तमिलनाडु विधेयक प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: राज्यपाल की निष्क्रियता को बताया असंवैधानिक
नई दिल्ली/चेन्नई – सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को मंजूरी न देने के फैसले को कानून के अनुरूप नहीं मानते हुए खारिज कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल का ऐसा व्यवहार न केवल संविधान के विरुद्ध है, बल्कि विधायी प्रक्रिया में भी गंभीर बाधा उत्पन्न करता है।
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने अपने फैसले में दो टूक शब्दों में कहा कि राज्यपाल कोई राजनीतिक पदाधिकारी नहीं, बल्कि एक संवैधानिक प्रमुख हैं, और उन्हें संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं में रहकर ही कार्य करना चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। संविधान का अनुच्छेद 200 स्पष्ट रूप से कहता है कि राज्यपाल को किसी भी विधेयक पर “जितनी जल्दी हो सके” निर्णय लेना चाहिए। इसका आशय यह है कि विधेयकों पर निर्णय में जानबूझकर देरी न की जाए, न ही ‘फुल वीटो’ या ‘पॉकेट वीटो’ जैसे गैर-संवैधानिक तरीकों का उपयोग किया जाए।
इस मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए एक असाधारण कदम उठाया और सभी 10 विधेयकों को “स्वीकृति प्राप्त” मान लिया। अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय प्रदान कर सके, विशेष रूप से तब, जब अन्य कानूनी उपाय विफल हो जाएं या अनुपलब्ध हों।
न्यायालय ने अपने 2023 के पंजाब मामले के फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि राज्यपाल विधायी प्रक्रिया में बाधा नहीं बन सकते। यह जिम्मेदारी राज्य की चुनी हुई सरकार की होती है कि वह जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप विधेयक लाए, और राज्यपाल का दायित्व है कि वह उस प्रक्रिया को सम्मान दे।
तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच लंबे समय से चले आ रहे टकराव के बीच आया यह फैसला देश भर में राज्यपालों की भूमिका और उनकी संवैधानिक सीमाओं पर नई बहस छेड़ सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला संघीय ढांचे को मजबूत करने की दिशा में एक निर्णायक कदम साबित होगा।
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय न केवल तमिलनाडु के संदर्भ में, बल्कि पूरे देश के लिए एक मिसाल बनकर सामने आया है। यह स्पष्ट संदेश देता है कि राज्यपाल का पद केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संविधान के प्रति जवाबदेह भी है — और किसी भी स्थिति में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बाधा डालना अस्वीकार्य है।
यह फैसला न केवल संवैधानिक मर्यादाओं को रेखांकित करता है, बल्कि विधायिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने की न्यायपालिका की भूमिका को भी रेखांकित करता है।