अल सुबह चारों ओर कोहरा पसरा हुआ है। ट्रेन अपनी पुरजोर तेज चलने की कोशिश में है। लखनऊ, आलमनगर, काकोरी, मलिहाबाद, ये सरसों के खेत, आम, पीपल, नीम, बरगद के पेड़ और टेढ़ी-मेढ़ी पर सुंदर दिखती पगडंडिया, खेत खलिहान और उनमें बने झोपड़े, खेतों में कहीं इक्का-दुक्का खड़ा बिजूका और सबसे बढ़िया उस पर बैठा कौआ, सब पीछे जाते जा रहे हैं और वह शहर पास आता जा रहा है, जो दिल में बसता है, खून में दौड़ता है और यादों में रहता है…. बरेली। तीन साल से अधिक के अंतराल के बाद बरेली की जमीं। कल से आज तक है मन तो न जाने कितनी बार बरेली हो आया। दरअसल हमारे मन की गति से तेज न समय की गति होती है और न ही प्रकाश और ध्वनि की। इन सालों के अंतराल का समय घटनारहित समय रहा हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। अगर ऐसा होता तो यह समय नीरस होता, एक अंतहीन समय की तरह जिसका कोई ओर-छोर नहीं, बिखरा हुआ। पर इसकी यादों को लपेटने के लिए बहुत कुछ है, आनंद भी, त्रासदी भी, पेड़ों की छांव भी तो सूखा तना भी, रस भी है तो नीरसता भी, बिजली भी है तो बादल भी, गीत है तो मौन भी, रंग भी है तो ऊब भी, प्रेम भी है तो वैमनस्य भी। पर चूंकि यादें तो यादें हैं, लपेटना तो रहेगा ही, रात के अंधेरे से निकाल दिन के उजाले में खींचना ही होगा। मन अच्छा हो तो बूंद में सागर समा जाए और मन अच्छा न हो सागर में बूंद की भांति खो जाए। साल का आखिरी इतवार पूरे साल को समेटने का इतवार। रास्ते में विनोद रिंगानिया की किताब ‘ट्रेन टू बांग्लादेश’ पढ़नी शुरू की, काफी सारे पन्नो को पढ़ने के बाद इतनी रोचक यात्रा की किताब को आगे पढ़ने के लिए और सजीव यात्रा को जीने के लिए बंद कर दिया। रास्ते में दिखते मकानों की दीवारों पर तरह-तरह के विज्ञापन, देसी दवाखानों के विज्ञापन, मकान बिकाऊ हैं जैसे विज्ञापन दिखाई दे रहे हैं, लाल ईंटों पर सफेद रंग से लिखे विज्ञापन। मकान बिकाऊ है पर यादें, वो साल भर की यादें क्या वे भी बिकाऊ हैं? नहीं, वे कैसे हो सकती हैं बिकाऊ। यादें अच्छी हो या बुरी जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाती हैं, धूमिल हो जाती हैं, दब जाती हैं पर खत्म नहीं होती हैं। एक बंदर एक मकान से दूसरे मकान पर उछलता- फर्लांगता, एक तार को पकड़ कर खड़ा हो गया है, इधर- उधर देखने। शायद वह या तो इस तार को पकड़ने के खतरे से अनभिज्ञ है या ज्यादा उस्ताद है।
हमारे ऊपर इस समय कंपकंपाती सर्दी का असर है कि मुंह से भाप निकल रही है और यादें भी इसी के समान आती हैं, बनती हैं और भाप की तरह ही उड़ जाती हैं और विचार उनका तो कहना ही क्या। एक बनाओ तो अपने आप ही बढ़ते जाते हैं। बीसवीं सदी के प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक जो कि अपनी लेखनी द्वारा सामाजिक चेतना और ग्रामीण गरीबों की समस्याओं को प्रमुखता से उठाने के लिए जाने गए, ने भी कहा है कि
“विचार खरगोशों की तरह होते हैं जो कि आपको एक जोड़े में मिलते हैं और आप उन्हें कैसे संभालना सीखते हैं उस पर निर्भर करता है कि जल्द ही आपके पास वे एक दर्जन भी हो जाते हैं न।”
