समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,8 अप्रैल। तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष पद से के. अन्नामलाई के इस्तीफे ने प्रदेश की राजनीति में एक नई हलचल पैदा कर दी है। अन्नामलाई ने इसे सामान्य संगठनात्मक प्रक्रिया बताया, लेकिन जानकार मानते हैं कि यह कदम भारतीय जनता पार्टी की एक दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है, जिसकी पटकथा दिल्ली में पहले ही लिखी जा चुकी थी। यह इस्तीफा ऐसे समय में आया है जब एआईएडीएमके के नेता ई. पलानीस्वामी ने दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह से लंबी बैठकें कीं, जिससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि भाजपा दक्षिण में कुछ बड़ा सोच रही है।
लेकिन इन घटनाओं के पीछे एक और गंभीर विषय छिपा है — वह है राज्य की वर्तमान सरकार की बढ़ती राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति। यह केवल राजनीतिक असहमति नहीं है, बल्कि संविधान, संस्थानों और भारत की एकता पर सीधा हमला है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
तमिलनाडु सरकार ने नीट परीक्षा से बाहर निकलने के लिए जो विधेयक पारित किया, वह केवल एक शिक्षा नीति का मसला नहीं था। यह एक संगठित प्रयास था केंद्र सरकार की नीति और राष्ट्रीय एकरूपता को चुनौती देने का। यह विधेयक राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा गया, लेकिन अंततः उसे खारिज कर दिया गया। इसके बावजूद, जिस अंदाज़ में राज्य सरकार ने एक केंद्रीय कानून को दरकिनार करने की कोशिश की, वह एक खतरनाक उदाहरण प्रस्तुत करता है।
यह किसी भी राज्य की स्वायत्तता का विषय नहीं है, बल्कि राष्ट्र की एकता के खिलाफ सोच-समझकर उठाया गया कदम है। जब एक निर्वाचित सरकार केंद्र की नीतियों को सिरे से नकारने लगे, तो यह महज़ मतभेद नहीं रह जाता — यह संवैधानिक विद्रोह बन जाता है।
डीएमके सरकार का हिंदी, संस्कृत और राष्ट्र की साझा सांस्कृतिक पहचान के प्रति विरोध अब केवल बयानबाज़ी तक सीमित नहीं रहा। अब यह नीतिगत फैसलों और प्रशासनिक कार्यों में भी झलकने लगा है। यह एक ऐसा नैरेटिव गढ़ा जा रहा है जिसमें दक्षिण भारत को शेष भारत के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है।
सांस्कृतिक विविधता का सम्मान होना चाहिए, लेकिन जब वह विविधता राष्ट्र की बुनियादी एकता को तोड़ने का औजार बन जाए, तो वह खतरनाक हो जाती है। चाहे वह सनातन धर्म के खिलाफ बयान हों, या अयोध्या राम मंदिर जैसे मुद्दों पर तिरस्कार — यह सब एक संगठित प्रयास का हिस्सा लगता है जिसमें बहुसंख्यक समाज को हाशिए पर धकेलने की कोशिश की जा रही है।
जब कोर्ट उनके खिलाफ फैसला सुनाता है, तब तमिलनाडु सरकार उसे ‘राजनीतिक’ बता देती है। जब राष्ट्रपति कोई विधेयक अस्वीकार करते हैं, तो केंद्र सरकार को ‘तानाशाही’ कहा जाता है। यह एक ऐसा नैरेटिव है जो लोकतांत्रिक संस्थाओं को बदनाम करने और लोगों में केंद्र के खिलाफ भावना भड़काने का काम करता है।
इसी के साथ-साथ राज्य सरकार द्वारा मंदिरों पर अत्यधिक नियंत्रण, जबकि अन्य धर्मों के संस्थानों को छूट, भी सवालों के घेरे में है। यह कथित ‘धार्मिक सुधार’ असल में एकतरफा कार्रवाई है, जिससे बहुसंख्यक धार्मिक भावनाओं को आहत किया जा रहा है।
तमिलनाडु में अनुसूचित जाति और जनजातियों में जबरन या प्रलोभन के ज़रिए धर्मांतरण की घटनाएँ तेजी से बढ़ रही हैं। यह मुद्दा राज्य सरकार की चुप्पी और कभी-कभी इन प्रयासों में अप्रत्यक्ष समर्थन की वजह से और भी गंभीर हो गया है।
भारत में धार्मिक स्वतंत्रता है, लेकिन संगठित धर्मांतरण की आड़ में सामाजिक ताने-बाने को तोड़ा जा रहा है। यह न केवल धार्मिक असंतुलन पैदा करता है, बल्कि सामाजिक शांति को भी खतरे में डालता है। डीएमके सरकार इस पर आंख मूंदे बैठी है, जिससे उसकी मंशा पर सवाल उठते हैं।
इस सबके बीच भाजपा की रणनीति साफ होती जा रही है। अन्नामलाई, जिन्होंने अपनी स्पष्टवादिता और युवाओं से जुड़ाव के दम पर पार्टी को गाँव-गाँव तक पहुँचाया, अब एक बड़े उद्देश्य के लिए कुछ समय के लिए पीछे हटे हैं। उनकी तुलना अमेरिका के विवेक रामास्वामी जैसे नेताओं से की जा सकती है, जिनके भाषणों में विचारों की स्पष्टता और दिशा होती है।
हालांकि, तमिलनाडु जैसे राज्य में दीर्घकालिक संघर्ष के लिए तत्काल सामंजस्य भी ज़रूरी है। डीएमके के मजबूत किले को तोड़ने के लिए भाजपा और एआईएडीएमके को एक साथ आना होगा — साथ ही शशिकला, टीटीवी दिनाकरन और ओ. पनीरसेल्वम जैसे नेताओं को भी साथ लेना होगा, जो अपने-अपने समुदायों में प्रभाव रखते हैं।
ऐसे में अन्नामलाई को राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका दी जा सकती है — जैसे राज्यसभा और फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान। यह न केवल उनकी प्रतिभा को नई उड़ान देगा, बल्कि भाजपा को दक्षिण भारत में एक स्थायी चेहरा भी मिलेगा।
तमिलनाडु इस समय केवल राजनीतिक बदलाव नहीं देख रहा — यह एक वैचारिक और राष्ट्रीय चेतना का क्षण है। जब राज्य सरकार राष्ट्रविरोधी विचारों को वैधता देने लगे, तब राष्ट्रीय दलों और संस्थाओं की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वे संतुलन स्थापित करें।
अन्नामलाई जैसे नेता दीर्घकालिक दृष्टि के लिए अहम हैं। भले ही अभी उन्होंने एक कदम पीछे लिया हो, लेकिन उनके नेतृत्व में भाजपा ने तमिलनाडु में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। 2026 का विधानसभा चुनाव इस लड़ाई का अगला पड़ाव होगा — और राष्ट्रहित बनाम क्षेत्रीय अहंकार की यह लड़ाई अब निर्णायक चरण में प्रवेश कर चुकी है।