आनन्द कुमार
खेती के तरीकों के बारे में जो स्कूल में पढ़ा होगा उनमें एक “पोंडू” नाम की प्रथा शायद याद होगी। इस व्यवस्था में जंगलों का कुछ हिस्सा जला कर वहां खेती के लायक जमीन बना ली जाती है। कुछ समय बाद उसे छोड़कर वापस जंगल हो जाने दिया जाता था और किसी दूसरी जगह जंगल साफ़ कर लिया जाता। जाहिर है लगान की वसूली वालों को ये तरीका पसंद नहीं आएगा। अचानक आपके पास से लगान देने वाले गायब हो जाएँ, अचानक बढ़ जाएँ, कोई नियंत्रण ही न हो, ये किसे पसंद आएगा। वनवासी समुदायों की ऐसी प्रथा को बंद करने की कोशिश में 1879 में ही “रामपा विद्रोह” हो चुका था।
उस दौर में मद्रास प्रेसीडेंसी (अब के आंध्रप्रदेश) में विशाखापत्तनम के आस पास के इलाकों में हुए इस विद्रोह को कुचल दिया गया था। 1922 में जब रेलवे लाइन और जहाज बनाने के पेड़ काटने के लिए फिरंगियों ने दोबारा इस इलाके पर दमन बढ़ाना शुरू किया तो विद्रोह फिर से उभरने लगा। फिरंगी चाहते थे कि वनवासी, फिरंगियों के मुताबिक जो “मलेरिया ग्रस्त नरक जैसा” इलाका होता था, वहां उनके लिए पेड़ काटने और मजदूरी जैसा काम करें। हिन्दुओं के लिए “उत्तम खेती और नीच चाकरी” जैसी अवधारणा के कारण फिरंगियों को मजदूर कम मिलते थे।
इस “रामपा विद्रोह” का नाम स्कूल की किताबों या प्रचलित इतिहास की किताबों में कम होने का कारण तो इसके नाम में ही है। जैसे बंगाल की जेहादी आपा “जय श्री राम” के नारों से भड़क जाती हैं, वैसे ही इस विद्रोह के नाम में ही राम है! एकीश्वरवादी ओछे किस्म के मजहबों से सबसे लम्बे समय तक लड़ाई जारी रखने वाले सनातनी ही सिर्फ विद्रोह की आखरी कड़ी नहीं, उनके लिए “श्री राम” का नाम भी विद्रोह का स्वर हो जाता है। कई बार प्रचलित उपन्यासकार जो नैरेटिव गढ़ते हैं, उसमें वनवासियों को सनातनी परम्पराओं से अलग दिखाने का भरसक प्रयास किया जाता है। इस वजह से भी 1922-24 के रामपा विद्रोह का जिक्र नहीं किया जाता होगा।
इस विद्रोह के प्रमुख थे अल्लूरी सीताराम राजू। उनके जीवन के शुरूआती काल का बहुत कम पता चलता है। फिरंगियों ने अपने शत्रुओं और विपक्ष के नायकों का नाम इतिहास से मिटा देने की कोशिश तो की ही होगी, बाद के उनके भूरे उपनिवेशवादी टुकड़ाखोर भी ऐसे प्रयासों में पीछे नहीं रहे होंगे। पूर्वी गोदावरी और विशाखापत्तनम के क्षेत्रों के इस क्रन्तिकारी का शुरुआती काल भले न पता चले लेकिन 1922-24 के बीच के उनके कारनामे काफी स्पष्ट हैं। बंगाल के दूसरे क्रांतिकारियों से प्रेरणा लेकर सीताराम राजू ने थानों पर हमला करके फिरंगियों की बंदूकें लूट ली और कई बार फिरंगी फौजों से लोहा लिया।
चिंतापल्ली, दम्मनपल्ली, कृष्णा देवी पेट, जैसे इलाकों में छापामार युद्द और गुरिल्ला युद्धों में उन्हें कई बार कामयाबी भी मिली। फिरंगी अफसर स्कॉट कोवार्ड को उन्हें रोकने भेजा गया था, लेकिन वो भी सीताराम राजू से लड़ते हुए मारा गया। आख़िरकार एक दिन कय्युर गाँव के पास फिरंगियों ने सीताराम राजू को पकड़ने में कामयाबी पायी। उन्हें एक पेड़ से बांधकर गोलियों से उड़ा दिया गया। सन 1882 के मद्रास फारेस्ट एक्ट से लड़ता हुआ ये वनवासी वीरगति को प्राप्त हुआ। उनके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने एक डाक टिकट जारी किया था। अक्टूबर 2017 में उनके सम्मान में अल्लूरी सीताराम राजू की एक मूर्ती को संसद में स्थापित करने की मंजूरी दी गयी थी।
अगर आश्चर्यजनक समानताओं की बात करें तो कथित रूप से “उच्च वर्ण” के बताकर गालियों से नवाजे जाने वाले ब्राह्मण जिस परशुराम को पूज्य मानते हैं, उनकी छवि अक्सर लम्बी दाढ़ी और परशु, धनुष-बाण से लैस बनाई जाती है। उपन्यासकारों द्वारा सनातनी परम्पराओं के बाहर घोषित किये जाने वाले वनवासी समुदाय का नेतृत्व कर रहे, अल्लूरी सीताराम राजू की जो छवि बनती है, वो भी बिलकुल वैसी ही है! भारत विविधताओं में अजीब सी एकता का भी देश है। अफ़सोस इस बात का भी है कि भारतीय संविधान “संस्कृति” पर मौन साधे दिखता है।
बाकी भारत को विविधताओं में एकता का देश घोषित करने वालों ने हमारे संविधान में उस “संस्कृति” शब्द पर चुप्पी क्यों साधी जिसके आधार पर भारत एक देश बनता है, ये भी सोचने लायक है। सोचियेगा, क्योंकि फ़िलहाल सोचने पर जीएसटी नहीं लगता।
आनन्द कुमार