अंशुल कुमार मिश्रा
कर्नाटक राजनीति में फिर से जातिगत समीकरण जोर पकड़ गए हैं। 11 अप्रैल को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में पिछले दशक से भी अधिक समय से लंबित पड़ी जाति जनगणना रिपोर्ट को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। अब इस रिपोर्ट पर 17 अप्रैल को होने वाली विशेष बैठक में विस्तार से चर्चा होगी, जिसके बाद इसके सार्वजनिक किए जाने या विधानसभा में पेश करने का निर्णय लिया जाएगा।
यह रिपोर्ट वर्ष 2015 में तत्कालीन सिद्धारमैया सरकार के कार्यकाल के दौरान कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा तैयार की जानी शुरू हुई थी। इसका उद्देश्य राज्य की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति को जातिवार आंकड़ों के आधार पर समझना था। रिपोर्ट कुल 50 खंडों में विभाजित है और इसमें लगभग 1,820 जातियों एवं उप-जातियों की जानकारी संकलित की गई है। इनमें से 400 से अधिक जातियाँ अन्य राज्यों से आकर कर्नाटक में बसी हुई हैं, जबकि 1,351 जातियों और उप-जातियों की व्यवस्थित गणना की गई है।
रिपोर्ट की खासियत यह है कि इसमें जातियों की भौगोलिक स्थिति, सामाजिक-आर्थिक दशा, तथा विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और आरक्षण की आवश्यकता पर विस्तृत और गहन अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इस रिपोर्ट को लेकर सरकार का दावा है कि यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। लेकिन इसी रिपोर्ट ने राज्य की राजनीतिक भूमि को भी हिला कर रख दिया है।
दो प्रभावशाली जातियों — वोक्कालिगा और लिंगायत — की राज्य सरकार इस रिपोर्ट से खासा असंतुष्ट है। दोनों समुदायों ने रिपोर्ट को “अवैज्ञानिक और पक्षपातपूर्ण” करार दिया है। उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार, जो कि वॉकैलिगा समुदाय से हैं, ने निष्पक्षता के सवालाधीन होते हुए मुख्यमंत्री को ज्ञापन देने से पहले ही ज्ञापन सौंप दिया है और इसकी दोबारा जांच की मांग की है। यह घटना कांग्रेस केwithin ही इंटर-विरोध को उजागर करती है, जो 2024 के लोकसभा चुनाव के ठीक बाद राज्य के राजनीतिक गणित को प्रभावित कर सकती है।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने तो अब स्पष्ट किया है कि रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का या आगे की कार्रवाई का निर्णय 17 अप्रैल की कैबिनेट बैठक में सभी पक्षों की चर्चा के बाद ही किया जाएगा। गृह मंत्री जी. परमेश्वर ने भी यही रुख दोहराया है और कहा है कि यह एक संवेदनशील विषय है, जिस पर जल्दबाज़ी में कोई कदम नहीं उठाया जा सकता।
विपक्ष ने इस सारी प्रक्रिया को राजनीतिक एजेंडा करार दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री और जनता दल (एस) के वरिष्ठ नेता एच.डी. कुमारस्वामी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस सरकार इस मुद्दे को हवा देकर जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाना चाहती है। उन्होंने विशेष रूप से मैसूर अर्बन डिवेलपमेंट अथॉरिटी (MUDA) भूमि घोटाले का ज़िक्र करते हुए कहा कि सरकार जातिगत आंकड़ों के नाम पर असफलताओं को छिपाने की कोशिश कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि यह रिपोर्ट सार्वजनिक होती है और इसके आधार पर आरक्षण नीति में बड़ा बदलाव किया जाता है, तो इसका प्रभाव न केवल कर्नाटक में बल्कि देश भर में महसूस किया जाएगा। यह रिपोर्ट सामाजिक न्याय की बहस को एक नई दिशा भी दे सकती है, खासकर जब जातिगत जनगणना को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर भी मांगें तेज़ हो रही हैं।
हालांकि यह भी सच है कि इस रिपोर्ट के आने से कई नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरण उभर सकते हैं, जिससे सत्तारूढ़ दल के लिए खुद को संतुलन में रखना एक बड़ी चुनौती बन सकता है। जातिगत आंकड़ों का राजनीतिक उपयोग और दुरुपयोग दोनों ही संभावनाएं मौजूद हैं। कांग्रेस सरकार को अब यह तय करना है कि वह इस रिपोर्ट को सामाजिक न्याय का औजार बनाएगी या इसे राजनीतिक हथकंडा बनाकर चुनावी समीकरण साधेगी।
अब सबकी नज़रें 17 अप्रैल को प्रस्तावित कैबिनेट बैठक पर जमी हैं, जो यह निर्धारित करेगी कि यह रिपोर्ट कर्नाटक की राजनीति को एक नई दिशा मिलेगी या एक और विवाद का कारण बनेगी।目前, कर्नाटक में जातिगत राजनीति का पारा चढ़ चुका है और आगामी दिन सियासी रूप से काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।