सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: राष्ट्रपति को अब तीन महीने में लेना होगा विधेयकों पर निर्णय

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नई दिल्ली, 15 अप्रैल | भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट किया है कि राष्ट्रपति को किसी भी विधेयक (बिल) पर अधिकतम तीन महीने के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य होगा। अदालत ने यह निर्णय संविधान की भावना और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करने के उद्देश्य से सुनाया है।

मुख्य न्यायाधीश की अगुआई वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल की ही तरह, राष्ट्रपति को भी किसी विधेयक को “लंबित” रखने का असीमित अधिकार नहीं है। न्यायालय ने कहा कि विधायिका द्वारा पारित बिलों पर यदि समयबद्ध निर्णय न लिया जाए, तो यह न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनदेखी है, बल्कि जनप्रतिनिधियों की भूमिका का भी अपमान है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि यदि राष्ट्रपति द्वारा लंबे समय तक विधेयक को रोके रखा जाए, तो यह “संवैधानिक अनिश्चितता और प्रशासनिक ठहराव” को जन्म देता है। अतः अब किसी भी राज्य से या संसद से राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर उन्हें तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा — चाहे वह मंजूरी देना हो, अस्वीकृति करना हो या पुनर्विचार के लिए लौटाना हो।

यह निर्णय उस याचिका के संदर्भ में आया है, जिसमें शिकायत की गई थी कि कुछ राज्यपाल और राष्ट्रपति विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को महीनों तक बिना किसी निर्णय के लंबित रखते हैं, जिससे प्रशासनिक कार्यों में बाधा आती है। विशेष रूप से तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों में इस विषय को लेकर हाल के वर्षों में कई बार विवाद हो चुका है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है, और उन्हें कार्यपालिका के परामर्श के अनुसार कार्य करना होता है। उन्हें विधेयकों पर अनिश्चितकालीन “विचाराधीन” स्थिति में रखने का कोई विशेषाधिकार नहीं है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 की व्याख्या के तहत कहा गया, जो राष्ट्रपति को संसद द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने की शक्ति देता है।

इस फैसले पर विभिन्न राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं भी सामने आई हैं। विपक्षी दलों ने इसे “लोकतंत्र की जीत” बताया, जबकि कुछ सत्तारूढ़ दलों ने इसे संवैधानिक प्रक्रियाओं में संतुलन बनाए रखने वाला कदम कहा।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक और निर्णायक क्षण है। यह न केवल विधायिका की गरिमा को बनाए रखने की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि संविधान के मूल ढांचे — लोकतंत्र, उत्तरदायित्व और पारदर्शिता — को और सशक्त करता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में यह दिशा-निर्देश केंद्र और राज्यों की विधायी प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित करता है।

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