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तो विचारों की उन्मुक्तता भी आवश्यक है। पिछले वर्ष के आखिरी इतवार को मेरे लेख का विषय था “तोड़ो नहीं जोड़ो”, लो मैं फिर से अतीत में चली गई। यह समय भी जो होता है वह भी कम दिलचस्प नहीं होता है। यह चलता तो हमेशा अपनी एक जैसी चाल में है पर ऐसा दिखता नहीं है। यूं तो यह हम पर होता है कि समय कितनी गति से और किस तरह से व्यतीत हो पर होता यह है कि जिस समय हम दूसरों को अपने साथ चाहते हैं, हमें दूसरों की जरूरत होती है तो हमारे अपने ही हमारे साथ नहीं होते हैं और जब एकांत की, अकेलेपन की जरूरत होती है या अपने उस समय को खुद की तरह से जीने की इच्छा होती है तो यही लोग, यह दुनिया हमारे साथ होने का दिखावा करने लगती है। जबकि अतीत छोड़ते जाने के लिए होता है और वर्तमान पकड़ने के लिए तथा भविष्य जोड़ने के लिए। जिंदगी का अर्थ ही जीवित रहने के साथ-साथ जीवंत रहना होता है, जिंदादिल रहना होता है। यह दोनों ही नहीं तो जिंदगी में रंग कैसे संभव होंगे। अतीत की यादें, वर्तमान का जीवन और भविष्य की कल्पनाएं छलांग मार रही होती हैं हमारी जिंदगी में। कुछ को दिमाग अवशोषित कर लेता है अपने अंदर, कुछ मन की गलियों में भटकती रहती हैं। पिछले वर्ष की यादें जिंदगी का एक सबक है आने वाली जिंदगी के लिए पर जिंदगी नहीं।
बहुत सी बातों पर ध्यान देना होगा आगामी वर्ष में जो बिकाऊ न तो थीं और न हैं, जैसे हमारी सेहत, हमारा जीविकोपार्जन, हमारे अधिकार, हमारे शौक और साहस, हमारी प्रतिष्ठा आदि। सेहत से बढ़कर कुछ भी नहीं है, सेहत है तो सब कुछ सहन है। जीवन के लिए आय, जो कि जीवन को सुगम बनाने के लिए आवश्यक है, वह कभी बिकाऊ नहीं हो सकती। अपने साहस को भी कभी दूसरों के हवाले नहीं करना चाहिए। अरस्तु ने भी कहा है कि
“बिना साहस के आप इस दुनिया में कुछ भी नहीं करेंगे, प्रतिष्ठा के बाद साहस ही दुनिया की महानतम विशेषता है।”
अपने शौक और अपनी प्रतिष्ठा भी तो हमारे अपने से ही जुड़े हुए होते हैं। सबसे अधिक जरूरी है खुद पर विश्वास रखना। ये फूल, यह प्रकृति खुद ही उन्मुक्त और खुश रहती है तभी तो खूबसूरत दिखाई दे रही है। खुश रहने के लिए एक खास तरीके की जिंदगी क्यों जीना? वह जिंदगी जो कि ढकोसला मात्र हो। उसी तरह जिंदगी की सुंदरता भी उसकी बातों में ही होती है, उसके प्रति विश्वास में होती है। जहां यह विचार हमारे अंदर आया कि हम किसी से कम हैं तो वह हमारे आत्मविश्वास को तोड़ने के लिए काफी है। इसलिए ऐसे विचारों को दोगुना करने की नहीं बल्कि उस भ्रम को तोड़ने की जरूरत है जो कि हमे मौलिक बनने से, सोचने से, करने से रोके। जैसे हर चमकती चीज सोना नहीं होती कभी, वैसे ही दूसरों की चमकती हुई जिंदगी कभी भी भीतर से उतनी खुशहाल नहीं होती जो कि उसकी स्टेटस में या सोशल मीडिया पर दिखाई दे रही होती है। खुद के लिए खुद ही मानक स्थापित करने होंगे हमें, अपना लक्ष्य, अपनी मंजिल, अपना रास्ता। असफलता और सफलता दोनों संघर्ष के बाई प्रोडक्ट होते हैं। हर नया अविष्कार, हर नया इनोवेशन बिना असफलता के संभव ही कहां हो पाता है। हमें भी हतोत्साहित किया जाएगा, दबाया जाएगा पर एक स्प्रिंग को देखा है जितना उसे दबाया जाता है उतना ही जोर से वह ऊपर को उछलता है। इसलिए परिस्थितियां चाहे खिलाफ ही क्यों न हो, रुक जाना नहीं है। एक तितली हमेशा जानती है कि सब दुखों के अंत के बाद हमेशा सुंदरता होती है तो हम यह कैसे भूला सकते हैं।
और अब अंत में आंग्ल नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ इस साल के आखिरी लेख को प्रसिद्ध अमेरिकन कवि रॉबर्ट ली फॉस्ट की पंक्तियों के साथ विराम देती हूं…..
“मैंने अपनी जिंदगी में जो कुछ भी सीखा है उसे मात्र तीन शब्दों में समेट सकता हूं। जीवन चलता रहता है।”