वक्फ संशोधन कानून ने मचाया सियासी तूफान: सुप्रीम कोर्ट बना नया रणभूमि

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,8 अप्रैल।
हाल ही में पारित वक्फ संशोधन विधेयक ने पूरे देश में राजनीतिक और कानूनी भूचाल खड़ा कर दिया है। वक्फ संपत्तियों की डिजिटल ऑडिट और निगरानी के चलते अवैध कब्जों, संदिग्ध खरीद-फरोख्त और राजनीतिक सांठगांठ की चौंकाने वाली जानकारियां सामने आ रही हैं। इसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं की बाढ़ आ गई है, जहां कई प्रमुख नेता और धार्मिक संगठन धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में राहत की मांग कर रहे हैं।

सरकारी सूत्रों के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की पहल पर शुरू की गई वक्फ संपत्तियों की डिजिटल ऑडिट प्रक्रिया में यह सामने आया है कि 2014 से पहले जहां वक्फ की ज़मीन लगभग 3 लाख एकड़ थी, वह अब बढ़कर 9.43 लाख एकड़ से अधिक हो गई है। इनमें 1.56 लाख कब्रिस्तान, 1.21 लाख दुकानें और 56,000 से अधिक आवासीय संपत्तियां शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें से लगभग 73,000 संपत्तियां पहले से ही कानूनी विवादों में उलझी हुई हैं। कई अन्य संपत्तियां लंबी अवधि की लीज़ या बेहद सस्ते दामों पर व्यापारियों, नेताओं और धार्मिक संगठनों द्वारा खरीदी गई हैं।

ऑडिट से यह भी सामने आया है कि अधिकांश संपत्तियां बैकडोर डील्स के माध्यम से हासिल की गईं—कई करोड़ों की ज़मीनें चंद हजार रुपये प्रति वर्गफुट की दर पर खरीदी गईं। यह नेटवर्क राजनीतिक संरक्षण और व्यवस्था की मिलीभगत से चल रहा था, जिसे अब केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में लाने की कोशिश की जा रही है, जिससे कई राजनीतिक दलों की जड़ें हिल गई हैं।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम उन संपत्तियों से जोड़ा जा रहा है जो कथित रूप से चंदे और फर्जी ट्रस्टों के ज़रिए अधिग्रहित की गईं। सिद्धारमैया, डी.के. शिवकुमार और जी. परमेश्वर जैसे वरिष्ठ नेता भी जांच के दायरे में हैं। आरोप हैं कि वक्फ बोर्ड का दुरुपयोग कर ज़मीनें प्राप्त की गईं और बाद में इन पर व्यावसायिक गतिविधियां शुरू की गईं।

यह मामला केवल कांग्रेस तक सीमित नहीं है। सपा, राजद और आम आदमी पार्टी के नेता भी जांच के घेरे में हैं। कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी और अतीक अहमद के परिवार के सदस्य भी करोड़ों की वक्फ संपत्तियों पर अवैध कब्जे के आरोप में शामिल हैं। आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्ला खान वक्फ बोर्ड केस में जेल जा चुके हैं और अब भी ईडी की जांच झेल रहे हैं।

इस पूरे विवाद ने अब न्यायिक मोड़ ले लिया है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसी संस्थाओं ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल जैसे दिग्गज अब याचिकाकर्ताओं की ओर से अदालत में उतरे हैं।

कपिल सिब्बल ने धार्मिक स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए तर्क दिया कि वक्फ संशोधन अधिनियम मुस्लिम समुदाय के अधिकारों का उल्लंघन करता है और वक्फ बोर्ड की स्वायत्तता को खतरे में डालता है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से वक्फ संपत्तियों पर चल रही सर्वेक्षण प्रक्रिया और बेदखली की कार्रवाई पर तत्काल रोक लगाने की मांग की।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इस याचिका पर नाराज़गी जताई। उन्होंने कपिल सिब्बल से तीखे शब्दों में पूछा कि इतनी जल्दबाज़ी क्यों है और याद दिलाया कि अदालत की प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कोई भी अंतरिम आदेश राजनीतिक दबाव या ‘नाटक’ के आधार पर नहीं दिया जाएगा।

CJI ने दो टूक कहा कि कोई भी राहत तभी दी जाएगी जब नया वक्फ कानून वैध पाया जाएगा। इसके पहले किसी प्रकार का आदेश देना गलत उदाहरण बन सकता है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि इस प्रकार की अंतरिम याचिकाएं अक्सर जांच या गिरफ्तारी से बचने के लिए दाखिल की जाती हैं। याचिकाकर्ता चाहते हैं कि जब तक मामला अंतिम रूप से तय न हो, तब तक उन्हें बेदखली, संपत्ति की जब्ती या डिजिटल ऑडिट से संरक्षण मिल जाए। ठीक वैसे ही जैसे हास्य कलाकार कुणाल कामरा ने हाल ही में मुंबई हाईकोर्ट को दरकिनार कर सीधे मद्रास हाईकोर्ट से सुरक्षा मांगी थी।

अब सवाल उठता है—क्या वक्फ संपत्तियों पर अवैध कब्जा प्रशासनिक और कानूनी मामला है या धार्मिक स्वतंत्रता का प्रश्न? क्या राजनीतिक वर्ग इन संपत्तियों में अपने हितों की रक्षा ‘समुदाय अधिकार’ के नाम पर कर रहा है? और क्या न्यायपालिका राजनीतिक और धार्मिक दबावों से ऊपर उठकर केवल संविधान के आधार पर फैसला कर पाएगी?

जैसे अनुच्छेद 370 पर कपिल सिब्बल की दलीलें सुप्रीम कोर्ट में ठुकरा दी गईं थीं, वैसे ही इस वक्फ कानून पर भी फैसला सरकार के पक्ष में जा सकता है—जिससे कई राजनीतिक चेहरों की असलियत उजागर होगी। यह मामला अब केवल ज़मीन का नहीं, बल्कि सत्ता, धर्म और संविधान के बीच संतुलन की कसौटी बन चुका है।

यदि अदालत ने अंतरिम संरक्षण नहीं दिया और ऑडिट आगे बढ़ता रहा, तो यह भारत में धार्मिक संपत्तियों के प्रशासन में एक ऐतिहासिक बदलाव ला सकता है—जो दशकों से जारी दुरुपयोग को पहली बार राष्ट्र के सामने खोलकर रख देगा।

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