भारत-पाकिस्तान तनाव: क्या युद्ध के साथ आंतरिक संकट भी दस्तक दे रहा है?

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पूनम शर्मा

आजकल भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव उनकी चरम सीमा पर है। सीमाओं पर सैन्य गतिविधियों की गति तेज हो गई है, और अंदरूनी तौर पर दोनों देशों में भी कोई बड़ी हलचल देखी जा रही है। समाचार चैनल और विश्लेषक इस पर काम कर रहे हैं कि सीमा पर कुछ क्या घट रहा है, लेकिन इसके ‘बीच की रेखाओं’ को समझने पर एक और गंभीर संकेत मिल रहा है — भारत में आंतरिक अस्थिरता फैलाने की एक सुनियोजित आशंका।

 जम्मू-कश्मीर की घटनाक्रम को देखें। नागरिक खुलेआम पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन करने लगे। बाजार बंद होते गए, लोग सड़कें उतर गये और नारेबाजी पाकिस्तान के लिए की । यह उस प्रदेश के राजनीति इतिहास के बिल्कुल विपरीत है, जहाँ लगभग हमेशा राजनीतिक दल सीधा या घुमा-फिरा बयान पाकिस्तान के समर्थन में जारी रखने की कोशिश करते आ रहे थे। अब शायद ही कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल एक सुर में भारत सरकार का साथ देने में लगे हैं। यह बदलाव न केवल स्वागत योग्य है, बल्कि एक बड़े सामाजिक और राजनीति परिपक्वता का भी संकेत है।

भारत सरकार की तरफ से सूचना मंत्रालय ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि रक्षा गतिविधियों की लाइव रिपोर्टिंग या मूवमेंट का प्रसारण नहीं किया जाएगा। इस तरह की मीडिया पाबंदी तभी लगती है जब कोई बड़ा सैन्य ऑपरेशन चल रहा हो या होने वाला हो। हिंडन एयरबेस और अन्य ठिकानों से मिल रही गतिविधियों की खबरें इस संभावना को और बल देती हैं।

एक अन्य गंभीर संकेत पाकिस्तान से आया है — पाक सेना चीफ आसिम मुनीर ने अपने परिवार को यूरोप भेज दिया है। इसका दो अर्थ निकाला जा सकता है: पहला, उन्हें चिंता है कि भारत पाकिस्तान पर व्यापक हमला कर सकता है। दूसरा, उन्हें खुद अपने देश में असुरक्षित महसूस हो रहा है, क्योंकि अगर पाकिस्तान अंदर ही अस्थिर हुआ, तो उनके परिवार भी खतरे में आ सकते हैं।

इसी में, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ का बयान भी आया, जिसमें उन्होंने यह धमकी दी कि भारत के किसी भी शहर या कस्बे में अराजकता फैलाई जा सकती है। सवाल यह उठता है कि यह कैसे संभव होगा? क्या पाकिस्तान भारत के हर शहर में सैनिक भेज सकता है? नहीं। परंतु यदि भारत के अंदर मौजूद कुछ “स्लीपर सेल” या उनके समर्थक सक्रिय किए जाएं, तो आंतरिक संकट जरूर उत्पन्न हो सकता है।

यहाँ पर इस तरह के संगठनों जैसे पीएफआई का संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाता है। प्रतिबंधित कर दिए गए और उनकी ढांचेदारी वाली निष्फय रिपोर्टें भी अदालतों में पेश हुई हैं। हर जिले में फैली उनकी लहर एक बार एक बृहद खतरे की संभावना उत्पन्न करती थी। आज भी यह खतरा पूरा समाप्त हुआ नहीं है, ऐसा तो कहना जल्दबाजी होगी।

साथ ही, जिस तरह से कश्मीर में बीएसएफ पोस्टों पर फायरिंग हो रही है, वह युद्ध की तैयारी कम और ध्यान भटकाने की कोशिश ज्यादा लगती है। यह संभव है कि पाकिस्तान सीमाओं पर तनाव बढ़ाकर भारत का ध्यान आंतरिक सुरक्षा से हटा देना चाहता हो, ताकि भारत के शहरों में सोए हुए तंत्र को सक्रिय किया जा सके।

यह भी समझना होगा कि पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति बहुत कमजोर है। न उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत है, न ही सेना पहले जैसी तैयार है। चीन, जो अब तक पाकिस्तान का सबसे बड़ा समर्थक था, भी इस समय अपने आंतरिक संकटों में उलझा हुआ है और भारत के खिलाफ खुलकर युद्ध छेड़ने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश भी पाकिस्तान को आतंकवादी देश के तौर पर देख रहे हैं। यानी पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अलग-थल है।

तो क्या युद्ध सुनिश्चित है? परिस्थितियों से पता चलता है कि सीमा पर तो सैन्य टकराव तो संभव है, ही, लेकिन भारत के भीतर भी बड़ा खतरा मंडरा रहा है। शाहबाज शरीफ की “हर शहर में अराजकता” जैसी धमकी इस ओर इशारा करती है कि आंतरिक स्तर पर भी बड़े हमले या दंगे भड़काने की कोशिश हो सकती है।

इसलिए सिर्फ सीमाओं पर नहीं, हर शहर, हर गली, हर मोहल्ले में सजग रहने की आवश्यकता है। यह युद्ध केवल फौजों का नहीं होगा; यह विचारधारा, पहचान और राष्ट्रभक्ति की भी परीक्षा होगी। यदि भारत को बाहरी और भीतरी दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ना पड़ा, तो आम नागरिकों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाएगी।

 इस समय का मौन, खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की गंभीर सक्रियता, ‘तूफान से पहले की शांति’ जैसी लगती है। चाणक्य का सूत्र को याद रखना चाहिए — जब कोई स्वभावविरोधी मित्रता दिखाए या शत्रु अचानक अत्यधिक प्रेम दिखाए, तो वहाँ षड्यंत्र की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। युद्ध केवल पाकिस्तान के विरुद्ध नहीं है। युद्ध उन मानसिकताओं के विरुद्ध भी है जो भारत के भीतर बैठे पाकिस्तान के सपनों को जिंदा रखने की कोशिश कर सकते हैं। सतर्क रहना अब सिर्फ सेना का नहीं, हर भारतीय का कर्तव्य है।

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