काकोरी कांड के नायक: पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

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पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता श्री मुरलीधर शाहजहाँपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे; बाद में उन्होंने नौकरी छोड़कर निजी व्यापार प्रारम्भ किया। रामप्रसाद जी बचपन से महर्षि दयानंद और आर्य समाज से प्रभावित थे। शिक्षा के साथ-साथ वे यज्ञ, संध्या वंदन और प्रार्थना भी नियमित रूप से करते थे।

स्वामी दयानंद द्वारा लिखित ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश ने उनके मन में देश और धर्म के लिए कुछ करने की प्रेरणा जगाई। इसी बीच, स्वामी सोमदेव नामक एक संन्यासी स्वास्थ्य लाभ हेतु शाहजहाँपुर आर्य समाज में आए। युवक रामप्रसाद ने उनकी सेवा में समर्पित होकर अनेक विषयों में वैचारिक स्पष्टता प्राप्त की। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ उपनाम से हिंदी और उर्दू में कविताएँ भी लिखते थे।

1916 में, भाई परमानंद को लाहौर षड्यंत्र केस में फाँसी की सजा सुनाई गई, जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदलकर कालेपानी भेज दिया गया। इस घटना ने रामप्रसाद बिस्मिल को ब्रिटिश शासन के अन्याय का बदला लेने की प्रतिज्ञा के लिए प्रेरित किया। वे अपने जैसे विचारधारा वाले साथियों की तलाश में जुट गए। लखनऊ में क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ और मैनपुरी को केंद्र बनाकर उन्होंने प्रख्यात क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित के साथ गतिविधियाँ प्रारंभ कीं।

जब पुलिस ने पकड़-धकड़ शुरू की, तो बिस्मिल फरार हो गए। कुछ समय बाद जब वारंट वापस लिया गया, तो वे घर लौटकर रेशम का व्यापार करने लगे; पर उनका मन क्रांति में ही रमता था। उनकी सूझबूझ और साहस देखकर क्रांतिकारी दल ने उन्हें अपने कार्यदल का प्रमुख बना दिया।

काकोरी कांड
दल को शस्त्र और गतिविधियों के लिए धन की आवश्यकता थी। बिस्मिल ने ब्रिटिश खजाना लूटने का सुझाव दिया। 9 अगस्त 1925 को, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने 10 विश्वस्त साथियों के साथ काकोरी स्टेशन के पास एक ट्रेन को चेन खींचकर रोक दिया। रेल के चालक और गार्ड को पिस्तौल दिखाकर शांत करा दिया गया। यात्रियों को भी चुप रहने पर मजबूर कर दिया गया। खजाने के बक्से को तोड़कर उसमें रखा सरकारी खजाना लेकर सभी फरार हो गए।

इस घटना के बाद, चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए। रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खाँ और राजेंद्र लाहिड़ी को फाँसी की सजा सुनाई गई।

बलिदान
रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया। वहाँ उन्होंने फाँसी तक अपनी दिनचर्या में कोई बाधा नहीं आने दी। 19 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल को गोरखपुर, अशफाक उल्ला खाँ को फैजाबाद, और रोशन सिंह को प्रयाग में फाँसी दे दी गई।

याद रहे, उनकी बलिदान गाथा हर भारतीय को प्रेरित करती रहेगी।

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