वक्फ सुधार: भारत को संविधान से चलाया जाए या शरीअत से?

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,8 अप्रैल।
भारत जैसे विविधताओं से भरे लोकतांत्रिक देश में शासन व्यवस्था और धार्मिक मान्यताओं के बीच संतुलन हमेशा से बहस का विषय रहा है। हाल के वर्षों में वक्फ बोर्डों और उससे जुड़े मामलों पर जो सवाल उठे हैं, उन्होंने एक बार फिर यह गंभीर प्रश्न खड़ा किया है—क्या भारत को संविधान के अनुसार चलाया जाना चाहिए या धार्मिक कानूनों, विशेष रूप से शरीअत, के अधीन?

वक्फ एक इस्लामी धार्मिक संस्था है, जिसके अंतर्गत मुसलमान अपनी संपत्ति को धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए समर्पित करते हैं। ये संपत्तियाँ वक्फ बोर्ड के अधीन आती हैं, जो राज्य या केंद्रीय वक्फ परिषद के निर्देशानुसार उनका प्रबंधन करता है। भारत में लाखों एकड़ ज़मीन वक्फ संपत्तियों के तहत आती हैं।

वक्फ बोर्डों के पास इतनी संपत्ति होने के बावजूद पारदर्शिता की भारी कमी रही है। अक्सर इन संपत्तियों के दुरुपयोग, अवैध कब्जों, और राजनीतिक संरक्षण के आरोप लगे हैं। आलोचकों का कहना है कि वक्फ अधिनियम एक समान नागरिक कानून के विपरीत एक धार्मिक व्यवस्था को प्राथमिकता देता है, जिससे संविधान की भावना पर सवाल खड़े होते हैं।

भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की बात करता है—चाहे वे किसी भी धर्म के हों। वहीं शरीअत, एक धार्मिक कानून प्रणाली है, जो विशेष रूप से मुसलमानों के व्यक्तिगत मामलों (जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार) को नियंत्रित करती है।

जब वक्फ जैसी संस्थाएँ शरीअत के आधार पर कार्य करती हैं, तब यह टकराव उत्पन्न होता है: क्या सार्वजनिक संसाधनों और जमीनों का प्रबंधन धार्मिक नियमों के आधार पर होना चाहिए या संविधानिक संस्थाओं के तहत?

कई विशेषज्ञों और न्यायविदों का मानना है कि वक्फ बोर्डों में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। इसमें शामिल हो सकते हैं:

  • पारदर्शिता और ऑडिट व्यवस्था

  • राज्य और धार्मिक संस्थाओं के बीच स्पष्ट सीमाएं

  • वक्फ संपत्तियों का डिजिटलीकरण और सार्वजनिक डेटा उपलब्ध कराना

  • सभी धर्मों के लिए समान संपत्ति कानून का निर्माण

इस मुद्दे का राजनीतिकरण भी कम नहीं है। कुछ राजनीतिक दल इसे मुस्लिम समुदाय के अधिकारों पर हमला बताते हैं, तो कुछ इसे समान नागरिक संहिता की दिशा में जरूरी कदम करार देते हैं। लेकिन सवाल यही है कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में कानून किस आधार पर लागू होना चाहिए—आस्था या संविधान?

भारत की बहुलतावादी व्यवस्था में किसी भी धार्मिक संस्था को संविधान से ऊपर नहीं माना जा सकता। वक्फ जैसी संस्थाओं का उद्देश्य धार्मिक आस्था से जुड़ा हो सकता है, लेकिन उनका संचालन सार्वजनिक हित, पारदर्शिता और न्याय की कसौटी पर ही होना चाहिए। वक्फ सुधार केवल एक धर्म विशेष का विषय नहीं है, यह भारत की धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की परीक्षा भी है।

क्या आप मानते हैं कि सभी संस्थाएँ संविधान के अधीन हों, या धार्मिक कानूनों को विशेष दर्जा मिलना चाहिए? यह प्रश्न आज सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक और राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बन चुका है।

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