दिव्य सेन सिंह विशेन
भारत का संविधान न्याय को राज्य के प्रमुख उद्देश्यों में स्थान देता है, और प्रत्येक नागरिक को शीघ्र, सस्ता तथा सुलभ न्याय दिलाने की बात करता है। किंतु आज भारत की न्यायिक प्रणाली जिस संकट से जूझ रही है, वह “न्याय में देरी” (justice delayed) की विकराल समस्या है। लाखों की संख्या में लंबित मामलों के बीच आम नागरिक की न्याय व्यवस्था में आस्था धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। यह स्थिति न केवल संविधान की आत्मा के विरुद्ध है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को भी हिलाने वाली है।
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वर्तमान परिदृश्य: आंकड़ों की ज़ुबानी
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, भारत में 5 करोड़ से अधिक मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं, जिनमें से लगभग 75% मामले 3 साल से अधिक समय से लंबित हैं।
• सुप्रीम कोर्ट में लगभग 83,000 मामले
• हाई कोर्ट्स में 58 लाख से अधिक मामले
• जिला न्यायालयों में 4.4 करोड़ से अधिक मामले
यह स्थिति “न्याय में देरी, अन्याय के बराबर” (Justice delayed is justice denied) की वास्तविकता को उजागर करती है।
मुख्य कारण: देरी और अपारदर्शिता के पीछे की जड़ें
1. न्यायाधीशों की भारी कमी:
15 अप्रैल 2025 को जारी “इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025” के अनुसार , प्रति दस लाख जनसंख्या पर लगभग 15 न्यायाधीश हैं। यह 1987 के विधि आयोग की प्रति दस लाख जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश से काफी कम है।
2. लंबी और जटिल प्रक्रिया:
तारीख दर तारीख की परंपरा, ढीली प्रक्रियाएं और साक्ष्यों की लंबी श्रृंखला न्याय को बाधित करती है।
3. तकनीकी संसाधनों की कमी:
विशेषकर निचली अदालतों में डिजिटल ढांचा, ई-कोर्ट्स और केस ट्रैकिंग सिस्टम प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाए हैं।
4. सरकारी मामलों की अधिकता:
न्यायालयों में लंबित मामलों का लगभग 50% से अधिक हिस्सा सरकार या उसकी संस्थाओं से संबंधित होता है।
5. विलंबित नियुक्तियाँ और स्थानांतरण:
न्यायिक पदों पर नियुक्तियाँ समय पर न होना, न्यायाधीशों का ट्रांसफर और इस्तीफे – सभी व्यवस्था को और धीमा बनाते हैं।
6. अनुशासन और पारदर्शिता की कमी:
न्यायिक जवाबदेही पर स्पष्ट व्यवस्था न होना, आम जनमानस में अविश्वास को जन्म देता है।
न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पर प्रश्न
हाल के वर्षों में कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई में देरी, सुनवाई के समय व तिथि में अस्पष्टता और फैसलों की भाषा व संरचना में अस्पष्टता ने पारदर्शिता को प्रभावित किया है। न्यायालय में पत्रकारिता, लाइव स्ट्रीमिंग, सार्वजनिक रिपोर्ट्स आदि अब भी सीमित हैं।
न्यायिक सुधारों की आवश्यकता: समाधान की दिशा में कदम
1. जजों की नियुक्ति और संख्या बढ़ाना:
फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स, ग्राम न्यायालयों और डिजिटल कोर्ट्स के माध्यम से भार को कम किया जा सकता है।
2. ई-गवर्नेंस और तकनीक का उपयोग:
ई-कोर्ट्स परियोजना, वर्चुअल हियरिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित केस ट्रैकिंग सिस्टम को गति दी जाए।
3. मध्यस्थता (Mediation) और वैकल्पिक विवाद निवारण (ADR):
छोटे-मोटे नागरिक और व्यापारिक मामलों के लिए वैकल्पिक न्याय पद्धतियों को मजबूती देना आवश्यक है।
4. न्यायिक जवाबदेही विधेयक:
न्यायपालिका की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व तय करने हेतु ठोस विधिक संरचना होनी चाहिए।
5. लोक अदालतों और पंचायत स्तर पर न्याय:
न्याय को विकेंद्रीकृत करना, ग्राम स्तर पर त्वरित न्याय को बढ़ावा देना एक व्यावहारिक विकल्प है।
6. न्यायालयों में भाषा और प्रक्रिया को सरल बनाना:
फैसलों की भाषा आमजन के लिए सहज हो। कानूनी प्रक्रिया में नागरिकों की समझदारी बढ़ाने हेतु जागरूकता अभियान चलें।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में न्याय केवल व्यवस्था नहीं, बल्कि विश्वास है। जब न्याय व्यवस्था धीमी होती है, तो यह न केवल पीड़ित के लिए असहनीय होता है, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक संरचना को कमजोर करता है।
“धीमा न्याय” एक निष्क्रिय तंत्र नहीं, बल्कि एक सामाजिक चुनौती है। ऐसे में न्यायिक सुधार समय की मांग है — ताकि “न्याय सबके लिए और समय पर” केवल नारा न रह जाए, बल्कि व्यवहारिक सच्चाई बने।
“न्याय केवल होना पर्याप्त नहीं, उसका होते दिखना भी ज़रूरी है।”