कर्तव्य, कर्म और कर्मयोग का कृष्ण पर्व

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अंशु सारडा’अन्वि’

“नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्कर्मण:।
शरीरयात्रापि। च ते न प्रसिद्धयेकर्मण:।”

श्रीमद्भगवत गीता के तीसरे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं, अपना नियत कर्म करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए चाहते थे कि वह क्षत्रियों के लिए निर्दिष्ट धर्म का पालन करें न कि मिथ्याचारीक बने। आखिर देह-निर्वाह के लिए, अपनी रोजाना की जिंदगी चलाने के लिए कुछ न कुछ तो करना आवश्यक ही होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित आध्यात्मवादी या योगी बनने तथा सारा काम-धाम छोड़-छाड़ कर, दूसरों के सहारे जीवित रहने का प्रयास न करें। परजीवी न बने बल्कि कर्मयोगी बने। पूरी गीता कर्तव्य, कर्म और कर्मयोग की की शिक्षा देती है। श्रीमद्भगवद्गीता के संदर्भ में हम सभी जानते ही हैं कि युद्ध से विरत, हतोत्साहित अपने सखा अर्जुन को कर्म से आत्म साक्षात्कार करवाने के लिए श्रीकृष्ण ने 700 श्लोकों के माध्यम से कर्म योग की शिक्षा दी है।
दरअसल यह कर्म और कर्मयोग का सिद्धांत आज की युवा पीढ़ी को अवश्य सिखाना चाहिए। हमारी युवा पीढ़ी कर्मोन्मुखी होने की जगह कर्मविहीन होती जा रही है, जबकि उसके अंदर अपनी पिछली पीढ़ियों के मुकाबले अधिक ऊर्जा और अधिक रचनात्मकता है। पर उसमें योग से भोग की तरफ में आता यह बदलाव अवश्य ही चिंतनीय है। आधुनिकतावादी दृष्टिकोण से देखें तो जितना अधिक आज की पीढ़ी आजादी का उपभोग कर रही है उतना ही आत्मबलहीन होती जा रही है और उसके बाद भी ऐसा नहीं है कि जिसके पास सुख-सुविधा, साधन-संसाधनों की कोई कमी नहीं है वह बहुत सुखी है बल्कि वह अधिक तनावग्रस्त है। उनके अंदर यह विलासिता का भाव इतना गहराई तक घर कर गया है कि वे खुश कैसे रहे इसके लिए भी वे बाजार और उपभोक्तावाद की उत्पाद तकनीक पर ही निर्भर हैं। क्या हो गया है आज के युवाओं को? जिनके अंदर आग तो है पर फुसफुसी सी, जहां जरूरी होती है वहां इसके ऊपर सांप कुंडली मारे बैठा होता है और जहां जरूरी नहीं होता है वह बिना मतलब रोष प्रकट करना और फिर उसका फिजूल प्रदर्शन करना ही उसके हिस्से आता है।
मैंने अपने लेख की शुरुआत कर्म से संबंधित एक श्लोक से की थी। यह कर्म ही जीवन के हर क्षेत्र का मूलाधार है। कल योगीराज, कर्मयोग की सीख देने वाले भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन है। पूरा देश आस्था के साथ इस पर्व को मनाता है, सोशल मीडिया भी कृष्णमय हो जाता है। अपने- अपने कान्हा का सुंदर तरीके से श्रंगार करके, सुंदर डेकोरेशन के साथ डाली गई फोटोज की होड़-सी लगी होती है और व्हाट्सएप, फेसबुक इनसे भरा पड़ा होता है, सब कुछ कृष्णमय। कुरुक्षेत्र का मैदान बनी हुई यह जिंदगी एक दिन के लिए ही सही ब्रजभूमि हो जाती है और मन भी कहीं न कहीं वृंदावन हो जाता है। और मेरा मन भी ब्रज, कुरुक्षेत्र और द्वारका के बीच भागदौड़ करता रहता है। हम देखते हैं कि वर्तमान समय में परिस्थितियां इतनी तेजी से बदलती रहती हैं और उनसे संबंधित हमारी आवश्यकताएं भी यकायक बदलती जाती हैं पर मन है कितना मूर्ख जो कि जल्दी से बदलने को तैयार ही नहीं होता है। जब तक हमारे मन को जरा सी भी ऊष्मा कहीं से मिल रही होती है वह ‘बीती ताहिं बिसार दे, आगे की सुधि लें’, जैसा वाक्य अपनाने को तैयार ही नहीं होता है। यह मन तो आज भी वृंदावन को ही याद करता है पर अचानक याद आ जाता है कि अगर जिंदगी से प्यार करते हो तो ठहरो मत, रुको मत, चलते रहो, आशा को क्षीण मत करो, मौन मत रहो, मुखर बनो पर वाकपटु नहीं, असहाय नहीं बनना है, संघर्ष जरूर करना है, अतिरिक्त पाना है तो अतिरिक्त प्रयास भी करना है। समय का मोल समझना है, खुद को समय की सीमा के अतिरिक्त कर्मक्षेत्र में किसी भी सीमा में नहीं बांधना है क्योंकि अगर वहां खुद को बांध लिया तो कर्म के गति चक्र की हिम्मत भी न कह देगी और हौसले भी जवाब दे देंगे। तो श्री कृष्ण के जन्म पर उत्सव आवश्यक है, उल्लास, उमंग, उत्साह सभी आवश्यक है पर उससे भी अधिक आवश्यक है उसकी ऊर्जा को, उसकी ऊष्मा को अपने अंदर जगाए रखना, जलाए रखना जो कि हमें हमेशा गतिमान रखे। गृहस्थी रूपी द्वारिका में रहना ही है, युवा हो तो कुरुक्षेत्र का रण भी लड़ना होगा पर मन में वृंदावन के प्रेम को कभी खत्म नहीं होने देना है और इन तीनों को अगर अपने अंदर जीवित और जागृत रखना है तो कर्म और कर्म योग को आत्मसात करना जरूरी है। श्रीकृष्ण को मानना आवश्यकता भी है और अवश्यंभावी भी। कठिन परिस्थितियों में भी जीवन कैसे जिया जाता है यह सीखना है तो कृष्ण से सीखना है। मित्रता कैसे निभाई जाए,’नैवर गिव अप’ सीखना हो या संसाधन विहीन होकर भी जीवन के रण को कैसे अपने नाम किया जाए, यह सब कुछ कृष्ण ही तो सिखाएंगे। लोग कृष्ण की छवि को ही गलत और भद्दे तरीके से प्रचारित करते हैं। प्रेम के साथ-साथ वात्सल्य, मित्रता, शत्रुता, जीत, हार, शौर्य, पराक्रम, श्राप, वरदान, शिक्षा, राजकाज जैसे सभी तत्व श्रीकृष्ण के जीवन में विद्यमान थे, जिन्हें उन्होंने भली-भांति जिया भी और जीने की सीख भी दी। तो ऐसे योगीराज कृष्ण के जीवन से अगर हमारी युवा पीढ़ी कर्म का संदेश और शिक्षा ग्रहण करती है तो यह निश्चित रूप से जन्माष्टमी मनाने का असली आनंद होगा। कृष्ण जन्म की अनेकानेक बधाइयां…

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