डॉ.एस.पद्मप्रिया।
यराजभाषा राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है और भाषा सामान्य जनता के बीच बोलचाल का माघ्यम है। राजभाषा कार्यान्वयन एक विशिष्ट प्रयुक्ति है तथा इसकी प्रकृति एवं प्रयोजन निर्धारित है। भारत देश में ‘हिन्दी’ भाषा एवं राजभाषा दोनों ही स्तरों पर होने के कारण अन्य भाषाओं से अलग स्थिति में है।
भाषा और सत्ता का निकट का सम्बन्ध है। यही कारण है कि जब हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया तो अन्य भाषा प्राँतो को अपनी अस्मिता का खतरा नजर आया। स्वतंत्रता से पहले गांधीजी ने हिन्दी के माध्यम से देशभर के स्वतंत्रता सेनानियों को जोडना चाहा था। इसलिए उन्होंने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के द्वारा हिन्दी प्रचार को देश-सेवा के साथ जोडा परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्तर, पूर्व या पश्चिम भारत में अन्य भाषा प्रचार सभा की स्थापना नहीं हुई बल्कि एक तरफा भाषाई लाभ भी प्राप्त हुआ। इस तरह से देश के भीतर ही भाषाई उपनिवेशवाद जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। इसी कारण दक्षिण में हिन्दी विरोधी आंदोलन भी हुए। प्रायः इसे राजनीतिक पैंतरा कहकर टाल दिया जाता है। परन्तु अन्य प्रदेशों की सांस्कृतिक एवं भाषाई अस्मिता की चाह को अनदेखा किया जाता रहा है। अपने ही देश में भाषा के स्तर पर दोयम स्थिति ही हिन्दी के राजभाषा रुप की अडचन है। देश के भीतर एक प्रदेश की भाषा होने के कारण इसके राजभाषा स्वरुप के प्रति रुखापन दिखता है।
सरकारी संस्थानों में राजभाषा कार्यान्वयनः-
देश के अधिकतम राज्यों में राजभाषा कार्यान्वयन आज भी महज एक खानापूर्ति है। आज की तारीख में हिन्दी में कामकाज के साथ न तो राष्ट्र प्रेम की भावना है और न ही सेवा भाव। परन्तु इस प्रकार के रुख के कारणों को जानना भी महत्वपूर्ण है।
सरकारी संस्थानों में अंग्रेजी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में काम होता है। इसका सबसे बडा कारण है कि प्रशासन के तौर-तरीके अंग्रेजों के जमाने के हैं और फाइलों पर होने वाली लिखा पढ़ी उसी प्रकार से होती है जैसे अंग्रेजों के शासनकाल में होती थी इसलिए हिन्दी का कार्यान्वयन अंग्रेजी के अनुवाद द्वारा ही होती है। जिससे इसका स्वरुप कृत्रिम रुप धारण करता है। विडम्बना यह है कि अपनी ही भाषा तक पहुंचने के लिए किसी दूसरी भाषा को माध्यम बनाया जाता है।
हिन्दी भाषी प्रदेशों को हिन्दी के अलावा किसी और भाषा को सीखने की जरुरत नहीं है जबकि अन्य प्रान्तों को दो या तीन भाषाओं को सीखने का अतिरिक्त बोझ उठाना पडता है। हिन्दी बोलने वाले यह मानकर चलते हैं कि देश के अन्य भाषी नागरिक हिन्दी जानते ही हैं क्योंकि यह देश की राजभाषा है। यह एक प्रकार से प्रांतिय अहंकार को अनजाने ही प्रश्रय देता है।
अंग्रेजी जानना सभ्य होने का प्रतीक बन चुका है। यही नही चूकि अंग्रेजी समान रुप से देशभर के लिए अन्य भाषा है इसलिए यह प्रांतिय सुविधा की भावना से परे होता है।
कार्यालयों में सितम्बर माह में हिन्दी के मेले लगते है जिसमें अक्सर हिन्दी भाषा प्रेम पर व्याख्यान होते हैं जबकि राजभाषा कार्यान्वयन हिन्दी भाषा प्रेम से अलग मुद्दा है। हिन्दी सिनेमा, हिन्दी गानों की लोकप्रियता के उदाहरण दिए जाते हैं परन्तु भाषा से प्रेम और सांस्कृतिक अस्मिता तथा सत्ता से जुडे सवाल अलग धरातल के हैं।
राजभाषा कार्यान्वयन को हिन्दीत्र भाषा-भाषी अपनी संस्कृति एवं भाषाई अस्मिता के लिए खतरा समझाते हैं क्योकि हिन्दी भाषी अन्य भाषाओं को सीखना नहीं चाहते इसलिए आदान-प्रदान के लुप्त सोपानों से दूरी उत्पन्न होती है। प्रायः हिन्दी सिनेमा में भी अन्य प्रदेशों के निवासियों की हिन्दी का मजाक बनाया जाता है।
अधिकतर बडे अधिकारी हिन्दी में काम नहीं कर सकते। उन्हें इसमें समय की बर्बादी ही लगती है। अन्य कर्मचारियों को हिन्दी कक्षाओं में नामित नहीं किया जाता इसलिए यह कक्षाएँ भोजनविराम के दौरान चलती है।
सारी शिक्षा क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी में प्राप्त करने के बाद दफ्तर में नौकरी प्राप्त करके हिन्दी की बारहखडी सीखकर सरकारी कामकाज को निपुणता से निपटाना बहुत ही कठिन काम है। हमारी शिक्षा प्रणाली वैसे भी सरकारी कामकाज की भाषा या तरीका नहीं सिखाती है। दैनंदिन काम पुरानी फाइलों से या सहकर्मचारियों की मदद से ही सीखा जाता है।
हिन्दी अनुभाग के कर्मचारियों को दूसरे विभागो में काम दे दिया जाता है क्योंकि यह भावना प्रबल है कि हिन्दी अनुभाग में कोई सार्थक काम नहीं होता। साथ ही प्रायः संस्थान की प्रत्येक गतिविधि को हिन्दी में प्रस्तुत करना ही हिन्दी का काम मानालिया जाता है जैसे वैज्ञानिक संस्थानों में होने वाले शोध को पत्रिका द्वारा प्रकाशित करना परंतु राजभाषा कार्यान्वयन का एकमात्र अर्थ प्रशासनिक कार्य को हिन्दी में करना है।
विश्वविद्यलयों में हिन्दी विभाग को राजभाषा कार्यान्वयन का काम सौंप दिया जाता है। यह बात समझने की भी कोशिश नहीं की जाती कि विश्वविद्यालयों के विभाग में अकादमिक कार्य होता है। यहां एक प्रश्न उठ सकता है कि एडमिनिस्ट्रेशन या प्रशासन का काम अगर अंग्रेजी में होता है तो क्या अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर प्रशासन का सारा कार्य करेंगें ?
वस्तुतः हिन्दी भाषा के राजभाषा कार्यान्वयन में अनेक अड़चने हैं।
डॉ.एस.पद्मप्रिया ( हिन्दी विभाग, पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय)
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