सक्रिय सेवा से अवकाश लिया।

एक बार जब देश राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था, तब इंदिरा गांधी ने उन्हें सत्ता संभालने का संकेत दिया। मानेकशा ने मुस्कराते हुए कहा—“मेरी नाक लंबी जरूर है, पर मैं उसे राजनीति में नहीं घुसाता।” यह उनके सिद्धांतों और लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाता है।

26 जून 2008 को उनका निधन तमिलनाडु के वेलिंगटन स्थित एक सैन्य अस्पताल में हुआ। वे 94 वर्ष के थे। दुर्भाग्यवश, उनके अंतिम संस्कार में भारत सरकार का कोई बड़ा अधिकारी उपस्थित नहीं था, जो राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना का विषय भी बना।

फील्ड मार्शल सैम मानेकशा भारतीय सेना के इतिहास में वीरता, नेतृत्व और नैतिक मूल्यों का जीवंत प्रतीक हैं। उनका जीवन हर भारतीय के लिए प्रेरणा है—कि साहस, दृढ़ता और ईमानदारी से कोई भी लड़ाई जीती जा सकती है।

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